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राष्ट्रवाद बनाम व्यक्तिवाद

राष्ट्र और राष्ट्रीय संदर्भ आदिकाल से संवेदनशील रहे हैं। यह एक भावनात्मक मुद्दा है। व्यक्ति विशेष द्वारा अपनी परिधि में रहकर सिर्फ स्वयं के बारे में सोचना सरल शब्दों में स्वार्थ कहलाता है और एक विचारधारा के रूप में देखें तो यही आगे चलकर व्यक्तिवाद बन जाता है। व्यक्तिवाद के भीतर केंद्र में बैठे ‘मैं’ से बाहर निकलकर केवल परिवार नहीं, समाज और राष्ट्र के लिए भी सोचना और विशेष परिस्थितियों में जीवन तक न्योछावर कर देना राष्ट्रवाद की मूल परिभाषा है। यहां राष्ट्र के निर्माण में स्वयं की आहुति अपेक्षित है। धर्म इन दोनों के मध्य एक बेहतरीन पुल व संवाद का काम करता है। धर्मगुरु भी आमजन को यही शिक्षा देते हैं। चूंकि व्यक्तिवाद के हावी होते ही राष्ट्रवाद गौण हो जाता है। सैद्धांतिक ही नहीं व्यवहारिक रूप में भी इन दोनों में से किसी एक के कम होने पर ही दूसरे को विस्तार और विचार मिलता है। और सच भी है, व्यक्तिवाद के घेरे से बाहर निकलकर ही राष्ट्रवाद को देखा व पाया जा सकता है। फिर चाहे वो सीमा पर लड़ रहा जवान हो, जो देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर देता है, या फिर अंदर रहकर देश के उत्थान व प्रगति के लिए कार्य करने वाला आम समाजसेवी। स्वयं के त्याग से ही राष्ट्र का विकास होता है। व्यक्तिवाद को दफनाकर, व्यक्ति को नींव का पत्थर बनना पड़ता है तभी उस पर मजबूत राष्ट्र खड़ा हो पाता है। राष्ट्रवाद एक चिंतन है तो व्यक्तिवाद मनुष्य का स्वभाव। राष्ट्रवाद निःस्वार्थ है तो व्यक्तिवाद स्वार्थपूर्ण। राष्ट्रवाद सामूहिक है तो व्यक्तिवाद स्वकेंद्रित।

वैसे ध्यान से देखें तो अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रवाद में भी कहीं न कहीं व्यक्तिवाद का संरक्षण और स्वार्थ निहित होता है। यह दीगर बात है कि यह सीधे-सीधे दिखाई नहीं देता। राष्ट्रवाद असंख्य व्यक्तियों को समूह में रखकर जहां एक ओर उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है वहीं उनकी पहचान और अस्तित्व को भी सुनिश्चित करता है। अवाम राष्ट्र का दायित्व बन जाता है। राष्ट्र की अस्मिता उसके नागरिक की इज्जत से संदर्भित हो जाती है। यही कारण है जो व्यक्ति राष्ट्र से जुड़ा हुआ महसूस करता है। राष्ट्र में स्वयं का प्रतिबिंब देखता है। अर्थात व्यक्ति का व्यक्तिवाद ही उसे राष्ट्रवाद की ओर जाने के लिए प्रेरित करता है। मगर सवाल उठता है कि क्या व्यक्तिवाद की अपेक्षाएं राष्ट्रवाद में पूरी होती हैं? इस मुद्दे पर चर्चा की आवश्यकता है।

व्यक्तिवाद जहां प्राकृतिक है वहीं राष्ट्रवाद मानव निर्मित। रोटी-कपड़ा-मकान से प्रारंभ होकर दूसरों से स्वयं की सुरक्षा, शारीरिक-मानसिक जरूरतें पूरी करना, भावनाओं को संतुष्ट करना, महत्वाकांक्षा को पालना, सपने देखना, व्यक्तिवाद के मूल में हैं और इन्हें जन्म से ही आदमी अपने साथ पाता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति की प्रक्रिया के दौरान खुले आसमान के नीचे हजारों-लाखों दूसरे मनुष्यों के साथ व सामने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए, सर्वप्रथम व्यक्ति अपने समूह का निर्माण करता है फिर उस की व्यवस्था बनाए रखने के लिए कायदे-कानून बनाता है, और यहीं से राष्ट्र के मौलिक स्वरूप का जन्म होता है। एक समान भौगोलिक परिस्थिति या फिर प्राकृतिक सीमाओं के बीच स्थित भूखंड में रहने वाले लोग स्वाभाविक रूप से नये राष्ट्र को बनाने में सहायक होते हैं। उनका रहन-सहन, खान-पान, बोली भी एक जैसी हो तो कोई आश्चर्य नहीं। इतिहास का अध्ययन करें तो देखा जा सकता है कि राष्ट्र की परिकल्पना में संस्कृति और सभ्यता मुख्य आधार रहे हैं। ये साथ-साथ चलते हैं। हां, विज्ञान के विकास और आदमी के विकासक्रम का यह परिणाम हुआ कि विविध संस्कृति और सभ्यता वाले राष्ट्र की परिकल्पना ही नहीं उसकी स्थापना भी हुई। यहां बात अच्छे-बुरे की नहीं है। मगर जहां समान सभ्यता व संस्कृति होने के बावजूद एक ही समाज में कई राष्ट्र का निर्माण हुआ वहीं एक ही राष्ट्र में कई सभ्यताएं व संस्कृति भी देखने को मिलने लगी। यह नई व्यवस्था है। सच तो यह है कि एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र में व्यापार, घुसपैठ, आक्रमण, युद्धनीति और गुलाम बनाए जाने के कारण सभ्यताओं व संस्कृति का मिश्रण होता चला गया। इन सबके मूल में साम्राज्यवाद अर्थात राष्ट्र का विस्तार कारण रहा है। एक का अतिक्रमण दूसरे के द्वारा किया गया। प्रारंभिक अवस्था में, एक ही भाषा, धर्म और संस्कृति वाले स्थानीय लोग विदेशी सभ्यता के प्रभाव में आकर, उनका भिन्न-भिन्न रूप स्वीकार करने लगे। और फिर एक ही राष्ट्र में विविधता पनपने लगी। समय के कालचक्र में, इन विविधता के बोझ तले कुछ राष्ट्र नयी सभ्यताओं के कारण टूट गए तो कुछ मजबूती से जुड़े भी रहे। यह इतिहास के पन्नों पर चलने वाली निरंतर प्रक्रिया है। राष्ट्र का टूटना, बिखरना और फिर जुड़ जाना इतिहास की कहानी का अंग है। इसका कोई अंत नहीं।

