My Blog

Articles, Personal Diaries and More

घर के अर्थशास्त्र का गणित

घर चलाने के लिए अमूमन अर्थशास्त्र पढ़ने की आवश्यकता नहीं। अर्थशास्त्र के किताबी ज्ञान का पता न होने के कारण ही शायद अधिकांश भारतीय गृहिणियां अपना घर, कुशलतापूर्वक, कम पैसों में भी चला लेती हैं। वो भी इज्जत के साथ। भारतीय परिवार में कुछ पैसे बचा भी लिये जाते हैं, भविष्य के लिए। आमतौर पर पुरुष वर्ग का हस्तक्षेप घर के आंतरिक मामलों में कम ही होता है और लेखक लोगों का तो ध्यान इस ओर कम ही जाता है। लेकिन हां, अर्थशास्त्र के ऊंचे-ऊंचे फंडे लिखने के लिए अखबारों के कागज इनके द्वारा खूब काले किए जाते हैं। यह दीगर बात है कि पाठक इसे समझने में कठिनाई महसूस करता है। उधर सैकड़ों उच्चस्तरीय अर्थशास्त्री को करोड़ों रुपए वेतन का देकर भी कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां बंद हो गईं और बड़े-बड़े दावे करने वाले विकसित राष्ट्रों के नक्शे-कदम पर चलकर कई मुल्क कर्ज में डूब गए। भारत बच गया तो इसका श्रेय यहां के अर्थशास्त्री को नहीं दिया जाना चाहिए। चूंकि ये भी उसी स्कूल के छात्र हैं जहां से पढ़कर पश्चिम के हसीन सपने बिखर गए। बधाई का असली हक यहां के परिवार की आर्थिक प्रणाली को जाता है। तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि पारंपरिक भारतीय गृहिणी एक सफल फायनांस मैनेजर भी हैं? मैनेजमेंट के तथाकथित गुरुओं को ऐतराज न हो तो सरल शब्दों में ऐसा कहा ही जा सकता है।

इसी संदर्भ में अगर हम यह जानना चाहें कि घर की आय में से कितना प्रतिशत हम भोजन पर खर्च करते हैं? तो यह सवाल देखने में जितना सरल लगता है उतना वास्तविकता में है नहीं। प्रश्न लेकर अमीर-गरीब के बीच फैले भारतीय समाज में उतरने पर इसके उत्तर भी अलग-अलग मिलेंगे। वैसे तो भारतीय गृहिणियां, जितनी चादर उतना ही पैर फैलाओ, वाले सिद्धांत पर काम करती रही हैं लेकिन फिर भी एक सरल सर्वेक्षण किया जाए तो उसके विश्लेषण करने पर हम यह पाएंगे कि गरीब आदमी आमतौर अपनी आय का बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च करता है। और यही कारण है कि खाद्यान्न के महंगे होते ही उसकी सबसे अधिक मार गरीब पर पड़ती है। लेकिन फिर जैसे-जैसे वो अमीर होता जाता है खाने-पीने पर होने वाले खर्च का प्रतिशत उसी रफ्तार से कम होता जाता है। ठीक इसी तरह से गरीबी बढ़ने पर भोजन पर होने वाले खर्च का प्रतिशत बढ़ने लगता है। आदर्श अवस्था में एक स्थिति ऐसी भी आ सकती है जब वह अपनी आय का शत प्रतिशत खर्च भोजन पर ही करता है। चौंकिए मत ऐसा हो सकता है। अर्थात वह अपना एक भी पैसा किसी और मद में खर्च नहीं करता। हिन्दुस्तान की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा जो सड़कों पर भीख मांग कर-मजदूरी करके सड़कों पर ही अपना जीवन व्यतीत कर देता है, इसका उदाहरण बन सकते हैं। उनमें से अधिकांश को भीख या मजदूरी में मिले कुछ पैसे होते हैं जिन्हें सिर्फ और सिर्फ खाने पर खर्च किया जाता है। इसमें उदाहरणार्थ चाय पीना तक भी शामिल है। बाकी शरीर ढकने के लिए फटे मैले कपड़े कहीं से दान में मिले हुए होते हैं और सड़क किनारे पेड़ के नीचे सोने के लिए भी पैसों की आवश्यकता नहीं होती। यह एक काल्पनिक अवस्था हो सकती है। क्योंकि पुरुष द्वारा एक बीड़ी (हानिकारक होते हुए भी इसे मनोरंजन और नशे की शुरुआत माना जा सकता है) के भी खरीदने से ही और औरतों के द्वारा साबुन का एक छोटा-सा टुकड़ा खरीदते ही, उनकी आय में से खाने का प्रतिशत कम होना शुरू हो जाता है। इस अवस्था के ठीक विपरीत रईस लोगों के द्वारा खाने में होने वाला खर्च उनकी आय का नगण्य प्रतिशत होता है। अरबों में खेलने वाले रईसों के लिए पांच सितारा होटल में होने वाला हजारों रुपए का खाने-पीने का खर्च भी मामूली होता है। इनके होटल के कमरों का एक दिन का किराया इनके पूरे परिवार के खाने से भी कई बार अधिक होता है। अर्थात पैसा कपड़ों, श्रृंगार, रहन-सहन, व्यापार या फिर अन्य क्षेत्रों में खर्च किया जाता है। इसमें मनोरंजन भी शामिल किया जाना चाहिए। निष्कर्ष निकलता है कि हम अपने भोजन के लिए अपनी सामाजिक हैसियत के हिसाब से खर्च करते हैं। और करना भी चाहिए।

