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क्या हम जानवरों से भी बदतर हैं?
क्या आपने किसी भी जानवर को बलात्कार करते देखा-सुना है? कुछ एक खोजी किस्म के आदमियों द्वारा कई तर्क व तथाकथित अध्ययन के माध्यम से एकतरफा सबूत देने के बावजूद सामान्य रूप में जवाब आएगा, ÷नहीं’। मगर दूसरी ओर मानव जाति में बलात्कार ही नहीं सामूहिक बलात्कार की घटना आम बात है। प्राकृतिक रूप में शारीरिक संबंध बनाए जाने की प्रक्रिया के लिए हिन्दी भाषा में सही शब्द का निर्माण हुआ, सहवास। अर्थात दोनों का सहयोग व सहमति जरूरी है। मानसिक रूप से भी और शारीरिक रूप से भी। किसी की इच्छा के विरुद्ध बल का प्रयोग करते हुए जबरन सम्भोग करना बलात्कार कहलाता है। इसे परिभाषित हम ने ही किया और हमारे ही द्वारा हमारे ही समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई परिवार के अंदर, सुरक्षित घरों की छतों के नीचे रहने वाली स्त्रियों के साथ सिर्फ उनके पतियों के द्वारा ही बलात्कार नहीं होता बल्कि अन्य रिश्ते भी कलंकित किए जाते हैं। इसी घर-परिवार की मजबूत दीवारों के भीतर अपने-पराये की दीवार, लड़का-लड़की में भेद, बूढ़ों और बीमारों को तिरस्कृत किया जाता है। इसी आंगन में पली-बड़ी औरत अपने पेट में पल रही कन्या की हत्या करवाती है। और यही नहीं, मां का दर्जा प्राप्त होने पर भी वह सौतेली बनते ही राक्षसी गुण प्राप्त कर लेती है। क्या ये विशेष गुण जानवरों में मिलेंगे? ये तो कुछ भी नहीं, क्या आपने किसी भी जीव-जंतु द्वारा अपनी ही प्रजाति पर शासन करते हुए सुना है? नहीं। हां, विशाल हाथी से लेकर छोटी-सी चींटी तक को उम्र व अनुभव के आधार पर अपने झुंड का नेतृत्व करते हुए जरूर देखा होगा, लेकिन शासक और शासित का सारा तमाशा मनुष्य प्रजाति में ही है। राजतंत्र से लेकर प्रजातंत्र तक न जाने कितनी शासन प्रणालियां आई और गई लेकिन एक सामान्य मनुष्य को क्या उसकी स्वतंत्रता और सुरक्षा के साथ दो वक्त चैन की रोटी मिल पाई? यह सवाल मानव जाति के लिए सदैव बना रहा। जबकि पशुओं में ऐसी विषमता दिखाई तो नहीं देती।
पूंजीवाद ही नहीं समाजवाद और साम्यवाद में भी कुछ मुट्ठीभर लोगों ने सारी शक्तियां अपने हाथ में केंद्रित कर लीं। क्या ऐसा जानवरों के बीच में होता है? प्रकृति के द्वारा दिए गए तमाम नैसर्गिक फल-फूल-खनिज-संपदा पर एकाधिकार बनाते हुए अपने ही लोगों में बेचने का धंधा किसी और जीव-जंतु में नहीं सुना होगा। जंगल की सारी व्यवस्था बिना किसी अर्थव्यवस्था के निरंतर जारी रहती है और सभी को अपने-अपने सामर्थ्य व जरूरत के हिसाब से खाने को मिलता है। जानवर अगर बीमार और बूढ़ा-कमजोर नहीं है तो कोई विशेष मुश्किल नहीं। हमने समाज का निर्माण मूल रूप से इसी परेशानी के हल में, समानता का उद्देश्य लिये हुए एक बेहतर व्यवस्था बनाने के लिए किया था। लेकिन हमारी व्यवस्था में तो बूढ़े और बीमार के अतिरिक्त भी लोग बेवजह भूखे रहने के लिए मजबूर हैं। कहा जा सकता है कि हमने कपड़ों और वस्त्रों का आविष्कार किया और हम जंगली से सामाजिक कहलाए, इसी बात का हमें बड़ा गर्व है। लज्जा और शर्म के अहसास को हमने पैदा किया और फिर तन को पत्तों, खालों व वस्त्रों से ढका। लेकिन फिर परदे के पीछे हमने खुद इसे तार-तार भी किया। हमने साथ ही बेशर्म होने की परिभाषा भी गढ़ी। जानवर कभी कपड़े नहीं पहनता मगर निर्लज्जता भी नहीं करता। हमने पहले वस्त्र धारण किया फिर खुद कपड़े उतारने को अपनी स्वतंत्रता प्रदर्शन का प्रतीक बना दिया। यही नहीं नारी के अर्धनग्न प्रदर्शन को सौंदर्य के साथ जोड़ा। जानवर