वर्तमान काल में बाजार राष्ट्र के लिए सीधे-सीधे चुनौती है। बाजारवाद ने राष्ट्रवाद की जड़ों को हिलाकर रख दिया है। राष्ट्रवाद में समानता उद्देश्य रहा है, मगर यह कभी किसी राष्ट्र में नहीं देखा गया। बाजारवाद ने तो असमानता को और बढ़ाया है। यहां लाभ सर्वोपरि है। चूंकि व्यापार व्यक्तिवाद का पुजारी है। बाजार भी स्वकेंद्रित है। व्यापारी द्वारा राष्ट्रवाद जरूरत के समय ही उपयोग में लाया जाता है। वर्ना तो ‘जैसा देश वैसा भेष’ के सिद्धांत पर ये वर्ग विश्वास करता है। आखिरकार बहुरूपिया भी तो व्यक्तिवाद का बाजारू रूप है।

प्राकृतिक रूप से विश्व को समग्र दृष्टि से देखें तो राष्ट्र का कोई अस्तित्व नहीं। यह हमारी व्यवस्था है और प्रकृति पर अपनी जोर-जबरदस्ती थोपने का एक बेहतरीन उदाहरण। अपने ही द्वारा अपनों पर शासन करने का एक कुटिल उपाय। वर्ना नैसर्गिक दृष्टि में इसका कोई औचित्य नहीं, उपयोग नहीं, आवश्यकता नहीं। अन्यथा ईश्वर ने इसे जरूर बनाया होता। राष्ट्रवाद के भावनात्मक पक्ष से ऊपर उठकर देखें तो इसने मनुष्य जाति को देने की बजाय उससे लिया अधिक है। क्या दिया है इसने? सबको भोजन-छत? सुरक्षा? पहचान? विकास? जवाब मुश्किल है। बल्कि समय-समय पर बदले में एक-दूसरे से पशुता करने का एक प्रमुख कारण जरूर बना। संक्षिप्त में कहें तो राष्ट्रवाद जहां हमारे विकासक्रम की कहानी है वहीं यह हमारे विनाश का भी एक प्रमुख कारण रहा है। राष्ट्रवाद की अति मनुष्य में पशुता ला देती है।

व्यक्तिवाद और राष्ट्रवाद की विचारधारा समानांतर चलती हैं। दोनों ही अपने हित और स्वार्थ को पालते-पोसते हैं। जहां व्यक्तिवाद एक संक्रमण रोग के समान है, एक को देखकर दूसरे में भी यह भावना बढ़ती चली जाती है, राष्ट्रवाद प्रतिक्रियात्मक है, एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र को चुनौती मिलते ही दूसरे के राष्ट्रवाद की भावना में तेजी देखी जा सकती है। एक बिन्दु तक कोई विशेष हानि नहीं। मामला तब बिगड़ता है जब यही स्वार्थ दूसरे की परिधि में प्रवेश कर जाता है। व्यक्ति और राष्ट्र दोनों ही दूसरों से पहले स्वयं का ध्यान रखते हैं। अन्य की कीमत पर। और ऐसा यहां अपेक्षित भी है। यह ठीक है कि प्रकृति के नियमानुसार हर जीव-जंतु को आत्मरक्षा का अधिकार है मगर अस्तित्व की लड़ाई यहां प्रलयंकारी नहीं होती। मगर यही काम, जब एक समूह द्वारा दूसरे समूह पर राष्ट्रवाद के नाम पर किया जाता है तो उसके परिणाम भयावह होते हैं। लाखों करोड़ों की हत्याएं, विस्थापन, शारीरिक-मानसिक अत्याचार और गुलामों का शोषण देखा जा सकता है। इतिहास के पन्ने इन जुल्मों से भरे हुए हैं।

