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अच्छे खानदान का लगता है
पाकीजा फिल्म में नायिका मीना कुमारी, नायक राजकुमार के साथ, जब देर शाम अचानक उसके घर पहुंचती है तो परिवार की बड़ी औरतें घर आये अनजान मेहमान के बारे में पूछताछ करती हैं। नायक चूंकि कुछ विशेष नहीं जानता इसीलिए कुछ भी नहीं बता पाता। ऐसे में घर की बुजुर्ग महिला लड़की के चेहरे को ध्यान से देखकर कहती है कि ‘किसी अच्छे खानदान की लगती है।’ वैसे भी नायिका शांत, सौम्य, सुंदर होने के साथ-साथ साफ-सुथरे और अच्छे कीमती परिधान पहने हुए होती है। यही सब देखकर तो यह डायलॉग कहा गया, वर्ना तो नायिका फिल्म में नाचने-गाने वाली बताई गई है। इसी तरह के मिलते-जुलते डायलॉग पुरानी फिल्मों में अकसर सुनने को मिल जाते थे। छोटे बच्चे से लेकर बड़ी से बड़ी उम्र के स्त्री और पुरुष को देखकर, अगर वो फिल्म में हीरो-हीरोइन या कोई सकारात्मक चरित्र का रोल अदा कर रहे हैं तो फिर चाहे वो गरीब हों या फिर कोई छोटी-मोटी नौकरी में हों, अन्य पात्रों के द्वारा उनके लिए कुछ इसी तरह से कहलवाया जाता था। भावार्थ यही होता था कि मूलतः अच्छे घर का लगता/लगती है। और फिर ये फिल्म के अंत में सच भी निकलता था। ऐसे संवाद आजकल सुनने को कम मिलते हैं। क्या यह एक सामाजिक सोच व व्यवस्था के परिवर्तन को प्रदर्शित करता है? शायद बहुत हद तक।
इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए देखें तो पूर्व में नायक-नायिकाएं अमूमन गोरे और खूबसूरत हुआ करते थे। वे सरल व सुंदर नाक-नक्श वाले दिखाये जाते थे। शराफत चेहरे पर साफ झलकती और साथ ही भोलापन भी होता। जबकि खलनायक और खलनायिका गुस्सैल, विचित्र व विकराल रूप-स्वरूप में पेश किये जाते थे। अमूमन झूठे और कुटिल होते, बदतमीज होते, बदमाशी उनके चेहरे से टपकती थी। शशिकला की आंखें या प्रेम चोपड़ा की कुटिल मुस्कान को एक उदाहरण के रूप में याद किया जा सकता है। ये चाहकर भी कभी हीरो-हीरोइन नहीं बन पाए। कभी कोई सकारात्मक रोल नहीं किया। सदैव नकारात्मक चरित्र वाली खलनायकी की। आमतौर पर निर्माता-निर्देशक ने भी इनके लिए ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। इन मशहूर (बदनाम) व्यक्तियों ने जोर नहीं लगाया होगा, ऐसा नहीं है, अगर कभी अच्छे बनने की कोशिश की भी तो असफल रहे। दर्शक द्वारा भी स्वीकार नहीं किया गया। कारण कई हैं, एक तो नकारात्मक छवि अर्थात बद अच्छा बदनाम बुरा, दूसरा उनके चेहरे पर दिखाई देने वाली भावना। इनके परदे पर आते ही लोग किसी अनिष्ट की आशंका करने लगते। और इनसे भरपूर नफरत करते। ये कुछ करें न करें, इनके बोलने और चेहरे की भाव-भंगिमा से ही सब कुछ गलत दिखाई देता। ये बदमाश किरदार का रोल परदे पर जीवंत कर देते थे। यह सिलसिला कई सालों तक चला था।
