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बाजार में बड़ी बात की बड़ी कीमत
कुछ वर्ष पहले की बात है, अच्छे प्रचार संख्या वाले एक दैनिक समाचारपत्र के संपादक मित्र (नाम यहां महत्वपूर्ण नहीं) से मुलाकात हुई थी, साप्ताहिक लेख लिखने के संदर्भ में। बातचीत के दौरान वो कहने लगे कि मैं बहुत ही छोटी-छोटी बातों पर लेख लिखा करता हूं, जबकि उनके समाचारपत्र में मशहूर सिलेब्रेटीस बड़े-बड़े मुद्दों पर लिखते हैं। यह बहुत हद तक सच है। यही नहीं, उनके अखबार के लेखों में आर्थिक उदारीकरण के सुंदर चित्रों का प्रदर्शन होता जबकि मेरे लेखों में गरीबी होती। वहां बड़े-बड़े विश्वस्तरीय व्यावसायिक घराने होते तो यहां आम आदमी। उनके लेख में विकास की बातों के साथ एयरपोर्ट, चमचमाते मॉल व आकर्षक फ्लाई ओवर होते जबकि मेरे शब्द वर्णन में तृतीय-चतुर्थ श्रेणी के किराये का मकान और बसों-ट्रेनों के अंदर धक्का-मुक्की करती भीड़ होती। वहां बाजार का समर्थन साफ दिखाई देता, यहां शक जाहिर किया जाता। उनके समाचारपत्र के हर एक पृष्ठ पर जीरो फिगर दिखाती-लुभाती स्वप्निल नायिका और मांसल नायक होते जबकि मेरे कल्पना संसार में सौंदर्य तो होता मगर वो फटे कपड़ों द्वारा अपनी शर्म को छिपाने की कोशिश में लगा होता। उनके लेखों में सेंसेक्स के आंकड़ों से बुना हुआ अर्थव्यवस्था का मायाजाल होता जबकि मेरे विचारों में बेचैनी के साथ आसमान छूती महंगाई और भूखे लोगों की चिंता होती। उनके अखबार में छपने वाला हर व्यक्ति, चाहे फिर वो राजनेता, अभिनेता, नौकरशाह, व्यापारी, कलाकार से लेकर नकारात्मक छवि वाला व्यक्ति ही हो, मशहूर होता जबकि यहां तो मैं स्वयं एक गुमनाम लेखक और मेरे पात्र भी समाज का अनजान पाठक होता। वो दिमाग से मजबूत और मैं दिल के हाथों मजबूर।
उपरोक्त परिस्थिति में गलत-सही का सवाल तो बाद में आता है, अब अखबार भी क्या करें? अगर बिकना और धंधा करना है तो आज के जमाने में, बाजार में सिर्फ ब्रांड की कीमत है। आदमी और उसके शब्दों का कोई मूल्य नहीं। पिछले दो-तीन वर्षों में तो इस ब्रांड का चलन समाचारपत्रों में भी पूरी तरह घुस गया। अखबार की बिक्री व आपसी प्रतिस्पर्द्धा में जीत के लिए बाजार के नायक का सहारा लिया गया। और उसने यह काम बखूबी निभाया भी। बदले में ब्रांड की वेल्यू भी बढ़ी है। इस वास्तविकता व समाज के चलन से मैं भली-भांति परिचित हूं। शायद यही कारण है जो उपरोक्त संपादक महोदय का कथन, मेरे लिए किसी हीन भावना से ग्रस्त होने का कारण नहीं बन पाया था। न ही उनके द्वारा सबके सामने अप्रत्यक्ष रूप से मेरी उलाहना करने पर मैंने बेइज्जती महसूस की थी। खुद को असंवेदनशील कहलाने से अच्छा होगा कि मैं यहां स्वयं को सामान्य व्यवहारिक इंसान घोषित करूं। चूंकि यह सही है कि मैं साधारण आम घटनाओं को शब्द और संवेदनाओं को जिंदा रखने की कोशिश में रहता हूं। तो फिर इस सत्य को सुनकर इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। और फिर उनका कथन उनके स्वयं के लिए भी तो ठीक था कि वो समाचारपत्र बेचने के लिए आए हैं।
