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इलेक्ट्रॉनिक युग के साथी
बड़े बुजुर्गों ने कह रखा है कि इंसान को समय के साथ चलना चाहिए। सिर्फ सफलता या सहूलियत के लिए ही नहीं, सामान्य व सुखमय जीवन जीने के लिए भी यह कभी-कभी जरूरी हो जाता है। वैसे भी इसमें कोई बुराई नहीं और कोई नुकसान भी नहीं। उलटे कुछ न कुछ फायदा अवश्य होता है। इसके बावजूद भी नयी पीढ़ी के साथ चलने में अमूमन पुरानी पीढ़ी कोताही बरतती हैं। नये विचार, नई सोच, नई जीवन पद्धति को स्वीकार करने में पुरानी पीढ़ी को न जाने क्यूं तकलीफ होती है? यह तथ्य किसी एक पीढ़ी का नहीं, हमारी पीढ़ी पर भी उतना ही लागू है जितना हमसे पुरानी पीढ़ी पर और यही नहीं आज की युवा पीढ़ी के पुराने होते ही तब भी यही प्रमाणित होगा। अपने आप।
विज्ञान के विकास का चक्र दूसरे चक्रों के साथ घूमता रहता है और नये-नये प्रयोग करता रहता है। जो इसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते हैं वो आधुनिक व विकासशील कहलाते हैं और सामान्य जीवन में सफल भी होते हैं। और जो साथ चल नहीं पाते वो जड़ कहलाते हैं और समय के पूर्व ही खत्म भी हो जाते हैं। इसके बावजूद हर परिवर्तन का विरोध करना हमारा नैसर्गिक स्वभाव लगता है। अब इसे क्या कहेंगे कि शिक्षा के हिसाब से मूलतः एक इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर होते हुए भी मैं नये-नये इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के सामान्य उपयोग से भी हमेशा बचने की कोशिश में रहता हूं। जबकि वर्तमान काल इलेक्ट्रॉनिक युग है और बाजार ही नहीं हमारे जीवन में भी यह गहरे तक प्रवेश कर गया है। हमारे बाद एक नयी पीढ़ी आ चुकी है। वो इन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों व साधनों के बिना एक मिनट भी नहीं रह पाती। वो इलेक्ट्रॉन की तरह गतिशील है। हमेशा की तरह पुरानी पीढ़ी इस इलेक्ट्रॉनिक पीढ़ी के विरोध में नाक-मुंह निचोड़ती रहती है। सामान्य गपशप से लेकर गंभीर चिंतन में भी गाहे-बगाहे व्यंग्य दर्ज करती रहती है। दूसरों की तरह मैं भी नये के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में सहज महसूस नहीं करता। इसे हिचकिचाहट के रूप में भी लिया जा सकता है अपने समय की जीवन पद्धति आज भी आनंद देती है। और उसी से जुड़कर बैठे रहने में खुशी महसूस होती है। कभी-कभी कुछ चतुर-चालाक नये का मजा भी ले लेते हैं और फिर उसका मजाक भी उड़ा देते हैं। क्या ये सब उचित है? बिल्कुल नहीं। शायद परिवर्तन का विरोध करने में हमारे अहम् को संतुष्टि भी मिलती है। असल में स्थायीत्व हमारी कमजोरी है तो परिवर्तन जीवन का मूल।
कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, एसएमएस द्वारा चिट्ठी लिखने की प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो जाने पर कई दिनों तक मैंने भी आंसू बहाये थे। कई लेख भी लिख दिये। मगर पिछले दिनों दोस्तों के दबाव में ऑरकूट और फेस बुक, इंटरनेट की सोशल नेटवर्किंग साइट का सदस्य बन गया। प्रारंभिक हिचकिचाहट के बाद फिर द्घंटों कंप्यूटर से चिपककर उसके साथ खेलता चला गया। यह एक रोमांचकारी अनुभव था। ऐसे नये-नये परिणाम देखने को मिले, यकीन ही नहीं होता। मिनटों में ही अपने शहर व कॉलेज से संबंधित दसियों पुराने दोस्तों के