तो पहले ही पूरी तरह नग्न घूमते हैं तो क्या उनमें हमसे अधिक सौंदर्यबोध नहीं हुआ? प्राकृतिक सेक्स को लेकर हम हमेशा ही भ्रमित रहे। इसे हमने एक तरफ छिपाया तो दूसरी तरफ दिनभर इसकी चर्चा की। कई तरीके के कृत्रिम और अप्राकृतिक विधाएं व तरीके खोज निकाले और फिर विकृत मानसिकता को सामाजिक और कानूनी मान्यता के लिए लड़ने लगे। जानवर इन सबसे दूर प्राकृतिक सेक्स का भरपूर आनंद उठाते हैं। माना कि पशु-पक्षी ने बच्चे पैदा करने के लिए कृत्रिम उपाय नहीं खोजे, परिवार नियोजन व गर्भपात नहीं जाना, लेकिन एक सीमा से अधिक बच्चे पैदा करके प्राकृतिक संतुलन को भी कभी नहीं बिगाड़ा। हमने तो इसे भी धर्म से जोड़ दिया।
धर्म, भाषा व संस्कृति, ये हमारे विकसित व सभ्य कहलाए जाने के प्रमाण हैं। इन अचूक शब्दों की लंबी-लंबी परिभाषाएं हैं। मगर धर्म के नाम का डंका बजाने वाला मानव ही अधर्म करता है। क्या जानवरों में अधर्म किया जाता है? सुना नहीं। यकीनन भाषा हमारी खोज है लेकिन इसके नाम पर हम जानवरों की तरह लड़ते हैं। लड़ता तो जानवर भी है मगर उनकी लड़ाई के कारण सीमित व परिभाषित हैं। धर्म, भाषा और संस्कृति के अतिरिक्त जर, जोरू और जमीन तो बहुत बड़े मुद्दे हैं, हम तो बिना कारण भी लड़ सकते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है। हां, हमने इतिहास की रचना की और हम ज्ञानी कहलाए, लेकिन हमने इससे कभी सीख नहीं ली, तभी तो हमारा अतीत युद्ध, षड्यंत्र, हत्याओं व शोषण से भरा पड़ा है। जानवरों ने कभी विश्वयुद्ध नहीं लड़ा। उन्होंने राष्ट्र का निर्माण नहीं किया, धर्म से वे अनजान हैं। लेकिन फिर साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता भी तो जानवरों में नहीं है। उनके यहां महाभारत नहीं हुआ तभी उन्हें गीता का ज्ञान नहीं।
पशु-पक्षी आग जला के खाना नहीं पकाते। यह सब इंसानों ने ही विकसित किया है। मगर फिर हम प्राकृतिक लवणों और स्वाद को भी तो नष्ट करते हैं। हम अपने ही खाने में जहर घोलते हैं। हानिकारक और रासायनिक भोजन का उत्पादन करते हैं और अपने ही प्रजाति के लोगों का जीवन नरक बनाने में सहयोग करते है। यह कैसा विकास है? हमारी शारीरिक भूख के अलावा और भी कई सारी भूखे हैं। महत्वाकांक्षा-लोकप्रियता की भूख किसी और जानवर में नहीं देखी जा सकती। और इसके लिए हम कुछ भी करने को, किसी भी हद तक नीचे गिरने को तैयार हैं। खुद के बनाए संस्कार तोड़ने को तैयार हैं। हमने अपनी खुशी व मस्ती इन सफलताओं से जोड़ दीं। क्या हम संतुष्ट हैं? सवाल का जवाब आसान नहीं। मगर जानवरों के जीवन में ऐसी कोई विषमता व विकृति नहीं। तभी तो उन्हें परेशान और बीमार नहीं देखा जाता। हमारी तरह वे समय की सुई पर चढ़कर बेवजह चिंतित भागते-दौड़ते नहीं मिलेंगे। तभी तो उन्हें डिप्रेशन का शिकार नहीं देखा जाता। वे हमारी तरह आत्महत्या भी नहीं करते। इस प्रमाण के आधार पर तो फिर वे हमसे अधिक मजबूत कहलाए।
संवेदनाओं के साथ-साथ समानता का व्यवहार की बात करने वाले इंसान में असमानता की कई परिभाषाएं गढ़ दीं। अपना और पराया हमारे शब्द हैं। अपनों के लिए तरफदारी और परायों का विरोध हमारा मूलमंत्र है। हम पक्की दुश्मनी पर विश्वास करते हैं। खानदानी व पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली दुश्मनी, इंसानों में ही देखी जा सकती है। सुंदर और कुरूप हमने ही परिभाषित किया। गोरे कालों को पसंद नहीं करते। पूरब और पश्चिम का चक्कर डालकर हमने अपने ही संसार को विभाजित कर दिया। ये विभाजन तो लिंग-भेद के सामने कुछ नहीं। पुरुषों द्वारा स्त्री पर अत्याचार की मिसाल किसी जानवर प्रजाति में नहीं मिल सकती। हमने विज्ञान और चिकित्सा का विकास तो किया लेकिन पेट में पल रही बेटी को मारने के लिए इसका जमकर इस्तेमाल हो रहा है। हमारे विकसित, अति विकसित और उत्तर आधुनिक काल के साथ-साथ कन्या भ्रूणहत्या के आंकड़े भी बढ़ते जा रहे हैं। हमारे विकास की परिभाषा कमाल की है। और हम इस विरोधाभास को समझने के लिए तैयार नही। कम से कम स्त्री वर्ग मादा जानवर से प्रेरणा ले सकती हैं।