कुछ दिन पहले, मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था, ‘छोटी-छोटी बातों में छिपा सुख’। यह मेरे अभी तक के, सालों से लिखे गए सैकड़ों लेखों में सबसे सामान्य और साधारण था। यूं तो पाठकों का प्रेम फोन और एसएमएस के माध्यम से मिलता रहता है मगर इस लेख के संदर्भ में प्राप्त प्रतिक्रिया की संख्या देखकर, मुझे थोड़ी हैरानी हुई थी। फोन करने वाला हर पाठक प्रेमी, इसमें लिखी गई छोटी-छोटी बातों से इतना प्रभावित व द्रवित था कि किसी ने भी अपनी भावनाओं व संवेदनाओं को छुपाने की कोशिश नहीं की थी। वो अपने प्रवाह में बहते चले गए थे। मेरी खुशी का तब तो कोई भी ठिकाना नहीं था, जब मुझे यह पता चला कि एक प्रतिष्ठित समाचारपत्र, जिसमें मेरा लेख नियमित प्रकाशित होता है, के संपादक महोदय के घरवालों ने उनसे विशेष रूप से उपरोक्त लेख के बारे में चर्चा की। संपादक महोदय ने मुझे विशेष रूप से इस बात के लिए फोन किया था। साथ यह भी बताया कि इतने सालों में उनके परिवारजन ने कभी भी किसी लेख के बारे में इतनी उत्सुकता जाहिर नहीं की थी। यह मेरे लिए गर्व और अहम् के क्षण नहीं बल्कि अंतर्मन कुछ इस तरह द्रवित हुआ कि गति की कोई सीमा नहीं रही। और यही भावना आंखों में उतर आई, जब मेरे पिता ने, जो उस दौरान मुझसे दूर, मध्यप्रदेश के शहर जबलपुर में थे, वहां एक समाचारपत्र में इस लेख को पढ़कर मुझे फोन किया था। वे बेहद भावुक हो रहे थे और उसी प्रवाह में आकर मुझे अपनी कई कहानियां व अनुभव सुना गए। उनके मतानुसार भी उन्हें इस लेख ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया था।
उपरोक्त बातें अपने लेखन की तारीफ करने के उद्देश्य से नहीं बल्कि इस सत्य के संदर्भ में है कि छोटी-छोटी बातें दिल को छूती हैं। उपरोक्त घटना मेरे लिए मात्र प्रोत्साहन ही नहीं बल्कि विचारों को संचालित व नियमित करने के लिए भी थीं। मुझे अपने सामान्य लेखों में लिखी गई छोटी-छोटी बातों की सार्थकता पता चली। मैंने उपरोक्त सम्मानीय संपादक मित्र को उस वक्त जवाब नहीं दिया था, न ही देना चाहता था, मगर मुझे पाठकों का उत्तर जरूर मिल गया था। यह सच है कि ब्रांडेड नाम बाजार में बिकता है। बड़े-बड़े सब्जबाग, सपनों के मायाजाल व कल्पनाओं से मोहित कर पाठक को उपभोक्ता बनाकर उसे अखबार खरीदने के लिए प्रेरित किया जाता है। इस तरह से प्रचार संख्या तो बढ़ाई गई मगर पठनीयता कम हो गई। दूसरी तरफ ‘देखन को छोटन लगे घाव करे गंभीर’ के भावार्थ पर और अधिक विश्वास करने लगा हूं। रोजमर्रा की साधारण बातें कितना अधिक असर करती हैं, जान चुका हूं। यह व्यवहारिक ज्ञान भी है कि छोटे बिंदुओं को अगर हम ठीक से समझ लें तो बड़े मुद्दों को समझने में कठिनाई नहीं रह जाती। छोटे-मोटे झगड़े हल कर लिये जाएं तो लड़ाई का कारण बनता ही नहीं। आखिरकार जीवन भी तो पल-पल जोड़कर बना है। छोटी-छोटी खुशियां जीवन को उमंग से भर देती हैं और हर दिन जीवंत होकर महकता है।
एक बहुत छोटा-सा उदाहरण जो मेरे पिता ने अपने जीवन अनुभव से सुनाया, विश्व की एक भयंकर समस्या को हल करने के लिए काफी होगा। और शायद इस विषय पर विश्व सम्मेलन करने की आवश्यकता नहीं रह जाए। सरकारी नौकरी के दौरान मुंबई में, पिता के एक उच्च अधिकारी ने दसियो साल पहले उन्हें पचास रुपए दिये थे। इस पैसे से एक बूढ़े को, जो दादर स्टेशन के पुल के नीचे बैठकर भीख मांगा करता था, आते-जाते रोज दो समोसे और एक चाय पिलाना था। मेरे पिता इस कार्य को बेहद संजीदा होकर नियमित रूप से करते थे। वो अपने उच्च अधिकारी की भावनाओं व विचारों से परिचित भी थे। अधिकारी, एक संवेदनशील इंसान, गाहे-बगाहे जरूरतमंदों की मदद करते रहते। एक दिन वो बूढ़ा वहां नहीं मिला तो पिता को दुःख हुआ था। पूछने पर पता चला कि वो मर चुका है। उन्होंने अपने अधिकारी को यह बताया तो उनकी आंखों में आंसू थे। बहरहाल, उस दिन पिता ने बातचीत के दौरान अधिकारी महोदय से पूछ ही लिया कि इस तरह रोज किसी को खिलाने का कोई विशेष कारण? इसके पूर्व कि वो कुछ कहते, उनकी आंखों में उतर रही पीड़ा को आसानी से पढ़ा जा सकता था। और फिर वो विस्तार से बताने लगे कि बचपन में उन्होंने भूख देखी है। गरीबी में पले-बढ़े हैं। वो इस परेशानी को समझ सकते हैं। वह जानते हैं कि एक वृद्ध आदमी इस उम्र में खुद कमा कर खा नहीं सकता जबकि खुद आज इतना सामर्थवान हो चुके हैं कि कम से कम दो-चार बूढ़ों को तमाम उम्र दो समोसे और एक चाय जरूर खिला-पिला सकते हैं।