नाम आंखों के सामने चित्र सहित कंप्यूटर स्क्रीन पर उभर आए। जिन्हें ढूंढ़ने और मिलने में हो सकता है पूरा जीवन समाप्त हो जाता। यहां मिनटों में संपर्क स्थापित हो रहा था तो कई एक जैसी विचारधारा के नये-नये दोस्तों के साथ बातचीत का मजा मिल रहा था। इस दौरान उत्सुकता व कौतूहलता ने जीवन में नया रंग भर दिया और आजकल मैं ऊर्जा से भरपूर एक युवक की तरह उत्साहित हूं। इसी तरह की और भी कई साइट्स हैं- माय स्पेस, ट्विटर, क्लासमेट, री-यूनियन, एशियन टाउन। और भी न जाने कितनी होंगी जिनके बारे में मैं नहीं जानता। कौन-सी बेहतर है, कहना ठीक न होगा। सभी का अपना-अपना क्षेत्र और विशेषताएं हैं। मगर इन सभी ने मूल रूप से भौतिक दूरियों को समाप्त कर दिया है, समय को मान लो समेट लिया है। यकीनन यह संचार क्रांति का एक छोटा-सा उदाहरण है। नई जीवन पद्धति का वाहन भी और कारण भी है। जिस पर सवार होकर इंसान विश्वभर में सांकेतिक रूप में विचरण करने के लिए स्वतंत्र है। यह आदमी की स्वतंत्रता को नये आयाम देता है। यहां हर एक खुलकर लिख सकता है। शुद्ध शब्दों में कहें तो अपनी भड़ास निकाल सकता है। यह दीगर बात है कि इससे सैकड़ों टन कचरा भी इंटरनेट पर उत्पन्न हो रहा है मगर इसी बहाने आदमी का शुद्धीकरण तो हो जाता है। वैसे भी क्या हमारी सामाजिक व्यवस्था में यह पूर्व में नहीं था? अफवाह, गप्प, चुगलखोरी, तेरी-मेरी, पीठ पीछे बुराई यह सब सदियों से चलन में हैं। तो फिर यहां भी सब कुछ होता है तो इसमें बुराई क्या? हां, फर्क इतना है कि पहले जो बातें मोहल्ले में बैठकर आमने-सामने होती थीं, उसने अपना कार्यक्षेत्र पूरे विश्व में फैला लिया है। और अब हमें सिर्फ कंप्यूटर के सामने बैठना होता है। यहां छोटे-बड़े कंप्यूटर का भेद नहीं। कोई भी, किसी से भी, कभी भी संपर्क कर सकता है। इससे लिखने की विधा को एक नयी दिशा मिली है। सामान्य पाठक की लेखन की ओर भागीदारी बढ़ी है। कई सामान्य लेखक अपने संपूर्ण जीवनकाल में चाहकर भी अपनी रचना प्रकाशित नहीं कर पाते थे। कइयों की रचनाएं अपने ही घर के अंदर दम तोड़ देती थीं। अब कम से कम आप उन्हें दुनिया के समक्ष रख तो सकते हैं। फिर किस्मत अच्छी हो तो कोई वजह नहीं कि आप रातोंरात लोकप्रिय न हो जाएं। संभावना तो कम से कम बनी रहती है। हर एक को यहां मौका मिलता है। वो भी तकरीबन मुफ्त।
यह इल्जाम लगाना गलत होगा कि चिट्ठी लिखने की प्रथा को समाप्त करके इलेक्ट्रॉनिक युग ने मानव सभ्यता के ऊपर एक बहुत बड़ा गुनाह किया है। क्या हम आदिकाल से चिट्ठियां लिख रहे हैं? नहीं। वर्तमान स्वरूप में तो यह मात्र कुछ दो-चार शताब्दियों का कार्य ही लगता है और उसमें भी समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। चिट्ठी का सत्यनाश तो टेलीफोन की पीढ़ी ने पहले ही कर दिया था। आज की पीढ़ी ने तो इंटरनेट के माध्यम से उलटा पत्र लेखन को पुनर्जीवित किया है। उसके स्वरूप को संवारा और लोकप्रिय बनाया है। वैसे भी हर बार हर परिवर्तन को हमने स्वेच्छा से नहीं, मजबूरी में ही स्वीकार किया। कोई वजह नहीं कि हम इस बार भी इसे खुशी-खुशी स्वीकार करें। मगर सत्य तो यह है कि इसके साथ ही एक नया पक्ष उभरा है। यह एक नयी कला है। ईमेल चिट्ठी लिखने की इलेक्ट्रॉनिक पद्धति मात्र है। और ऑरकूट व फेसबुक इत्यादि सामूहिक रूप