हमने आत्मसुरक्षा के नाम पर तमाम सैन्य उपकरणों का विकास जरूर किया मगर उसका दुरुपयोग अपने ही लोगों पर शासन करने के लिए किया। हकीकत में हमने अपने ही विनाश का सामान तैयार किया। क्या इसे समझदारी कहा जा सकता है? आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद इंसानों के बीच में ही पाए जाते। हमें ही सड़कों पर ट्रैफिकवाला से लेकर हर दुकान के बाहर चौकीदार, थानों में सिपाही और संसद में मार्शल की आवश्यकता पड़ती है। हमारी खूबसूरत सेलिब्रिटी नायिकाएं एक तरफ तो अपने अर्धनग्न सौंदर्यता से युवाओं को ललचाती हैं और फिर उनसे बचने के लिए अपने चारों ओर बॉडीगार्ड खड़ा करवाती हैं। हर डिस्को व क्लब में आधुनिक नागरिक को सुरक्षित नाचने के लिए बाहर कुछ लंबे-तगड़े बाउंसरों की आवश्यकता होती है। जबकि जंगल में ऐसा कुछ नहीं। वहां कोई रेगुलेटर नहीं, आरबिटेटर नहीं, आयोग नहीं, न्यायपालिका और वकील नहीं, चूंकि वहां कोई चोर-अपराधी और मुवक्किल नहीं। दोषी और निर्दोषी नहीं। उनके लिए कोई जेल नहीं, फांसी की सजा नहीं। फिर भी जानवर अपराधी नहीं होते। एक अदृश्य संतुलित प्राकृतिक व्यवस्था स्वाभाविक रूप से कार्य करती रहती है। पंछी हाथी-भैंसों पर बैठकर इतराते हैं तो मक्खियां शेरों के गरदन पर खेलती हैं। हमने बड़े-बड़े धर्मस्थल और पूजास्थल तो बनाए मगर लाखों लोगों को बेघर कर दिया। जंगल में क्या ऐसा है? नहीं। वहां कारखाने नहीं, तो क्या हुआ उनके बीच मजदूर नहीं और स्वामी भी नहीं। स्वाभाविक रूप से फिर शोषण भी नहीं। क्या कभी जंगल में कोई हड़ताल होते हुई सुनी है? नहीं। हम तो अस्पतालों को भी बंद करवा देते हैं और न्याय दिलवाने वाले वकीलों को खुद अन्यायपूर्वक लड़ते हुए देखा है। हवलदार चोर से मिल जाता है तो नेता खलनायकों का काम करने लगते हैं। हमारे चरित्र में विश्वास नहीं। क्या जानवर धोखा देते हैं? नहीं। इतने सारे गुणों के साथ इंसान को एक खतरनाक प्राणी कहा जाये तो क्या बुरी बात है?
संवेदना और अभिव्यक्ति की शक्ति से सुसज्जित मानव ने जानवरों को जड़ घोषित करके स्वयं को श्रेष्ठ स्थापित जरूर कर लिया। लेकिन अगर वो हंसता है तो रोता और रूलाता भी खूब है। त्याग की बात करने वाला मनुष्य मोह में डूबा होता है। कष्ट देने व अपराध करने के बाद क्षमा की बात करता है, न्याय की दुहाई देता है। भोग-विलास में डूबकर धन संग्रह करके मोक्ष प्राप्त करने के लिए भटकता है। क्या किसी भी जीव जंतु में इस तरह की प्रवृत्ति देखी गई? नहीं। जानवर तो भूख न लगने पर कभी नहीं खाता और हम अगली कई पीढ़ियों के लिए साम्राज्य खड़ा करने के चक्कर में परेशान रहते हैं। वंश के लिए पागल और अंधे हो जाते हैं जबकि कल का हमे पता नहीं। तभी तो हम भविष्य के लिए चिंतित रहते हैं। डर व भय से मुक्त होने के लिए हमने समाज की संरचना की लेकिन उसी समाज ने अनगिनत परेशानियों व चिंताओं को जन्म दिया। यही नहीं सहअस्तित्व की बात करने वाले इंसान की किसी से नहीं बनती। जानवर कम से कम इन विरोधाभास से तो मुक्त हैं। इतने अवगुणों के साथ क्या हम स्वयं को श्रेष्ठ प्रमाणित करने की जिद कर सकते हैं?