आदर्श रूप में देखे तो जीवन के लिए हवा-पानी के बाद भोजन मूल रूप से आवश्यक है। यह प्राथमिकता का क्षेत्र है। इसके बाद ही अन्य बातों का महत्व होना चाहिए। भारतीय समाज में ऐसा ही था। मगर बाजार इस नियम से संतुष्ट नहीं। उसे अपने ग्राहक की संख्या निरंतर बढ़ानी होती है। उसे आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं से कोई मतलब नहीं है। यहां सारा खेल पैसों का है। अधिक से अधिक कमाने का है। प्रतिस्पर्द्धा के आज के युग में जब इतना माल मार्केट में आ जाएगा तो व्यापारी भी क्या करे? वो सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं जिससे ग्राहक आकर्षित हो। और यहीं से खेल शुरू होता है ग्राहक के घरेलू अर्थशास्त्र को बिगाड़ने का। क्रयशक्ति बढ़ाना बाजार का काम नहीं। अंततः आम नागरिक द्वारा खाने पर होने वाले खर्च के प्रतिशत को कम किया जाता है। और अन्य खर्च को बढ़ाया जाता है। और न मिल पाने पर कर्ज लिया जाता है। कई बार यह कर्ज मूल आय से भी कई गुणा बड़ा होता है। आदमी अपनी हैसियत से बढ़कर सामान खरीदता है। और कर्ज चुकाना भविष्य पर छोड़ देता है। सामान तो घर में आ जाता है लेकिन कर्जा उतारने का तनाव चढ़ जाता है। आय के स्रोत बढ़ाने के उपाय किए जाते हैं मगर वो इतने आसान नहीं, उपलब्धता भी नहीं और हर उम्र में किया भी नहीं जा सकता। शरीर और समय की भी सीमा होती है। और फिर शुरू होती है परेशानियां और समाज की अन्य बुराइयां जैसे कि चोरी, रिश्वतखोरी, धोखेबाजी। कर्जों से उत्पन्न होने वाला तनाव, पारिवारिक असंतोष व कलह में बदल जाता है जिसका असर स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। अंत में संबंध टूटने लगते हैं। परिवार बिखरने लगता है। इनके टूटने से बाजार को फायदा ही होता है। एक मुसीबत से बचने के लिए, एक परेशानी का हल निकालने के लिए, आदमी चार नई परेशानियों को न्योता देता है। ये चार परेशानियां कुछ और नहीं, बाजार में उपलब्ध अन्य दुकानें हैं। ये मनोरंजन के नाम पर परोसे जाने वाला क्षणिक सुख देने वाला हो सकता है या फिर नशे में डुबो देने के लिए कई सारे साधन उपलब्ध हैं। और कुछ नहीं तो गृह कलह से छुटकारे के लिए बाबाओं, वकील और मनोचिकित्सक की दुकान तो है ही। मीडिया में हर स्तर पर इसके लुभावने विज्ञापन मिल जाएंगे। और इन सब के चक्कर में पढ़कर कर्ज और बढ़ जाता है। उसको पूरा करने के लिए कुछ और लोन के लिए और बड़े दुकानदार मुस्कुराते हुए साफ-सुथरी वेशभूषा में बाजार में तैयार मिल जाएंगे। आखिर में आदमी इस कालचक्र में बुरी तरह फंस जाता है।

