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पुरस्कारों का घालमेल
विगत दिवस लोकप्रिय कथाकार मन्नू भंडारी को हिन्दी साहित्य का प्रतिष्ठित व्यास सम्मान प्राप्त हुआ। यह एक बड़ी खबर थी। मगर मुझ जैसे हिन्दी प्रेमी पाठक को भी इसकी सूचना कुछ समय बाद प्राप्त हुई थी। हिन्दी अखबारों में इसकी कोई खास चर्चा दिखाई नहीं दी। यहां तक कि सम्मान से जुड़े व्यावसायिक घराने के समाचारपत्रों में भी यह खबर उचित स्थान प्राप्त नहीं कर पायी तो बाकी जगह की उम्मीद कैसे करें। अंग्रेजी अखबारों में इसे न के बराबर होना ही था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो यह खबर पूरी तरह से नदारद थी। यहां तक कि साहित्यिक पत्रिकाओं में भी इसकी कोई लंबी-चौड़ी चर्चा नहीं हुई। मीडिया युग में, ऐसे हालात में, इस कारण से ऐसा हो सकता है कि मन्नू भंडारी के कई चाहने वाले पाठकों को भी इस बारे में अभी पता ही न हो। मन्नू भंडारी वरिष्ठ साहित्यकार हैं। एक सफल व सशक्त लेखिका। व्यास सम्मान भी कम विशिष्ट नहीं। फिर भी मेरी प्रथम प्रतिक्रिया, आश्चर्य में डूबकर यह निकली थी कि मन्नू भंडारी को अब जाकर व्यास सम्मान दिया गया! कहने का तात्पर्य था कि यह तो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। यूं तो सम्मान सदैव सम्मानीय होता है और सफल होने पर तो इसे और अधिक नम्रता से स्वीकार करना चाहिए। मगर पता नहीं मुझे ऐसा क्यूं लगता है कि मन्नू भंडारी जी के लिए पुरस्कार शायद अब कोई मायने नहीं रखते। लेखन यात्रा के इस मोड़ पर शायद वह पुरस्कारों व सम्मानों से यकीनन ऊपर उठ चुकी होंगी। इस से अब उनकी लोकप्रियता में और क्या इजाफा होगा और जहां तक रही पहचान की बात तो वह तो पहले से ही स्थापित हैं। हां, संस्थाओं को उनके साथ जुड़ने से उनकी प्रमाणिकता व गरिमा बढ़ सकती है। यह होता है विशिष्ट व्यक्तित्व की पहचान और उनका प्रभामंडल। दुर्भाग्यवश नैसर्गिक प्रतिभाओं की चर्चा आजकल हमारे मीडिया में नहीं होती। इसे हमारे पुरस्कारों और विभिन्न सम्मानों में होने वाली राजनीति, गुटबाजी और खरीद-फरोख्त के कारण हुए बदनामी से जोड़कर भी देखा जा सकता है। फलस्वरूप पुरस्कारों का आकर्षण घटा है और लोगों में इनकी दिलचस्पी नहीं रही।
ऐसा नहीं कि यह सिर्फ साहित्य में ही है। अन्य क्षेत्रों में भी पुरस्कारों और सम्मानों की स्थिति बिगड़ चुकी है। फिल्म इंडस्ट्री व मनोरंजन की दुनिया में तो इतने अवार्ड हो चुके हैं कि अगले दिन भी कोई याद नहीं रखता। कई बार पता ही नहीं चल पाता। इस बदहाली के लिए कई कारण हैं। समझने के लिए यह क्या काफी नहीं होगा कि कहा तो यह भी जाता है कि नायक-नायिकाएं कार्यक्रम में पहुंचते ही तब हैं जब उन्हें किसी न किसी पुरस्कार दिए जाने के बारे में पहले से भरोसा दिलाया जाए। खेल जगत का भी कम बुरा हाल नहीं। इन सबके के लिए खेली जा रही राजनीति को उभारने वाला मीडिया खुद पुरस्कारों के धंधे से दूर नहीं। ऐसा नहीं कि सिर्फ साहित्य में ही पुरस्कार खरीदे जाते हैं या स्वयं के लिए पैदा किए जाते हैं। हर क्षेत्र में खुद को स्थापित करने का दिवास्वप्न देखकर ताली बजाने का तमाशा करवाया जाता है। किसी भी पुरस्कार को पैदा करने में कुछ पैसे ही तो खर्च होते हैं। शासकीय पुरस्कारों में भी खुलकर भाई-भतीजावाद चलता है। इस मुद्दों पर चर्चा करना व किसी एक का नाम लेना, बेवजह समय खराब करना होगा। यही कहा जा सकता है कि पद्मश्री व पद्म विभूषण का अब पता ही नहीं चलता। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि भारत रत्न जैसे श्रेष्ठ पुरस्कार के साथ शब्दों की गरिमा व राष्ट्र की भावना जुड़े होने के बावजूद, यहां भी राजनीति खेलने से लोग नहीं चूकते।
