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बोर्ड परीक्षा का बुखार

इंडियन क्रिकेट लीग (आईसीएल) द्वारा प्रायोजित दूसरे दौर का ट्वेंटी-20 का आयोजन पंचकूला (हरियाणा) में फीका रहा। खबर मिली कि पहले कुछ दिनों में मात्र दो-चार सौ दर्शक ही जुट पाये थे। जबकि पिछले मैचों के अनुभवों को देखते हुए आयोजनकर्ताओं ने हजारों की क्षमता वाले स्टेडियम में बैठने की व्यवस्था को बढ़ाया था। देसी-विदेशी नामी खिलाड़ियों को मुट्ठीभर लोगों के सामने चौका-छक्का मारना, पता नहीं कैसा लग रहा होगा? नेहा धूपिया और उदिता गोस्वामी जैसी सेक्स सिंबल के आने के बावजूद मैदान में भीड़ न देखकर आईसीएल मैनेजमेंट के सदस्य किरण मोरे के पसीने छूटे थे। और फिर अध्यक्ष कपिल देव का वक्तव्य आया कि परीक्षाओं का मौसम होने के कारण ऐसा हो सकता है चूंकि क्रिकेट को देखने वाले अधिकांश युवा होते हैं। वैसे भी इस वक्त बोर्ड की परीक्षाएं चल रही हैं और इसीलिए शायद यह बहुत हद तक सच भी हो। आगे कपिल देव ने यह कहकर, बच्चों को क्रिकेट से पहले पढ़ाई की ओर ध्यान देना चाहिए, अपना बड़प्पन बरकरार रखने की कोशिश जरूर की, मगर फिर मुझको यह सोचकर हंसी आयी कि करोड़ों रुपए दांव पर लगाकर इतना बड़ा आयोजन करने वालों को क्या इस बात का पहले से अनुमान नहीं था या फिर वो किसी दूसरी दुनिया में जी रहे हैं या उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि क्रिकेट के सामने हिन्दुस्तान में सब कुछ बेकार है।

बोर्ड की परीक्षाएं अर्थात आठवीं, दसवीं और बारहवीं कक्षाओं की परीक्षा। इसमें दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएं तो अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। किसी जमाने में दसवीं पास अर्थात मैट्रिक की परीक्षा के अंकों पर नौकरियां तक लग जाया करती थीं और गांवों-कस्बों में मैट्रिक पास को अचरजभरी निगाहों से देखा जाता था। आस-पड़ोस में विशिष्ट इज्जत मिलना शुरू हो जाती थी। लोग मैट्रिक पास होने का उदाहरण दिया करते थे। आज जमाना बहुत आगे बढ़ चुका है और इस तरह की दसवीं पास वाली कोई भी व्यवस्थाएं नहीं हैं। परंतु दसवीं बोर्ड की परीक्षाओं का महत्व आज भी कम नहीं हुआ। और दसवीं पढ़ रहे बच्चों के घरों में इसको आसानी से देखा जा सकता है। पेपर वाले दिन समाचारपत्रों में पढ़ा जा सकता है। आधुनिक युग के प्रारंभ में बारहवीं की परीक्षाओं का भी अपना महत्व था। इन नंबरों के ऊपर छात्रों के आगे के पढ़ने के रास्ते चुने जाते थे। इंजीनियर-डाक्टर बनना तय होता था। अच्छे कालेजों में दाखिला मिलता था। अत्यंत महत्वपूर्ण थे ये एग्जाम। समय के साथ-साथ प्रतिस्पर्द्धा के बढ़ते ही धीरे-धीरे तमाम अच्छी संस्थाओं ने अपने कालेज में दाखिलों के लिए अलग से परीक्षाओं का इंतजाम कर लिया और बारहवीं बोर्ड की परीक्षाओं की व्यावहारिक उपयोगिता नगण्य-सी हो गई। इसके बावजूद आज भी इसका सामाजिक, भावनात्मक और प्रतिकात्मक महत्व खत्म नहीं हुआ। छात्रों में उत्पन्न होने वाली अतिरिक्त तरंगों का उठना आज भी कम नहीं हुआ। अभिभावकों के उत्साह, छात्रों में होने वाले तनाव और अध्यापकों द्वारा दिए जाने वाले महत्व को देखना है तो किसी भी परीक्षा केंद्र के बाहर जाकर खड़े हो जायें, एक अलग ही नजारा देखने को मिलेगा।

बड़ी बेटी इस वर्ष बारहवीं की परीक्षा दे रही है। साल के प्रारंभ से ही अन्य अभिभावकों की तरह हमारे घर में भी कर्फ्यू का आदेश पारित कर दिया गया था। कई महीनों से टेलीविजन धूल खा रहे हैं। जहां मेहमानों का आना धीरे-धीरे कम कर दिया गया है वहीं हमारा कहीं बाहर जाना बंद-सा हो गया है। कोई मेहमान जबरदस्ती आ जाये तो बच्चों को अंदर के कमरे में भेजकर उस अनचाहे मेहमान को पहले ही अगाह कर दिया जाता है कि धीरे से बात कर वो जल्दी से निकल जाएं। बच्चों को निरंतर कमरे में पढ़ते रहने की हिदायत दे दी जाती है। अधिकांश घरों में बच्चों से अधिक मां-बाप चिंतित दिखाई देते हैं। और हर समय हरेक के साथ इसी विषय पर चर्चा करते हुए देखे जा सकते हैं। यह व्यवस्था तकरीबन हर दूसरे घर में सुनाई और दिखाई देती है। यह रोग की भांति संक्रामक बीमारी की तरह समाज में चारों ओर फैल चुका है। पूर्व में ऐसा नहीं था। चीजें इतनी जटिल हो चुकी हैं कि छोटी बेटी ने अभी इस वर्ष दसवीं में प्रवेश ही किया है और आगे के तीन साल के लिए उसके दिलोदिमाग पर एक भूत-सा डर और विशाल बोझ डाल दिया गया है। और अगर कहीं मां-बाप अधिक समझदार या बेपरवाह हों तो बचा-खुचा काम पड़ोसी और साथ के बच्चे कर देते हैं, नहीं तो फिर स्कूल वाले पहले ही दिन से बच्चों के मन में बोर्ड का हौवा डालने में पीछे नहीं रहते। और फिर रही-सही कसर बाजार में खुली हुई कोचिंग की दुकानें पूरी कर देती हैं जो फिर विज्ञापन और सामाजिक चर्चाओं के द्वारा विभिन्न हथकंडों को अपनाकर अधिक से अधिक भीड़ जुटाने की चक्कर में लग जाती हैं। अंत में बच्चा छटपटा के रह जाता है। उसे पता है कि बोर्ड के अलावा भी विभिन्न कालेजों में प्रवेश हेतु अलग से परीक्षाएं देनी हैं। और फिर बोर्ड और प्रवेश परीक्षाओं में बंटकर उसकी हालत अधमरी हो जाती है।

वैसे इस तरह की परीक्षाओं का असल नाटक देखना हो तो परीक्षा केंद्र पर सुबह-सुबह पहुंचे। हर बच्चे के साथ अभिभावक और मोबाइल पर नाते-रिश्तेदारों के ‘ऑल द बेस्ट’ के फोन काल गेट में घुसते-घुसते तक आते हैं। किताबों और कागजों के टुकड़ों पर उलझते हुए छात्रों को आम देखा जा सकता है। और अंत में स्कूल के अध्यापक और प्राध्यापक अपने-अपने बच्चों का उत्साह बढ़ाने के लिए कई जगह पर मिठाई के डिब्बे तो कहीं लौंग-इलायची लेकर खड़े हुए पाये जा सकते हैं। बच्चों के परीक्षा केंद्र में प्रवेश कर जाने के बावजूद भी अभिभावकों को वहीं पर खड़ा हुआ देखा जा सकता है। और बहुत देर तक गरमागरम बहस सुनने को मिल सकती है। कुछ एक मां-बाप का बस चले तो वे अंदर घुसकर खुद परीक्षा दे आएं। कुछ तो वहीं बहुत देर तक इंतजार करते हुए पता नहीं किस चक्कर में खड़े रहते हैं। इतना तनावमुक्त माहौल शायद कहीं और न दिखाई दे। अधिकतर मां-बाप को इस व्यवस्था पर चिंता व्यक्त करते हुए देखा जा सकता है लेकिन हर एक उसमें कमी न करते हुए खुद उस होड़ में तेजी से जुटते हुए लग जाते हैं।

संयोग की बात है कि मैं और मेरी धर्मपत्नी दोनों ही अपने-अपने बोर्ड के अपने-अपने राज्य में मैरिट के छात्र रह चुके हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि मेरे माता-पिता में से किसी ने भी परीक्षा केंद्र की शक्ल भी देखी हो। न ही इतना अधिक तनाव भरा माहौल हुआ करता था। यह अधिक पुरानी बात नहीं है, मात्र करीब पच्चीस वर्ष हुए होंगे। हां, घर से निकलते वक्त दही-शक्कर मां ने जरूर खिलाया था। आज मेरे दोनों बच्चे भाग्य की इस ऊंचाई तक पहुंच पाते हैं या नहीं, पता नहीं। लेकिन मुझे उम्मीद जरूर रहती है। और दूसरों को बड़ी-बड़ी बातें और शिक्षा देने में तत्पर मेरी लेखनी के बावजूद, मेरे अंदर छुपा एक बाप का अहंकार और चाहत इस बात को जगाने की कोशिश में लगा रहता है कि बच्चे कोई बहुत बड़ा तीर मारें। असीमित अपेक्षाओं के इस मायाजाल से, बहुत कोशिश करने के बावजूद मैं स्वयं को इससे उबार न सका। दूसरों को शिक्षा देते हुए भी मैं स्वयं इस क्षेत्र में कोशिश करते हुए हार चुका हूं। जबकि मैं जानता हूं कि प्रतिस्पर्द्धा एक सीमा तक ही ठीक है और अंत में इससे बहुत कुछ हासिल कभी नहीं होता। चूंकि जीवन के पैमाने में यह अंतिम मोड़ नहीं है। मुझसे बोर्ड की परीक्षा में कई अंक पीछे रहने वाले कई छात्र जीवन और व्यवसाय में बहुत अच्छा और मुझसे बेहतर कर रहे हैं। मुझसे कहीं अधिक सुखी और सफल हैं। क्या मैं उम्मीद कर सकता हूं कि इन सब चीजों को जानने और समझने के बाद, मुझमें थोड़ी-सी अक्ल आयेगी और बड़ी वाली बेटी को दिया गया मानसिक दबाव, छोटी वाली पर लागू नहीं होगा?