My Blog
Articles, Personal Diaries and More
एक बेहतरीन डायरी जो आज भी शक पैदा करती है
पिछले दिनों एनीफ्रेंक द्वारा लिखी गई और पेंग्यून द्वारा प्रकाशित ‘द डायरी ऑफ ए यंग गर्ल’ पढ़ी। इस डायरी को मैंने पढ़ा तो पूर्व में भी था परंतु इस बार इसका धीरे-धीरे व गंभीरतापूर्वक पठन किया। सिर्फ पाठक ही नहीं एक चितंक व लेखक के रूप में भी। बालसुलभ मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर पढ़ने पर कई जगह चिंतन उभरा तो कई जगह चिंता और कई जगह आश्चर्य। कई बार यकीन नहीं होता कि एक तेरह-चौदह साल की लड़की, वो भी आज से तकरीबन सत्तर-अस्सी वर्ष पूर्व, नीदरलैंड पर नाजी शासन के दौरान, हिटलर के डर से एक गुप्त स्थान में परिवार सहित छुपकर रहते हुए इस तरह की डायरी लिख सकती है। शायद इसकी लाखों-करोड़ों प्रतियां बिकने के पीछे भी यही कारण रहा हो। वैसे तो कई भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। मगर मेरे द्वारा यह दोनों बार अंग्रेजी में पढ़ी गई। हिन्दी में यह उपलब्ध है या नहीं पता नहीं। और अगर नहीं तो किसी अनुभवी अनुवादक के द्वारा इसका भारतीय भाषाओं में रूपांतरण अवश्य होना चाहिए। जिससे यह आम भारतीयों तक आसानी से पहुंच सके। इसको पढ़ने की आवश्यकता के पीछे कई सारे कारण गिनाये जा सकते हैं जिसमें प्रमुख है उस काल की एक सामान्य बालिका के मनोविज्ञान को समझना, द्वितीय विश्वयुद्ध की रूपरेखा को जानना, यहूदियों पर ज्यादती, उनकी जीवनशैली, उनका जीवनदर्शन और तत्कालीन यूरोप की सामाजिक-राजनैतिक अवस्था व समकालीन भाषा, साहित्य व विज्ञान का ज्ञान।
पुस्तक में इतनी परिपक्वता, जबरदस्त प्रवाह, भाषा की पकड़, शब्द संयोजन एवं विचारों में निरंतरता है कि पढ़ने के दौरान कई स्थानों पर शक होने लगता है कि कहीं एनीफ्रेंक के पिता ओटो एच. फ्रेंक ने छपवाने से पूर्व इसमें संपादन के नाम पर अच्छी-खासी फेरबदल तो नहीं कर दी? वैसे तो लेखिका ने बड़े होकर लेखिका बनने के ख्वाब देखे थे। अर्थात उसमें यह गुण और लगाव दोनों ही था। इसके बावजूद इस तरह का शक कई लोग पूर्व में जाहिर कर चुके हैं जिसे बाद में निरस्त भी किया जा चुका है परंतु फिर भी मेरे मन में शंका के उभरने का प्रमुख कारण रहा कि कई स्थानों पर लेखिका द्वारा अपनी मां के लिए उपयोग किये गये शब्द और उसमें छुपी भावनाएं असहज व असामान्य-सी प्रतीत होती हैं। कई बार लगता कि क्या इस उम्र की एक लड़की अपनी मां के प्रति ऐसी दुर्भावना भी रख सकती है जबकि मां का व्यवहार अपनी दोनों बेटियों के प्रति स्वाभाविक, आवश्यकतानुसार संतुलित और स्नेहपूर्ण था। मगर फिर बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। जितनी नापसंदगी मां के प्रति दिखाई गई है उतना ही अधिक प्रेम, आकर्षण, स्नेह और लगाव पिता श्री फ्रेंक के प्रति दिखाया गया है। कहने को तो यह लड़की का मां से अधिक पिता के साथ होने वाला स्वाभाविक व विपरीत लिंग वाला प्राकृतिक लगाव भी हो सकता है या फिर किसी परिवार की विशेष व्यवस्था, जिसके तहत ऐसी