से एक साथ कइयों से संपर्क बनाए रखने के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है। एक खास बात और कि यहां आदमी खूब लिखता है और खूब पढ़ता है। पहले तो शायद चिट्ठियां हम लोग कभी-कभी ही लिखते हों मगर अब तो हर पल की जानकारी, नये विचार व सूचना यहां लिखने के लिए हम तैयार रहते हैं। यहां मंत्री और संतरी से लेकर आम आदमी सभी खुली किताब हो जाते हैं। एक तरह की खुली डायरी के लेखन-सा माहौल पैदा हो जाता है। आदमी अपनी भावनाओं व दैनिक अनुभवों को अपने साथियों के साथ साझा कर सकता है। दूसरों की बातें पढ़ता है समझता है और जानता है। क्या इससे हमारे संपर्क सूत्रों में बढ़ोतरी नहीं हुई है? बिल्कुल। और ऐसा भी नहीं कि यह आपके नियंत्रण में नहीं। जिस तरह पहले हम अपनी स्वेच्छा से मित्रमंडली बनाते थे, उन्हीं से बातचीत करते जो हमें पसंद थे, यहां भी तो दोस्ती स्वीकृति के बाद ही बनती है। कोई जबरदस्ती नहीं। उलटे पहले तो दुश्मन का मुंह फुलाये चेहरा देखने की मजबूरी होती थी अब अनचाहे लोग आपको तंग नहीं कर सकते।
यह सही है कि इंटरनेट के इन प्रयोगों के कारण विश्व की कई भाषाओं को अपने अस्तित्व को बचाने की नौबत आ गई। चूंकि कंप्यूटर का मायाजाल मूल रूप से अंग्रेजी में प्रचलित है। कह सकते हैं कि अंग्रेजी का साम्राज्य विज्ञान के सहारे पूरे विश्व पर राज करने के लिए अपनी अंतिम विजयी अभियान का बिगुल बजा चुका है। इसे रोकना आसान नहीं। इसे दूसरी भाषा वाले एक चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं। परिणामस्वरूप अन्य भाषाएं भी सक्रिय हुई हैं और शायद जीवंत भी। अस्तित्व बचाने के सवाल पर हाथ-पैर मारना भी एक नैसर्गिक गुण है।
बहरहाल, बात हो रही थी आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की। इनमें अमूमन इतनी सारी प्रणालियां, तरीके, सुविधाएं होती हैं कि कुछ को तो समझ पाना भी बहुत मुश्किल है। इसमें कुछ तो सिर्फ दिखाने मात्र के लिए होते हैं तो कुछ वास्तव में उपयोगी। द्घर में खरीदे गए हर आम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के साथ जुड़ी सारी सुविधाएं हम कई बार जान भी नहीं पाते। कहा तो जाता है कि यह बहुत सरल और सहज होती हैं ‘यूजर फ्रेंडली’, फिर भी उससे अपने आप को जोड़ लेना आसान नहीं। ठीक इसी तरह से इन नेटवर्किंग साइट्स पर सब कुछ समझ कर, हर एक सुविधा का उपयोग कर पाना शुरू-शुरू में मुश्किल लगता है। मैं शायद अभी इससे जूझ रहा हूं। जबकि स्कूल के छात्र भी इसे आसानी से उपयोग कर लेते हैं। मुझे यह बात स्वीकार करने में बिल्कुल हिचक नहीं कि नयी पीढ़ी एक कदम आगे होती है।
परिवर्तन तो जीवन का शाश्वत सत्य है, मगर इस युग में इलेक्ट्रॉनिक व संचार के क्षेत्र में परिवर्तन की गति तीव्र है। रोज एक नयी खोज, नयी प्रणाली और नये उपकरण का नया स्वरूप। बस अब तो इंतजार इतना भर है कि एक दिन ‘स्टार वार्स’ की तर्ज पर, मैं अपने मनचाहे दोस्तों के साथ, जब चाहे, आमने-सामने बैठकर इस तरह से बात कर सकूं कि वो मेरे सामने थ्री डाइमेंशन में उपस्थित रहें। मैं उन्हें देख सकूं, महसूस कर सकूं, साथ हंस सकूं, रो सकूं, झगड़ सकूं। मेरा एकाकीपन खत्म होना चाहिए। फिर चाहे मेरा साथी न्यूट्रॉन-फोटॉन-इलेक्ट्रॉन से बनकर प्रतिबिंबात्मक रूप में ही सामने उपस्थित क्यूं न हों।