सीधे शब्दों में, बाजार का अर्थशास्त्र, आदमी के सरल और सीधे-सादे घरेलू अर्थशास्त्र को बिगाड़ने के हर हथकंडे अपनाता है। और वो पिछले कुछ दशकों से इस मामले में सफल भी रहा है। इसीलिए महंगाई बढ़ी है या नहीं, का पता नहीं, लेकिन अधिक महसूस जरूर होने लगी है। क्या कारण है जो पूर्व में सामान्य परिवार भी देसी घी में खाना खाता था आज डालडा भी कंजूसी से इस्तेमाल करता है? पहले लोगों के पास पैसा कम था, मगर भूख के लिए रोटी थी, और वो भरपेट घी-दूध के साथ खाता था। आज भूख लगने पर आलू के चिप्स और एयरकंडीशन रेस्टोरेंट के बर्गर खाये जाते हैं। जिसकी कीमत में आज भी, घर में आराम से पूरे परिवार का एक वक्त का खाना बन सकता है। सवाल यह उठता है कि क्या इस घरेलू खर्च के अनुपात को बिगाड़ना ही विकास की कहानी है? इस बहस के लिए अर्थशास्त्री लोग उपयुक्त होंगे। लेकिन हां, इस विकास के कारण ही आज हजारों-लाखों लोग भूखे रहते हैं। पहले लोग परेशान रहते थे अकाल के कारण, अनाज की अनुपलब्धता के कारण, क्रय करने की शक्ति न होने के कारण। मगर आधुनिक युग में कुछ घर आंशिक भूखे इसलिए रहने लगे हैं कि उनके घरों में कर्जे के साथ-साथ नये-नये कई आरामदायक उपभोग के सामान आ गए हैं। बच्चों को पैदल की जगह मोटरसाइकिल और साधारण कपड़ों की जगह ब्रांडेड कपड़े दिए जाने लगे हैं। पुरानी पीढ़ी के मतानुसार पहले हर घर में काजू-बादाम आता था अब हर घर में मोबाइल व कंप्यूटर इंटरनेट के साथ हैं। ऐसा महसूस होता है कि भारतीय कुशल गृहिणी ने इस व्यवस्था को स्वीकार कर लिया लेकिन पेट काटना भी शुरू कर दिया है। क्या यह उचित है? शायद नहीं।

त्योहारों के मौसम में बाजार अनेकोनेक आकर्षक सामानों से भरे पड़े होंगे। रौनक लगी हुई होगी। मगर यह याद रखना होगा कि यह एक ऐसी मृगतृष्णा है जो किसी की कभी नहीं पूरी हुई। कहने का तात्पर्य यह नहीं कि सभी को संन्यासी बन जाना चाहिए। बिल्कुल नहीं। सभी को जीवन में आनंद और मस्ती का अधिकार है। खूब कीजिए। सिर्फ खरीदारी अपनी हैसियत देखकर कीजिए। यह छोटी-सी बात आपको आने वाले भविष्य में अवश्य काम देगी।