भावनाएं उपजी हों। लेकिन जिस गहराई व तीव्रता से बार-बार इसको प्रदर्शित किया गया है वह सहज नहीं लगता। और फिर शक इसलिए भी मुझे हुआ क्योंकि बाद में पकड़े जाने पर हिटलर के यहूदी कैंप में लेखिका के पिता को छोड़ सारा परिवार खत्म हो गया था। और ओटो फ्रेंक उन बहुत कम भाग्यशाली में से एक थे जो आखिर में जिंदा बच पाये थे। जिन्होंने बाद में दूसरी शादी भी की थी। तो क्या दूसरी पत्नी के सामने ओटो द्वारा स्वयं को अच्छा और प्रथम पत्नी को उसकी ही लेखिका बेटी के द्वारा कमतर साबित करने की यह कहीं अपरिपक्व मानसिकता तो नहीं? न चाहते हुए भी इस तरह के कई सवाल जाने-अनजाने ही पढ़ने के दौरान उभरे। वैसे यह पूर्णतः आज की तारीख में गैरजरूरी, अव्यवहारिक व अमर्यादित जान पड़ता है मगर फिर संदेह पर किसी का रोक नहीं। वैसे तो डायरी के प्रारंभ में ही, डायरी की मूल हस्तलिखित प्रति की प्रमाणिकता पर उठाए गए कई सवाल, जो विश्व के कोणों-कोणों से उभरे थे, के संदर्भ में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। यह भी बताया गया कि कई संस्थाओं के द्वारा कई तरह से इसकी जांच की गई और इसे सही पाया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद पिता श्री ओटो ने ही इस डायरी का प्रकाशन करवाया था और जैसा उनका खुद का कहना था कि प्रारंभ में कई कारणों से उन्होंने डायरी के कई अंशों को सम्मिलित नहीं किया था। मगर फिर कालांतर में सब कुछ यथावत् प्रकाशित किया। ऐसी सीधी व सच्ची बात तथा सफाई के बावजूद दिमाग में उठने वाले कई सवाल को देखकर यही महसूस होता है कि यही कारण है जो असंभव-सी लगने वाली वस्तु, कौतूहलता जगाती है और फिर बेहद लोकप्रिय होती है।
आज इस आत्मकथा को पढ़कर आम पाठक शायद यह यकीन ही न कर पाये कि कोई परिवार दो-ढाई वर्षों तक एक छोटे से घर में छुपकर रह सकता है। मगर यह पूर्णतः सत्य है। और फिर यूरोप में वर्षों से यहूदियों पर होती आयी ज्यादतियों के सामने तो यह कुछ भी नहीं। हां, इस बात का जरूर विश्वास नहीं हो पाता कि कोई इस उम्र का बच्चा इस हालात में इतना विस्तारपूर्वक, प्रतिदिन वर्षों तक निरंतर लिख सकता है। जिसमें उसके अपने दोस्तों की चर्चा, शारीरिक अवस्था में परिवर्तन और प्राकृतिक आवश्यकताएं, यौन संबंध के विस्तृत संदर्भ के अलावा मां-पिता, बहन और साथ रहने वाले परिवार के हर एक सदस्य के बारे में खुलकर अपनी भावनाएं शब्दों में उतारी गई हो। इस उम्र में बालक-बालिकाओं में गुप्तांगों के बारे में कौतूहलता, आकर्षण व जिज्ञासा स्वाभाविक है मगर उसे खुले शब्दों में लिख देना हिम्मत की बात दिखाई देती है। वो भी उस काल में, जहां यूरोप भी अपने खुले जीवनशैली की शुरुआत कर रहा था। साथ रह रहे परिवार के एक लड़के के साथ घुलना-मिलना, एकांत में गप्पें लगाना एक पाठक के लिए परी कथा के समान है। क्या एक छोटे से स्थान में जहां सभी लगातार एक साथ रह रहे हों, किसी के हाथ में इन कागजों के पड़ जाने का लेखिका को भय नहीं था? एक-दो जगह डर दिखाया भी गया मगर फिर भी क्या कोई इतने विश्वास के साथ विस्तारपूर्वक लिख सकता है? क्या उसे इस बात का यकीन था कि उसकी डायरी सुरक्षित है? और इसका जवाब अगर हां है तो इस पर यकीन होना थोड़ा मुश्किल लगता है। मगर फिर यही पुस्तक की खूबी है।