क्या फिर इसका मतलब यह निकाला जाये कि चेहरे के भाव से ही किसी भी किरदार के चरित्र व चाल-चलन को जोड़कर देखा जाता था? बिल्कुल। अर्थात अच्छे संस्कार, गुण व विचार वाले सदैव सकारात्मक ढंग से सोचेंगे और यह उनके चेहरे से भी झलकेगा, ऐसा कुछ सोचा जाता था। प्रेम चोपड़ा और शशिकला के युग से तो खलनायकों ने अच्छे वस्त्र पहनने शुरू कर दिए थे और देखने में तो ये भी साफ-सुथरे व तीखे नाक-नक्श वाले ही होते। वर्ना इनके पूर्व की पीढ़ी में तो खलनायक रहन-सहन व वेशभूषा से ही खतरनाक लगता। और आदिकाल में तो राक्षस काले, बदसूरत और मोटे-बेढंगे दिखाए जाते। पुरातन काल में जब चित्र व फोटो का प्रचलन नहीं था, दीवारों पर बनाए गए भित्ति चित्रों में आंख, नाक व होंठ के अतिरिक्त आभूषण और वस्त्र, केश सज्जा एवं कार्य के प्रदर्शन से नायक-सहनायक-खलनायक सुनिश्चित किए जाते थे। और फिर बहुत हद तक सही-सही अंदाज लग जाता था। दूसरी तरफ, उस दौर में लिखी जाने वाली तत्कालीन साहित्यिक रचनाओं में शब्दों के माध्यम से चरित्र व व्यक्तित्व का चित्रण होता। कई जगह, कई बार तो यह विस्तार से होता। जैसे ही चित्रकला का मनुष्य ने उपयोग करना प्रारंभ किया तो सर्वप्रथम महाराजाओं, ऐतिहासिक महापुरुषों तथा धार्मिक गुरुओं के चित्र बनाए गए। यहां भी कुछ ऐसी ही सोच थी। देवताओं, ऋषियों, राजाओं और सतपुरुषों को शांत, सौम्य व सुंदर दिखाया जाता। गौर वर्ण का आधिपत्य था फिर भी त्वचा का रंग इतना महत्वपूर्ण नहीं था। तभी शायद हिन्दुओं के कई धर्म नायक व महान पुरुष श्याम वर्ण के हुए। इनके सकारात्मक गुणों का प्रदर्शन चेहरे और वेशभूषा से होता। यह प्रदर्शन इतना संवेदनशील और अधिक महत्वपूर्ण था कि इनकी असीम शक्ति को दिखाने के लिए भी शरीर का आकार कभी बड़ा नहीं दिखाया जाता। जबकि राक्षस व दुष्ट पुरुष विशालकाया वाले दिखाए जाते और उनके चेहरे वीभत्स और विकराल होते। यह दीगर बात है कि इन राक्षसों के अति शक्तिशाली होने के बावजूद उन्हें किसी न किसी तरह देवताओं से हारते हुए दिखाया जाता। अर्थात जीत सत्य, धर्म और सद्गुणों की ही दिखाई जाती।
उपरोक्त वर्गीकरण की स्पष्ट सीमा रेखा कहां से, कब से टूटनी प्रारंभ हुई, बताना संभव नहीं। इसका अतिक्रमण कब हुआ ठीक-ठीक अंदाज नहीं लग सकता। लेकिन कुछ उदाहरण के द्वारा इसे समझा जरूर जा सकता है। हिन्दी फिल्म के मशहूर खलनायक प्राण ने अपने अभिनय जीवन के अंतिम दौर में चरित्र नायक के रोल किए और वे सफल भी हुए। धीरे-धीरे कालांतर में कई सहअभिनेताओं ने दोनों तरह के रोल करने शुरू कर दिए। फिर चाहे उनमें अनुपम खेर हो या कुलभूषण खरबंदा। हां, मगर ये कलाकार भी रोल के हिसाब से चेहरे का मेकअप करवाते। इनके वस्त्र व गेटअप भी बहुत हद तक पात्र के अनुसार होते। बाद में तो नायकों ने भी नकारात्मक रोल अदा करना शुरू कर दिया। ‘डर’ और ‘बाजीगर’ में शाहरुख खान ने ऐसा ही कुछ किया था। लेकिन उसमें एक मूलभूत परिवर्तन था। उन्होंने न केवल अपनी वेशभूषा को एक हीरो की तरह ही रखा बल्कि चेहरे के भाव भी गलत दिखाई नहीं दिए। अर्थात वो खलनायक दिखता तो नहीं था लेकिन अंदर से बदमाश था। कहानी की मांग के अनुसार बाद में ही दर्शक उसका असली रूप जान पाता है। अर्थात भ्रम की स्थिति। धोखा। फिर तो सुंदर नायिकाओं ने भी नकारात्मक रोल धड़ल्ले से करने शुरू कर दिए। अभिनेत्री काजल का चरित्र ‘गुप्त’ फिल्म में इसका उदाहरण हो सकता है। अंत में तो सदी के महानायक भी इस बीमारी से बच नहीं पाये और अमिताभ बच्चन जैसा महान कलाकार ने भी नकारात्मक रोल किए। ‘आंखें’ और ‘अक्श’ फिल्में याद की जानी चाहिए। तो क्या यह मान लिया जाए कि अच्छे व बुरे इंसान का समाज में पहचान का भेद खत्म हुआ? एक हद तक, चूंकि एक ही आदमी बिना भेष बदले दोनों किरदार निभाने लगा। आदमी की खाल में भेड़िया।