उपरोक्त दुर्दशा व सम्मान का पतन देखकर हम इन पुरस्कारों से विमुख होने लगे हैं। अब पुरस्कारों के साथ-साथ पुरस्कार प्राप्त करने वाले का व्यक्तित्व भी मैनेज किया जाता है। पूर्व में भी स्थिति कोई बहुत बेहतर नहीं थी। राज-दरबारों में उपाधि के लिए और सेना में मेडल के लिए षड्यंत्र होते रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या कालीदास, कबीर, बिहारी, तुलसीदास, सूरदास को किसी पुरस्कार की आवश्यकता पड़ी? आधुनिक युग को ही ले लें, हम प्रेमचंद को आज भी जानते हैं, लेकिन प्रेमचंद ने कितने पुरस्कार ग्रहण किए? शायद ही किसी को पता हो। प्रेमचंद के जीवनकाल से लेकर आज तक न जाने कितने अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार बंट गए होंगे, मगर क्या कोई उनके समकक्ष पहुंच पाया? विगत दिवस हिन्दी कविता के एक सम्मानीय पुरस्कार को लेकर अच्छी खासी नोकझोंक हुई। आम जनता को इससे कोई सरोकार नहीं था क्योंकि उसके लिए पुरस्कार नहीं, कविता मायने रखती है। यही कारण है कि आज की कविता आम जनता पढ़ती नहीं। महादेवी वर्मा को पढ़े जाने के लिए किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं। लता मंगेशकर ने बहुत पहले ही फिल्म इंडस्ट्री के पुरस्कारों से अपने आप को अलग कर लिया था क्योंकि यह उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था।
अधिकांश नामी व ऐतिहासिक व्यक्तित्व पुरस्कारों से हमेशा बड़े रहे हैं। और जो पुरस्कारों के चक्कर में लगे रहे उन्हें समय ने मिटा दिया। टैगोर और मदर टेरिसा सिर्फ नोबल पुरस्कार के कारण नहीं जाने जाते। अगर ये पुरस्कार उन्हें न भी मिले होते तो भी ये नाम जाने जाते। गांधीजी को शांति का नोबल न दिए जाने की हम चाहे जितनी चर्चा व भर्त्सना करें, प्रश्न उठता है कि क्या गांधी को इसकी आवश्यकता थी? बिल्कुल नहीं। आमतौर पर पुरस्कृत उसे किया जाता है जिसे किसी एक या किसी समूह के द्वारा किसी कार्य विशेष या विशिष्ट क्षेत्र में प्रशंसात्मक उपलब्धि को स्वीकृति प्रदान करनी हो, पहचाना जाना हो। जो पहले से सम्मानित हो, स्थापित हो, उसे क्या वास्तव में पुरस्कारों की आवश्यकता है? किसी प्रतिभावान को पहचान की स्वीकृति तो तभी मिल जाती है जब उसको आमजन हाथों-हाथ लेता है।
तो क्या पुरस्कार के बदतर हालात हिन्दुस्तान में ही हैं? हम अपने कारनामों के कारण अमूमन बहुत खराब सामाजिक टिप्पणियों के शिकार होते रहे हैं और स्वयं को दोषारोपित करते रहते हैं। दूसरों के घर की चकाचौंध हमे सदैव आकर्षित करती हैं। यह हमारे स्वभाव की विशेष कमजोरी है। हम कांच की चमक मात्र से उसे हीरा समझ कर सिर पर बैठाने के लिए तैयार हो जाते हैं। बुकर्स अवार्ड ने हिन्दुस्तान के मीडिया में हमेशा हलचल मचाई है। क्यों? क्या इसका कारण सिर्फ यह है कि इसमें पैसा अधिक है? नहीं। या फिर इसलिए कि यह अंग्रेजी साहित्य से संबंधित है? बिल्कुल ठीक। बुकर्स की अधिक चर्चा