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मानसिक रोगी से पीड़ित परिवार
स्वस्थ काया जीवन में खुशहाली के लिए परम आवश्यक है। आदिकाल से कहा जा रहा है। यह आज भी उतना ही सच है, बस इस में अब थोड़े से विस्तार की आवश्यकता है। कहा जाना चाहिए कि स्वस्थ शरीर के साथ-साथ स्वस्थ मन-मस्तिष्क का होना भी आवश्यक है। प्राचीन ग्रंथों में दिमाग के प्रमुखता से उल्लेख न होने का कारण है कि पूर्व में मानसिक बीमारियां नहीं होती थीं या फिर बहुत कम होती थीं। असल में मनुष्य के तथाकथित विकास के साथ-साथ मनोरोगों का भी तेजी से विकास व विस्तार हुआ है। अब तो यह विकराल रूप धारण कर चुका है। अनुमान है कि सन् 2020 तक हृदय रोग के बाद इनकी संख्या सर्वाधिक हो जाएगी। यहां ध्यान देने वाली बात है कि उपरोक्त संशोधित कथन में सिर्फ मस्तिष्क शब्द का उपयोग नहीं हुआ है साथ में मन भी लगाया गया है। इसके पीछे विशेष कारण है। आज मन व मस्तिष्क, दोनों ही दूषित और बीमार होते चले जा रहे हैं। हां, आत्मा जरूर छटपटाती होगी, क्योंकि आधुनिक मानव द्वारा उस पर भी गलत प्रभाव डालने की कोशिश की जाती है।
मानसिक रोग के लक्षण अलग-अलग होते हैं। कहीं-कहीं बहुत हल्के संकेत होते हैं जो आमतौर पर न दिखाई देते हैं न समझ आते हैं। मगर एक स्थिति के बाद यह दूसरों को भी महसूस होने लगते हैं। अमूमन आमजन को इसे पहचानने में कठिनाई होती है। अतः एकदम सरल शब्दों में कहना हो तो मानसिक रूप से वही व्यक्ति स्वस्थ है जो सामान्य अवस्था में प्रसन्नचित्त और सुख से रहता है, संतोष के साथ। मगर विशेषज्ञों की राय माने तो इस व्याख्या में थोड़ी कमी है। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जहां लोग स्वयं तो प्रसन्न रहते हैं मगर अपने आसपास वालों को दुःखी करके रखते हैं। अलबता आजकल ऐसे लोग ज्यादा मिल जाएंगे। यही कारण है कि विशेषज्ञों ने इस में सुधार करते हुए नयी परिभाषा दी। उन्हीं के सरल शब्दों में, मानसिक रूप से वही स्वस्थ है जो स्वयं के साथ-साथ अपने आसपास व संबंधित लोगों को भी प्रसन्न रखने का प्रयास करता है और वातावरण को सकारात्मक बनाने की चेष्टा करता है। इन सरल शब्दों से मानसिक रोगी की पहचान मोटे तौर पर हो सकती है। वैसे तो मनोविकार एवं मनोरोगी की अवस्था और वास्तविकता को समझना अपने आप में एक पूरा विज्ञान है परंतु आमजन की भाषा में इसे चिंता, दुश्चिंता ‘एंग्जाइटी’, भय-फोबिया, उदासी, डिप्रेशन से परिभाषित किया जा सकता है। इनके सामान्य लक्षण के बार-बार और एक सीमा से बाहर प्रकट होने पर संबंधित व्यक्ति को मानसिक बीमार कहा जाना चाहिए। ये कुछ सामान्य मानसिक बीमारियां हैं जो अब आम पाई जाती हैं। सर्दी, जुकाम, बुखार की तरह। महत्वाकांक्षा व प्रतिस्पर्द्धा के कारण उपजा तनाव, दवाओं का अत्यधिक सेवन, अनियमित व अप्राकृतिक जीवन पद्धति इसके प्रमुख कारण हैं तो हिंसा, बलात्कार, नशाखोरी, पारिवारिक कलह इसके परिणाम। हां, डिप्रेसिव-डिसआर्डर, थॉट-डिसआर्डर, बायपोलर व स्किजोफिरनिया मनोरोग से ग्रसित आदमी को आमजन पागल कहने लगते हैं चूंकि इनके लक्षण विशिष्ट व हाव-भाव असामान्य दिखने लगते हैं और मनोरोगी परिवार-समाज में सामान्यतः आत्मनिर्भर होकर रहने लायक नहीं रह जाता।
