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भोपाल गैस की धुंधली तसवीरें
क्या आपने कभी शहर की गलियों के साथ-साथ आबाद घरों को भी रातोंरात वीरान होते देखा है? कभी शहर को छोड़कर भाग रहे लोगों को देखा है? एक भीड़, जिसमें बूढ़े-बच्चे-महिलाएं-बीमार-युवा सभी जान बचाकर एक अनजान मंजिल की ओर दौड़ रहे हों, की कल्पना करना भी मुश्किल है। भीड़ के पैरों से कुचलकर घायल और मरते लोगों को क्या कभी देखा है? आमतौर पर सड़क किनारे एक लाश दिख जाने पर भीड़ और सनसनी फैल जाती है, क्या किसी ने दसियों लाशों को सड़क किनारे पड़े हुए देखा है? इंसानों के साथ जानवरों को मृत अवस्था में सड़ते हुए देखा है? किसी हादसे में अकस्मात एक मौत से जहां सारा शहर सहम जाता हो, वहां सैकड़ों लाशों के अंतिम संस्कार का दृश्य भयावह और अकल्पनीय होगा। किसी भी लेखक के लिए इसका काल्पनिक वर्णन करना क्या संभव है? दुर्भाग्यवश मुझ अभागे ने इन दृश्यों को देखा है।
पच्चीस वर्ष पुरानी बात है। इसी बीच जीवन में बहुत कुछ गुजर गया। क्रमवार सबको याद रखना मुश्किल है। इतने समय में पुरानी यादें अमूमन धुंधली हो जाती हैं और जो घटनाक्रम अति तीव्र होता है सिर्फ वही याद रह जाता है। समाज भी इन दिनों घटना प्रधान और राजनैतिक व्यवस्था उथल-पुथल भरी थी। आम जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन के साथ-साथ जीवनशैली तक बदल रही थी। इसके बावजूद वो रात आज भी याद आते ही झकझोर कर रख देती है। अति भयावह और अकल्पनीय दृश्य मस्तिष्कपटल पर गहरे तक अंकित हैं।
वो 2 व 3 दिसंबर, 1984 के बीच की काली सर्द रात थी। मैं, भोपाल के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थान का छात्र, हॉस्टल के अपने कमरे में सो रहा था कि दोस्तों ने रात करीब एक बजे जबरदस्ती उठाया था। आधी नींद में भी हॉस्टल के छत पर जाकर जो दृश्य देखा वो अविश्वसनीय था। यह किसी डरावनी फिल्म की तरह लग रहा था। चारों ओर दूर-दूर तक बड़ी-बड़ी झाड़ियां व घास के साथ फैले वीरान जंगल के बावजूद वहां रात के अंधेरे में हजारों लोग दिखाई दे रहे थे। भगदड़ मची हुई थी। हमारा कॉलेज का कैम्पस, शहर से बाहर, दक्षिण दिशा में, होशंगावाद की ओर एक पहाड़ी पर बसा है। वहां दिन में भी आम नागरिक अमूमन नहीं आते, तो फिर देर रात अंधेरे में लोगों को बदहवास हालत में शहर से विपरीत दिशा की ओर भागते हुए देखकर हमारा हैरान होना स्वाभाविक था। भीड़ में सभी परेशान और चिंतित लग रहे थे। गाड़ी, बस, स्कूटर का शोर था। एक मां की गोद से नवजात शिशु सरक कर कब कहां गिर गया, उसे पता ही नहीं चला। पीछे से आ रही भीड़ के पैरों ने बच्चे क्या बड़ों-बड़ों को कुचलकर रख दिया था। ऐसे में उस अभागी मां का सड़क पर अपने बच्चे को ढूंढ़ना, एक हृदयविदारक दृश्य था। राजनीति व युद्ध के कारण लोगों को शहर छोड़कर भागते हुए इतिहास ने पहले भी कभी देखा है। मगर यह अपनी तरह का पहला मामला था। यहां विस्थापन की कोई पीड़ा नहीं सिर्फ मौत का भय लोगों के चेहरे पर और भागते कदमों में साफ दिखाई दे रहा था।