के पीछे उसकी उच्च प्रमाणिकता से अधिक हमारी अंग्रेजी साहित्य के प्रति अनुरागात्मक मानसिकता है। जिसमें कहीं न कहीं पश्चिम की सांस्कृतिक व साहित्यिक साम्राज्यवाद और इसके पीछे छुपा उपनिवेशवाद व हमारी गुलाम मानसिकता की बू आती है। यह जानते हुए भी कि इसमें भी कम राजनीति नहीं होती, हमने इसे हमेशा सिर-आंखों पर बैठाया। जब तक हमारे यहां के तथाकथित लेखकों को किसी न किसी वजह से यह अवार्ड मिल रहा है तो हमें इसकी खुलकर आलोचना करने की क्या आवश्यकता है। हमारे लेखकों को जब तक पश्चिम से नाम व पैसा मिल रहा है, हमें बाकी चीजों से क्या मतलब। हमने तो अपने देश की सुंदरियों को अचानक विश्व सुंदरी घोषित किए जाने की श्रृंखला पर भी कभी कोई शक जाहिर नहीं किया। सब कुछ जानते और समझते हुए भी हम नादान बने रहे। फिर चाहे एक सोची-समझी नीति के तहत ही, एक बाजार के रूप में हम उपयोग क्यों न किए जा रहे हों। हम लालायित होकर सदैव इन पुरस्कारों को पाने के लिए जी-जान से जुटे रहते हैं। और हमारा मीडिया इसमें सहायक की भूमिका अदा करता है। यह जानते हुए भी कि नोबल पुरस्कार में भी कम राजनीति नहीं होती और एक अघोषित नीति के तहत विश्व के कुछ सीमित क्षेत्र से ही कुछ चुनिंदा लोगों को ही यह दिया जाता है। हमने हमेशा इसे सिर-आंखों पर बिठाया। और प्रचार में खूब माध्यम बने। दबी जुबान से ही सही गांधी को नोबल न मिलने पर हमने हमेशा आश्चर्य दिखाया। मगर किसी भारतीय के अमेरिकी नागरिक बनने के बाद नोबल मिलने पर हमने हमेशा अपने समाचारपत्र भर दिये। और साथ में फिर वही पुराना तर्क दे मारा कि हिन्दुस्तान में प्रतिभाओं की कीमत नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि यह बहुत हद तक सत्य है। मगर यह अंतिम नहीं।
आज के युग में गुणवत्ता नहीं, प्रतिभा नहीं, सफलता को मैनेज करने का जमाना है। पुरस्कार देने वाले को मैनेज करना पुरस्कार लेने वाले का काम है। मगर यह बीमारी सिर्फ पुरस्कार तक सीमित नहीं है जीवन के हर क्षेत्र में मैनेज करने की प्रथा जोर पकड़ चुकी है। नेटवर्किंग का जमाना है। अपने जीते जी सब कुछ पा लेना जीवन का ध्येय बन चुका है। स्वार्थ में डूबे संसार में घोर अंधकार व्याप्त है। अब यहां प्रतिभाएं रोशनी नहीं करतीं, बल्कि कृत्रिम बल्ब अंधेरे में टिमटिमाते हुए सितारे बनने की गलतफहमियां हर रात पैदा करते हैं। हमें ऐसे अंधे युग में जी रहे हैं जहां कुछ भी दिखाई नहीं देता। मगर क्या यह हमारे देश और समाज की ही समस्या है? शायद नहीं। समय के पैमाने पर रखकर तोले तो ओबामा को आज की तारीख में नोबल का शांति पुरस्कार प्रदान करना, पश्चिम के बेहतरीन सभ्यता होने के तमाम दावों को जड़ से खोखला ही साबित नहीं करता, बल्कि यह भी बतलाता है कि मैनेज और नेटवर्किंग का रोग वहां भी व्याप्त है। इस बार आश्चर्य इस बात का अधिक हुआ कि भारतीय मीडिया ने इस सत्य को स्वीकार किया और खुलकर लिखा। हम इस बार, नोबल पुरस्कार के आलोचक बने। वर्ना आंखें बंदकर इसका महिमागान करते आए हैं। यह घटनाक्रम इस बात का प्रमाण है कि असल में इस विश्व युग में हम अकेले नहीं हैं। हमारी वर्तमान संस्कृति को ध्यान से देखें तो यह पश्चिम की ही देन दिखाई देगी। जहां सब कुछ चमकीला होना दिखाया जाता है। सिर्फ और सिर्फ विज्ञापन के द्वारा मैनेज किया जाता है। बाजार के लिए।