राष्ट्रवाद व व्यक्तिवाद को हम जितना भी एक-दूसरे का विरोधी ठहराएं, असल में राष्ट्रवाद के मूल में राष्ट्राध्यक्ष का व्यक्तिवाद ही होता है। यहां विरोधाभास नहीं है। व्यवहारिक रूप में भी राष्ट्रवाद शासन की कुर्सी पर विराजमान व्यक्ति की चाहत बन जाता है। किसी महत्वाकांक्षी शासक के व्यक्तिवाद को प्रमाणित करने के लिए, उसके अहम्‌, महत्वाकांक्षा और प्यास को बुझाने के लिए ही राष्ट्रवाद का सहारा लिया जाता है। अन्यथा क्या वजह है जो युद्ध में दो राष्ट्र उलझ जाते हैं? इतिहास की तमाम लड़ाइयों को विश्लेषित करें तो यह मूलतः किसी दो व्यक्ति या परिवार की टकराहट के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़। विस्तार की मृगतृष्णा, दूसरे को छोटा और स्वयं को बड़ा प्रमाण करने की क्षुद्र मानवीय प्रवृत्ति। महान होने की झूठी अभिलाषा। इन सबका परिणाम है, साम्राज्यवाद। और नाम दिया जाता है राष्ट्रवाद का। संक्षिप्त में कहें तो व्यक्तिवाद का विस्तार है राष्ट्रवाद। राजतंत्र में राजा का व्यक्तिवाद वहीं प्रजातंत्र में, कुछ गिने-चुने व्यक्तियों का समूह या फिर व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे शासन करने वाले का व्यक्तिवाद। अर्थात हर एक के पीछे होता व्यक्ति विशेष ही है।

भावनाओं का प्रवाह जब बहता है तो फिर तर्क नहीं चलते। राष्ट्रवाद भी भावनाओं से संचालित होता है। यहां एक तरह का अंधभक्त वाला काम है। बुद्धि लगाते ही इसमें विकार उत्पन्न हो जाते हैं। दिल से जोड़कर यहां कुछ ऐसा प्रभाव तैयार किया जाता है जो अपनी दिशा स्वयं तय करता है। तभी तो दुश्मन राष्ट्र के खिलाफ, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बनाकर, उस पर ऐसी भावना प्रवाहित की जाती है कि युद्ध के दौरान सारा राष्ट्र एकजुट हो जाता है। एक स्वतंत्र राष्ट्र के अंतर्गत दूसरे राष्ट्र के निर्माण के आंदोलन में भी मूल रूप से यही खेल खेला जाता है। गुलाम राष्ट्र द्वारा विरोध करना तो फिर बहुत आसान हो जाता है। कभी-कभी दो क्षेत्रों या वर्गों में असमान विकास असंतोष व विद्रोह का कारण हो सकता है लेकिन क्रांति की परिणति सदैव अच्छी ही हो जरूरी नहीं। दो राष्ट्र बन जाने पर दो शासक राजा तो बन जाते हैं मगर प्रजा को सुख मिलेगा जरूरी नहीं। शासक के राजनैतिक हित की बेदी पर शासित के मूल जरूरतों की आहुति चढ़ती रही है।

कल्पना कीजिए ब्रह्मांड की कोई अन्य सभ्यता, मनुष्य जाति पर आक्रमण कर दे तो क्या होगा? यकीन मानिए, मिनटों में ही सभी राष्ट्र, अपने तमाम मत विभाजन को भूलकर एकजुट हो जाएंगे और फिर एक नये राष्ट्र का निर्माण होगा। जिसे कुछ भी नाम दिया जा सकता है। फिर होगी इस नये राष्ट्र के विकास की कहानी, नयी पहचान, और एक नयी व्यवस्था का विकासक्रम। इसमें छोटे-छोटे समूह तो होंगे, तथाकथित विविधता भी होगी, हमारे बीच में से कुछ लोग धोखा भी दे सकते हैं। मगर एक कारण होगा जो संपूर्ण पृथ्वी को एक झंडे के नीचे खड़ा कर देगा। काश! ऐसा ही हो तो सीमाओं में बंटी यह दुनिया कम से कम एकसाथ तो होगी। कोसी का पानी चीन, नेपाल और भारत में अलग-अलग तबाही नहीं मचायेगा। इसका सब मिल-जुलकर उपयोग करेंगे। एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए पासपोर्ट-वीजा नहीं लगेगा। पता नहीं यह कल्पना कितनी सच हो, चूंकि आदमी अपनी फितरत से बाज नहीं आ सकता। वो शांतिकाल में फिर आपस में लड़ने लगेगा, कभी भाषा या धर्म के नाम पर तो कभी रंग व क्षेत्र के नाम पर। या फिर किसी चतुर-चालाक आदमी की महत्वाकांक्षा के लिए। वो बिना वजह भी लड़ सकता है। चाहे फिर उसे दो वक्त की रोटी भी नसीब न हो। आदमी को कभी चैन कहां?