विगत कुछ समय से मानसिक रोग के बारे में चर्चाएं तेज हुई हैं। चिकित्सा विज्ञान में खोज का काम प्रगति पर है। बहुत हद तक इलाज होने लगे हैं। बेहतर दवाइयां कम साइड इफेक्ट्स के साथ आ चुकी हैं। समय से इलाज होने पर अधिकांश बीमारियां ठीक भी हो जाती हैं। यह बहुत कुछ रोगी की उम्र, बीमारी की अवस्था व रोगी के परिवार की आर्थिक-सामाजिक अवस्था पर निर्भर करता है। बीमारी के मूल कारणों का पता लगाया जा रहा है। जिसमें प्रमुख है समाज व परिवार की व्यवस्था में असंतुलन। व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं पर टिप्पणी होने लगी है। जीवन मूल्यों को समझाया जा रहा है। मगर जो समझदार होते हैं उन्हें बार-बार समझाने की आवश्यकता नहीं होती। न ही होनी चाहिए। और फिर पढ़े-लिखे को बताने की क्या आवश्यकता? यह तथ्य सैद्धांतिक रूप से ही ठीक लगता है। लेकिन वास्तविकता तो कुछ और कहती है। उलटे पढ़ा-लिखा आदमी समझना ही नहीं चाहता। वो स्वयं को हमेशा सही समझता है। यही कारण है जो स्थिति नियंत्रण में आने के बजाय बिगड़ती चली जा रही है। आज मानसिक रोगी, हर दूसरे परिवार में, नये-नये लक्षणों के साथ मिल जाएगा। नींद न आना अब आम बात हो गई है। गुस्सा करना, बात-बात पर झगड़ा करना, चिड़चिड़ाने के दृश्य कहीं भी देखे जा सकते हैं। इन्हें हम लोग अमूमन सामान्य रूप में लेते हैं मगर यह किसी मानसिक रोग के प्रारंभिक लक्षण हो सकते हैं। समाज में नशे का सेवन बढ़ा है। क्षणिक मस्ती, वो भी जबरन कृत्रिम रूप से पैदा की गई, का चलन बढ़ा है। आनंद का प्रचलन कम हुआ है। कारण कई हैं। मगर परिणाम सामने हैं, परिवार का टूटना आम बात होती जा रही है। यही नहीं और बहुत कुछ है, जो भोगता है, वही समझ सकता है। इसकी पीड़ा असहनीय है।
कुछ समय पूर्व तक इक्का-दुक्का मनोरोग (साइकाइट्री) के विभाग किसी-किसी मेडिकल कॉलेज में हुआ करते थे, मगर अब यह हर एक मेडिकल कालेज में एक प्रमुख विभाग माना जाता है। अमेरिका में तो साइकाइट्रिस्ट (डॉक्टर) सबसे अधिक कमाने वालों में से एक बन गए हैं। भारत में भी अधिक से अधिक मानसिक चिकित्सालय खोलने की बातें की जाने लगी है। हम इलाज की बात तो करते हैं मगर बीमारी के मूल को जानते हुए भी दूर नहीं कर पा रहे। हर क्षेत्र में जीतने की चाहत, सब कुछ पाने की आशा, बाजार का आकर्षण ऐसा तीव्र भंवर है जिसमें से निकलना अब असंभव होता जा रहा है। यह पूर्णतः प्रमाणित तो नहीं है मगर फिर भी प्राकृतिक जीवन, योगासन, सकारात्मक सोच और संगीत-नृत्यकला-साहित्य-सृजन के माध्यम से इसको बहुत हद तक दूर रखने की कोशिश की जा सकती है। इसी संदर्भ में एक बात प्रमुख है, जिसका नोटिस नहीं लिया जा रहा, वो है कि हम सब मानसिक रोग से पीड़ित के संबंध में तो बात करते हैं लेकिन मानसिक रोगी से पीड़ित लोगों को पूरी तरह से भूले हुए हैं। जबकि यह एकमात्र ऐसी अजीब बीमारी है कि जिसमें रोगी को पीड़ा का अनुभव नहीं होता (जिसकी सोच ही नहीं, जो संतुलित ही नहीं उसे दुःख-दर्द का अहसास कैसे हो सकता है)। लेकिन उसकी हरकतों से, बातों से, ऊलजलूल क्रियाकलापों से, उसके साथ रहने वाले, उसके परिवार के सदस्य, दोस्त व ऑफिस में काम करने वाले सहकर्मी अधिक दुःख झेलते हैं।