यहूदियों पर इतिहास के हर कालखंड में, हर एक स्थान पर अति अमानवीय यातनाएं व जुल्म ढाए गए। उन्हें असहनीय व अकल्पनीय कष्ट दिये गए। अचरज होता कि इतनी मुश्किलों के बावजूद भी यह कौम आज तक जिंदा कैसे है। मगर इस डायरी को पढ़ने के दौरान पता नहीं क्यों, लेखिका व उसके परिवार और उसके साथी परिवार को होने वाले दुःख का अहसास पाठकों को होता तो है लेकिन जिन्होंने यहूदियों पर अत्याचार को पढ़ रखा है उनके लिए यहां पीड़ा कम उभर कर आई है। रोजमर्रा की होने वाली मुसीबतों का पता तो चलता है मगर उसकी तीव्रता का अहसास नहीं हो पाता। शायद लेखिका रहते-रहते इस तरह के जीवन की आदी हो चुकी थी। जिसमें उसे अपने घर के बाहर निकलने की आजादी नहीं थी। शौच व नहाने में होने वाली परेशानियां, खाने में होने वाली कमी व तंगी और छोटे से घर के अंदर आठ लोगों के निरंतर रहने से पैदा होने वाली कठिनाइयों का जिक्र बड़ी सरलता से कर दिया गया। शायद इसका एक कारण और भी रहा हो कि उन्हें घर में तकरीबन हर तरह की चीजें कुछ मुश्किल से ही सही मगर निरंतर मिलती रही थी। चूंकि वे अपने पिता के ऑफिस के ऊपरी भाग में उनके विश्वसनीय दोस्तों की मदद से रह रहे थे। हां, इन बातों से अधिक तेरह-चौदह वर्ष की लड़कियां जो इस उम्र में कल्पना कर सकती हैं उसे अधिक दिखाया गया है। यह एक हमउम्र साथ रह रहे नवयुवक के प्रति आकर्षण से भरी हुई है। रोमांच मगर मासूम व कोमल भावनाओं में डूबी हुई एक अघोषित व टीनएजर्स की अनोखी प्रेम कहानी। जो कि चार कमरों के मकान में छुपने के दौरान पनपती है। इसमें नवीनता है। वैसे तो इस उम्र में यह स्वाभाविक भी है मगर फिर अन्य सभी भावनाएं दब गयी-सी प्रतीत होती है। आज के आधुनिक सूचना के युग में वर्तमान दौर की लड़कियां भी इस उम्र में शायद ऐसा ही सोचती हों। मगर उस दौर में पारंपरिक परिवार के हल्के से विरोध के बावजूद लड़की का खुलकर आना, लेखिका के व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है।
मुझे यहूदियों के ऊपर होने वाले अत्याचार को पढ़कर सदैव दुःख होता है। ईसाई धर्म व इस्लाम के आने के बाद, विशेष रूप से यूरोप, मध्य एशिया और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन पर अत्यधिक ज्यादतियां हुई। और कोई माने न माने मगर इन सब यातनाओं के पीछे धर्म, आस्था और विश्वास ही है जो इंसान को मानव बनाने की जगह उल्टा जानवर बना देता है। कितना विरोधाभास है। मगर यही सत्य है। और अंत में कुछ हो न हो इस पुस्तक ने इन्हीं यहूदियों, उन पर जुल्म करने वाली नाजी और स्टालिन की सेना के बारे में अधिक से अधिक जानने की उत्सुकता को पुनः जगाया है। और शायद मैं इसी विषय पर निकट भविष्य में कोई पुस्तक विस्तारपूर्वक पढ़ना चाहूंगा। यह खोजने के लिए कि आखिरकार मनुष्य ऐसी पाशविकता क्यों करता है