रईसों की छोड़िए, लेकिन ऐसा ही हर एक साधारण हैसियत वाला मनुष्य भी करे तो दुनिया से भुखमरी खत्म होगी। किसी एक जरूरतमंद को एक वक्त का भोजन कराने से कम से कम कोई भूखा नहीं सोयेगा। वैसे भी सब कुछ प्रकृति का ही तो दिया हुआ है जो सबके लिए है। वो तो हमने सब से छीनकर इसे अपने लिये इकट्ठा कर लिया है। सत्य है कि अगर सभी का पेट भरा हुआ होगा तो समाज की बहुत-सी मुश्किलें आसान हो जाएंगी। नक्सलवाद और आतंकवाद का प्रकोप अपने आप आधा हो जाएगा। लोग चोरी करना कम कर देंगे। छीना-झपटी बंद हो जाएगी। मानवीय संवेदना और आपसी तालमेल बढ़ जाएगा। जब संवाद और संपर्क अधिक होगा तो दो इंसानों के बीच सीधे संबंध स्थापित होने लगेगा। जब संबंध में मधुरता होगी तो फिर क्या भाषा, क्या धर्म, क्या राज्य, क्या देश, किसी भी तरह से आम आदमी को बांटने की कोशिश सफल नहीं हो पाएगी। और जब आप इन्हें बांट नहीं सकते तो किसी भी तरह की आपस की लड़ाई का सवाल ही नहीं। क्रोध में पागल किसी इंसान के कंधे पर प्रेमपूर्वक हाथ रखने से यह पक्का है कि झगड़े की संभावना आधी हो जाती है जबकि बराबरी से टकराने पर युद्ध होना अवश्यंभावी हो जाता है।
मैं यह नहीं जानता कि बाजार की भाषा में बड़ी-बड़ी बात करने वाले उपरोक्त संपादक मित्र की वर्तमान अवस्था क्या है? यकीनन सफल होंगे। और क्यों न हों, आजकल अखबार भी लाखों-करोड़ों की संख्या में बिक रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि वो व्यापारिक रूप से लाभान्वित और राजनैतिक रूप से सशक्त हो गए होंगे। मगर क्या हम अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाहन कर पा रहे हैं? क्या बाजार की सफलता पाठकों के साथ दर्द का रिश्ता जोड़ पाई? ऐसा नहीं कि यह कोई एक समाचारपत्र की कहानी है, बाजार में आज दसियों अखबार और भी खड़े हैं। सभी बिक रहे हैं। बिकने की सबकी अपनी-अपनी व्यवस्था है। लेकिन मीडिया की विश्वसनीयता पर आज प्रश्नचिह्न लगने लगा है। पाठक इनसे पूरी तरह जुड़ नहीं पाता। वो दिन लद गए जब संपादकीय और लेख लिखने-पढ़ने का जुनून होता था। आज का पाठक ब्रांड अम्बेसडर द्वारा बुनी गई सपनों की दुनिया के भ्रम में जीता जरूर है, मगर जब वह नींद से जागता है तो जीवन में घोर अंधेरा पाता है। बाजार ने एक चीज जो पूरी तरह से अनुपस्थित करने की कोशिश की है, वो है मानवीय संवेदना और जीवन की छोटी-छोटी बातें। बाजार का लक्ष्य लाभ कमाना है और उसके लिए ऊंची कीमतों वाली बड़ी बातें जरूरी हैं। मगर बाजार समाजशास्त्र के इस सत्य को अनदेखा करता है कि छोटी-छोटी आम बातें कभी भी किसी भी काल में किसी भी तरह से खत्म नहीं हो सकती। बड़ी-बड़ी सल्तनत, बड़ी-बड़ी जागीरें, आलीशान-विशालकाय राजमहल समय के रेत में बिखर कर, अपने नाम को इतिहास के पन्नों में ढूंढ़ रहे हैं। लेकिन ये छोटी-छोटी बातें दिल की भावनाओं के साथ आदिकाल से आज तक हर आदमी के हृदय में धड़कती हैं और भविष्य में भी स्पंदित होती रहेंगी। इसीलिए आज भी लोग छोटी-छोटी बातों को पढ़ते ही भावनाओं में बहने लगते हैं। दिल दिमाग की तरह चतुर-चालाक होकर सौदेबाजी नहीं करता, वो तो धोखा खाकर भी सिर्फ रोता है। तो क्या हुआ, मनुष्य तो कहलाता है।