यह सच है। वर्तमान युग भिन्न है। आज के समय में ऐसे कई लुटेरे स्त्री-पुरुष मिल जायेंगे जो सूटबूट और अच्छे वस्त्र पहनकर रहते हैं। वे पूर्ण आत्मविश्वास के साथ होटलों, कार्यालयों व सार्वजनिक स्थानों में आते-जाते हैं। उन पर किसी को शक भी नहीं होता। उलटे वे देखने में अत्यधिक आकर्षक और रईस लगते हैं। पढ़े-लिखे व संस्कारी दिखाई देते हैं। अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं। समाज और फिल्म एक-दूसरे के साथ चलते हैं। आईना है। एक में दूसरे का चेहरा देखा जा सकता है। तभी तो, जीवन और फिल्म का परदा, दोनों जगहों पर आज के स्मगलर और डकैत सफेदपोश बन चुके हैं। आतंकवादी तो ब्रांडेड कपड़े पहनते हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। नकारात्मक प्रवृत्ति के ये लोग साफ-सुथरे और सूटेड-बूटेड होते हैं। उलटे फिल्म के नायकों को कई बार बढ़ी हुई दाढ़ी और सामान्य रूप में पेश किया जाता है और समाज में अच्छे लोग फटेहाल अवस्था में रह रहे हैं। आज का खलनायक नायक से अधिक स्मार्ट है। नई ‘डॉन’ (फिल्म) का नायक इस बात का प्रमाण है। वो तेज-तर्रार है, स्मार्ट है, सफल है, शक्तिशाली है, बेहद आकर्षक और रोचक है जबकि असल में खलनायक है।
पूर्व में बुरे की बुराई को प्रतीक रूप से दिखाया जाता था। दोनों वर्गों में अंतर हुआ करता था। मगर आज ये वर्गभेद समाप्त हुआ प्रतीत होता है। एक-दूसरे के क्षेत्र में अतिक्रमण किया जा चुका है। पौराणिक कथाओं में भी राक्षसों और देवताओं के चित्र, चरित्र, सोच, वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान, संस्कारों में भी सीधे-सीधे अंतर दिखाया जाता। ऋषि तो चेहरे और आंखों से सब कुछ पढ़ लेते। आम आदमी भी सामने वाले को देखकर बहुत हद तक समझ जाता। अर्थात आसानी से पहचाना जा सकता था। मगर आजकल राक्षसों ने देवताओं की वेशभूषा धारण कर ली है। तो क्या वो पहले से अधिक चालाक व धूर्त हो चुके हैं? शायद, चूंकि ताकतवर तो पहले भी थे। ऐसी परिस्थिति में कलियुग के सतपुरुषों को अधिक चौकन्ना व सतर्क रहने की आवश्यकता है। आम आदमी को अपने बीच में रह रहे असमाजिक तत्वों को पहचानने के लिए और अधिक समझदारी व पैनी नजर की जरूरत है। क्योंकि आज का खलनायक गुंडा या मवाली के वेश में नहीं आता। वह तो नायकों की तरह फिल्म में प्रवेश करता है। सावधान! आज आप किसी को मात्र उसके चेहरे व रहन-सहन से नहीं पहचान सकते। बिना सब कुछ जाने, अपना मत नहीं दे सकते। ‘अच्छे खानदान का लगता है’, अब यहां सिर्फ चेहरा देखकर कहना उचित न होगा। धोखा हो सकता है। इतना ही नहीं, अब तो अच्छे खानदान के बच्चे भी राक्षसी काम करने लग पड़े हैं। यह शुभ संकेत नहीं हैं। कहा जाता था कि चेहरा दिल का आईना होता है, आपके कर्म आपके व्यक्तित्व में देखे जा सकते हैं। मगर अब यह कहावत पुरानी लगती है। जो अब सही व सटीक नहीं लगती। इसमें फेरबदल की आवश्यकता है।
फिल्म का कहानीकार और पटकथा लेखक भी वही लिखता है जो समाज में घटित हो रहा है। शायद यही कारण है जो अब वे इस तरह के संवाद नहीं लिखते। आज का हीरो पिछड़ जाता है और खलनायकों को नायक की तरह पेश किया जाता है। नकारात्मक रोल भी सफल होते दिखाए जाने लगे हैं। परिभाषाएं बदल गई हैं। यह आधुनिक व विकसित युग का असली चेहरा है।