भाग रहे लोगों ने ही बताया था कि भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड फैक्टरी में से जहरीली गैस लीक हो जाने के कारण शहर में अफरातफरी है। क्यों कैसे हुआ? यह प्रश्न तो आज भी अनुत्तरित है। बहरहाल, अगले दिन पता चला था कि मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ है, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। वैसे तो हाइड्रोजन साइनाइट जैसी जहरीली गैस की अफवाह भी सुनी थी, मगर अंत तक इसकी सत्यता का पता न चल पाया था। इंसान को डराने के लिए ये नाम काफी थे। लेकिन इतना सब सुनने के बावजूद, मुझे याद नहीं पड़ता कि हम छात्रों में से किसी ने शहर छोड़कर भाग जाने की कोशिश की हो। युवा उम्र में जोश तो होता है, लेकिन सेवा और करुणा की भावना भी दिल से खूब निकलती है। यही कारण है जो कॉलेज में, अध्यापकों के घर व हमारे हॉस्टल, भाग रहे लोगों की शरणस्थली बन चुके थे। सुबह-सुबह हम छात्र शहर की ओर निकल पड़े थे। रास्ते में चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो कर्फ्यू लगा हो। मगर यह कैसा कर्फ्यू? यहां तो कोई पुलिसवाला भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था। रास्ते में एक-दो लाशें व मरे हुए जानवर दिखे। बड़ी हिम्मत कर के कॉलेज की बस से हम लोग शहर के उस भाग में पहुंचे, जहां यूनियन कार्बाइड कारखाना था। चारों ओर लाशें और अधमरे लोग दिखाई पड़ रहे थे। पास स्थित रेलवे स्टेशन का तो बहुत बुरा हाल था। यहां हड्डियों को सिहरा देने वाला वीभत्स दृश्य था। यह सब देख कॉलेज प्रशासन और छात्रों ने गैस प्रभावित क्षेत्र में सेवा करने का निश्चय किया।
क्या हमें मरने का भय नहीं था? पता नहीं। याद नहीं। हमें भी तो जहरीली गैस निगल सकती है? यह बात जेहन में ही नहीं आई। सेवा-भाव का प्रभाव था। हमारे एक प्रोफेसर ने तो इतनी सेवा की कि उनके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा और वे आज तक कफ-खांसी से पीड़ित हैं। शायद हम तब युवा थे इसीलिए झेल गए, और किसी को कुछ हुआ भी हो तो पता नहीं। यह एक शोध का विषय हो सकता है। युवा उम्र का जोश सोचता नहीं। बीच में यह बात जरूर सुनी थी कि अधिकांश गैस वातावरण में फैलकर कमजोर पड़ गई है, तो कोई कहता कि भोपाल के बड़े तालाब के पानी में घुलकर शांत हो गई। शायद तभी मछली न खाने की अफवाह भोपाल में बहुत दिनों तक चर्चा में रही। कितना सच था किसी को पता नहीं। लेकिन लोग फल और सब्जियों से कई दिन परहेज करते रहे।
शहर के मेडिकल कालेज का दृश्य याद कर आज भी फुरफुरी आ जाती है। लाशों के ढेर लगे थे। खांसते, आंखों में जलन और पानी, सीने में जलन व बेचैनी और उलटी की शिकायत के साथ रोगियों की अनियंत्रित भीड़ थी। यहां वहां अधमरी हालात में लोग बिलख-बिलख कर रो रहे थे और नाते-रिश्तेदारों को लाशों में से ढूंढ़ रहे थे। कोई व्यवस्था नहीं थी। तभी पता चला कि इन लाशों का अंतिम संस्कार किया जाना है। मौत की संख्या निरंतर बढ़ रही थी। कुछ देर बाद लाशें सड़ने लगेगी, सोचकर भय फैल गया था। अब यहां धर्म का मामला आ जाता है। लाशों की पहचान करना एक मुश्किल काम था, लेकिन फिर भी हरसंभव कोशिश करते हुए, कुछ को अग्नि के हवाले किया गया और कुछ को दफनाया गया। यह कार्य भावनाओं को तोड़ देने वाला था। मृत शरीर की संख्या इतनी अधिक थी कि पेट्रोल और डीजल छिड़कने के बावजूद भी कई स्थान पर अधजली लाशों का किस्सा सुनाई देता। कहीं-कहीं लाशों को दफनाने में जमीन कम पड़ रही थी तो मृतकों के शरीर के अंग सतह पर दिखाई पड़ जाते। ऐसा दृश्य वैराग्य पैदा करता। शायद आम समय में यह काम करना उतना आसान नहीं लेकिन तब सेवा का जुनून था। इसी तरह की एक फोटो, एक राष्ट्रीय पत्रिका के मुख पृष्ठ पर छपी थी। जिसे देखकर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। प्रतिक्रिया तो पूरे देश में हो रही थी। और हमारे कॉलेज के छात्रों की सुरक्षा को लेकर पूरी दुनिया में फैले अभिभावकगण और नाते-रिश्तेदारों के इतने टेलीग्राम और फोन आ रहे थे कि जिनका वर्णन यहां करना संभव नहीं। हां, यहां यह बताना ही काफी होगा कि उस जमाने में भी दूरदर्शन और रेडियो पर यह समाचार प्रसारित किया गया था कि कालेज के सभी छात्र पूरी तरह सुरक्षित हैं।
शहर का कई क्षेत्र पूरी तरह खाली हो चुका था। लोग घर छोड़कर भाग चुके थे। धीरे-धीरे कब वापस आये, यह तो पता नहीं, लेकिन अफवाहें कैसे उड़ती हैं, और आमजन को किस तरह प्रभावित करती हैं, तभी देखा। हर शाम यह बात जोर-शोर से उठती कि आज रात फिर गैस लीक होने वाली है और शहर के लोगों में भगदड़ मच जाती। कुछ दिनों बाद, शायद 16 दिसंबर की रात, यूनियन कार्बाइड फैक्टरी में गैस के टैंक को खाली करने की सूचना प्राप्त होने पर, शहर फिर खाली हो गया था।
अस्पताल में सेवा के दौरान एक दिन अचानक पुलिस की बहुत बड़ी फौज दिखाई दी थी। ये कहां से आ गए, पता नहीं, लेकिन इन वर्दीधारियों ने काम करने वाले छात्रों व अन्य कार्यकर्ताओं को धक्का देकर किनारे करना शुरू किया तो हमें बुरा लगा था। गुस्सा भी आया था। पता चला कि कोई अति महत्वपूर्ण नेता बाहर से पधारे हैं। शायद वो कुछ मिनट ही रुके होंगे मगर इस बीच लाशों को भी धकियाया गया था। यह अमानवीयता और क्रूरता की हद थी। ऊपर से देर शाम दूरदर्शन पर इस यात्रा को इस तरह से प्रदर्शित किया गया कि मानो नेता जी ने बारीकी से राहत कार्य का निरीक्षण किया हो और मरीजों से घंटों पूछताछ कर उनके स्वास्थ्य की जानकारी ली थी। यह सब देख, व्यवस्था के विरोध में, हमारे मन में आक्रोश की पहली चिंगारी उभरी थी।
शायद तीसरे दिन मुझे फैक्टरी के आसपास स्थित मोहल्ले और गलियों में गैस पीड़ित लोगों की सेवा और सहायता करने की ड्यूटी मिली भी। आंखों में डालने की दवा, ग्लुकोज व पीने का पानी और खिचड़ी-ब्रेड बांटनी थी। यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र था। गरीबी के साथ-साथ मौत भी चारों ओर फैली हुई थी। वहां हमने खाकी हॉफ पेंट और सफेद शर्ट पहने हुए कुछ लोगों को चुपचाप सेवा करते हुए देखा। यह बाद में ही जान पाया था कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता थे। पोस्टर और बैनर तो शहर में बाद में खूब लगने लगे थे, लेकिन प्रारंभिक दिनों में घर-घर जाकर काम करने वालों में हमारे कालेज के छात्रों ने जो बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया वो पूरी तरह से अननोटिस चला गया। यह दीगर बात है कि छात्र किसी प्रतिफल के लिए सेवा नहीं कर रहे थे। उन गरीब बस्तियों में काम करते हुए कई अनुभव हुए। इनमें एक विशेष था। एक जवान आदमी अपने घर के बाहर अधमरी हालत में भी बीड़ी पी रहा था। जबकि उसकी आंखों से पानी निकल रहा था और वह बुरी तरह खांस रहा था। ऐसी हालत में भी उसने सबसे पहले सरकारी सहायता के पैसों के बारे में पूछताछ की थी। सरकार कितना मुआवजा देगी? उसका पहला प्रश्न था। सुनकर मैं हैरान हुआ था। उसने घर के अंदर परिवार के दूसरे सदस्यों को सहायता पहुंचाने की हमारी कोशिश को भी रोकने की कोशिश की थी। लेकिन जब हम जबरदस्ती अंदर गए तो पाया कि अंदर महिलाएं और बच्चे अधमरी हालात में सिसक-सिसक कर रो रहे थे। वे शायद मरने का इंतजार कर रहे थे। लेकिन हमारा वहां पहुंचना शायद किसी देवदूत के समान था। हमने वहां चार जाने बचाई थीं। उस दिन जिस खुशी का अहसास हुआ था वो शायद फिर कभी नहीं हो पाया। पच्चीस वर्ष बाद याद करके, आंखें आज भी नम हो जाती हैं।