मानसिक रोग व रोगी पर कई फिल्में बन चुकी हैं। मगर अधिकांश वास्तविकता के नजदीक नहीं। व्यवसायिक कथानक व फिल्मी प्रस्तुतीकरण अधिक होता है। और फिर इन सबके केंद्र में सदैव मानसिक रोगी ही होता है। उसी से सभी प्रेम करते हैं उसी पर सभी को दया आती है उसके लिए ही कहानीकार से लेकर अन्य चरित्र और पाठक व दर्शक द्वारा भी सोचा जाता है। लेकिन मानसिक रोगी के पत्नी/पति व बच्चों की पीड़ा अनदेखी रह जाती है। उनकी संवेदनाओं को उभरने का मौका नहीं मिलता। कैमरे का फोकस, लेखक की लेखनी, सब कुछ मनोरोगी को केंद्र में रखकर लिखी जाती है। ऐसा नहीं कि इन्हें सहानुभूति की आश्यकता नहीं या इनके बारे में सोचा नहीं जाना चाहिए। लेकिन मानसिक रोगी से संबंध रखने वाले लोगों की पीड़ा के वर्णन से आम आदमी (दर्शक-पाठक) अपने आप को और अधिक संदर्भित महसूस कर सकता है। नारकीय जीवन की भयावहता का अहसास समाज कर सकता है। और सतर्क हो सकता है। चूंकि यह एक ऐसी बीमारी है जिसमें दूसरे ज्यादा कष्ट भोगते हैं। ऐसे में सोचिए, जब मानसिक रोगी हरेक परिवार में पाये जाने लगेंगे तो समाज की स्थिति क्या हो जाएगी? परिवार में किस तरह के हालात बन जाएंगे? अपने उपन्यास ‘बंधन’ में मैंने इसी पक्ष को उभारने की कोशिश की है। इसमें एक मनोरोगी के परिवार की पीड़ा को दर्शाकर, यह आगाह किया गया है कि इस बीमारी को हल्के में न लिया जाए।
अधिक पाठक वर्ग तक पहुंचने के लिए अच्छे प्रकाशक की आवश्यकता पड़ती है। ज्वलंत समस्याओं पर जागरूकता के लिए यह जरूरी भी हो जाता है। ‘बंधन’ उपन्यास राजकमल प्रकाशन दिल्ली जैसे अग्रणी प्रकाशक के द्वारा छापे जाने से यह आम लोगों तक पहुंच रही है। और प्रतिक्रिया के रूप में भिन्न-भिन्न विचार सुनने को मिल रहे हैं। मेरे अपने मतानुसार इसके पीछे प्रमुख कारण है कि यह सत्यता व वास्तविकता के नजदीक है। अधिकांश पाठक कथानक से अपने आप को कहीं न कहीं जोड़कर देखने लगते हैं। इन चरित्रों में दूर-पास के परिवार के सदस्यों को महसूस करने लगते हैं। लिखने से पूर्व मैंने कई तरह के मानसिक रोगी के परिवारों का नजदीक से अध्ययन किया था। यह एक दुःखभरा असहनीय अनुभव था। एक अंधी सुरंग, जहां जीवन अंधकारमय है और रोशनी का अतापता नहीं। कई घरों में तो एक से अधिक मानसिक रोगी भी उपस्थित थे, जो मेरे पात्र बने। शायद यही कारण है जो पीजीआई चंडीगढ़ मनोचिकित्सा विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष और डब्ल्यूएचओ में कई वर्षों तक कार्य करने वाले विश्वप्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. विग को यह यकीन ही नहीं हो पाता है कि मानसिक रोग के ऊपर एक इंजीनियर ने उपन्यास लिखी है और वो भी चिकित्सा विज्ञान की सत्यता के इतने नजदीक। उपन्यास पढ़ते हुए उन्हें महसूस हुआ कि उन्हीं का कोई मरीज उनके आंखों के सामने से घूम गया। यह मेरे लिये सबसे बहुमूल्य शब्द और प्रतिक्रिया हैं, जिसने मुझे प्रोत्साहित किया।
इस लेख का उद्देश्य है कि पाठक समय रहते इन बीमारियों से बचने का प्रयास करें और अगर आस-पास के संबंधों में कोई भी इससे पीड़ित लगे तो देर न करें, विशेषज्ञों से इलाज कराएं और नारकीय जीवन से बचें। अन्यथा हालात बेकाबू होने में वक्त नहीं लगता। यह कार्य थोड़ा मुश्किल अवश्य है मगर असंभव नहीं। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि मनोरोगी स्वयं को मानसिक रूप से रोगी होना आमतौर पर स्वीकार नहीं करता। इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा।