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सत्य के आगे शून्य है
भारतीय भाषा परिषद कोलकाता की प्रतिष्ठित मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘वागर्थ’ के मार्च अंक में आज के चर्चित शायर निदा फाजली द्वारा कवि मित्र ओम प्रभाकर के नाम लिखे खत छपे हैं। इसमें लिखी कुछ पंक्तियों ने मुझे सोचने के लिए मजबूर किया था। उन्हीं में से कुछ एक उदाहरण के रूप में यहां दे रहा हूं। …मेरा हाल अच्छा है, कोई खास बात नहीं हुई। वही रफ्तार बेढ़ंगी जो पहले थी वही अब है। …कोई चीज भी तो पहली-सी नहीं। कहीं जाओ दो-तीन दिन के बाद मन जैसे ऊब जाता है। शायद सब के साथ ऐसा होता हो। विश्वास करो अब जीवन बहुत बोर लगने लगा है, क्या इसी के लिए सब झंझटे हैं- भाषा, धर्म, सीमाएं, देश। …मैं मुंबई के एक शानदार इलाके में दो घंटे से बोर हो रहा हूं। समय बिता रहा हूं। तुम भी क्या भिन्ड में इतने ही कुंठित अनुभव करते हो और..? …मैं जैसा भी हूं, हूं बहरहाल जिंदा हूं। …ओम सच पूछे तो सबसे जी भर गया। मैं बम्बई से ऊब गया हूं, मैं ही क्यों सब ही अपनी बस्तियों से ऊब गए हैं। मैं बुरी तरह अकेला हूं… आदि।
तकरीबन हर एक पत्र में उनके नवीनतम शे’र और गीत हैं। कई तो दिल को छू लेते हैं। उदाहरणार्थ एक यहां पेश कर रहा हूं- पहले तो हर इस बात पे भर आती थीं आंखें/अब भी वही आलम है मगर हंसने लगा हूं।
उपरोक्त पत्र साठ के दशक के हैं। शायद इस समय निदा फाजली ने सफलता का स्वाद चखना प्रारंभ ही किया होगा। इसी कारण कुछ लोग इसे संघर्ष के दौरान उपजी हताशा मान सकते हैं। इसे शादी से पूर्व का अकेलापन भी कहा जा सकता है। आज हो सकता है परिवार में व्यस्त और समारोह व्यक्ति बन जाने से निदा फाजली में अब वो ऊब व अकेलापन न रहा हो। इस पर कुछ भी दावे से कहना बड़ा मुश्किल है। मगर ऐसे हालात अमूमन हर दूसरे कलाकार, वैज्ञानिक और दार्शनिक के हो जाते हैं। ठीक भी है। एक तरफ कुछ नये करने की दीवानगी और दूसरी ओर वही सामान्य जीवन की निरंतरता व बोझिलता से उपजी बेचैनी न हो तो सृजन नहीं हो सकता। जो अपने अंदर दर्द को सहेजकर रखते-पालते हैं, उसी दर्द से रचना में निखार आता है। बहरहाल, आज सृजन के क्षेत्र में भी जीवन की कशिश बाजार की आवाज में दब गई है और कला व्यवसाय बन गया है। मगर फिर वो चीज भी तो पैदा नहीं हो पा रही जिसे महीनों-सालों देखा-सुना जाए।
उपरोक्त तरह की व्यक्तिगत भावनाएं व अपरिभाषित मानसिक अवस्था कल्पनाशील लोगों में प्रायः देखी जाती है। कला, विज्ञान, दर्शन, धर्म, शास्त्र किसी भी क्षेत्र के साधक को एक स्तर के बाद, जीवन की सत्यता जानते ही सब नीरस लगने लगता है। फाजली साहब के मन के भीतर की इस अवस्था को प्रारंभिक बिंदु कह सकते हैं। उसके आगे चले जाएं तो फिर सब शून्य। जैसे पृथ्वी के ऊपर एक सीमा तक ही वायुमंडल फिर धीरे-धीरे सब खत्म और अंत में शून्य। वैसे तो अनंत तक आकाश है मगर फिर वो भी तो अंत में अपरिभाषित रह जाता है। और फिर अति के आगे शून्य। अनंत के आगे अस्तित्वहीनता। यहीं पर आकर ठहराव महसूस होता है। इस ऊंचाई तक पहुंचना मुश्किल है, ईश्वर निर्मित माया-मोह पैरों में लटक जाते हैं। ऊपर बढ़ने ही नहीं देते, मगर जो चला गया तो फिर वहां सब भिन्न है। यहां प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते, प्रश्न स्वयं ही गौण हो जाते हैं। निरर्थक लगने लगते हैं। उत्तर का औचित्य ही नहीं रह जाता। आवश्यकता नहीं रहती। और यहीं से शुरू होता है शून्यवाद।
हमारे जीवन में समाज और समाज में हमारा जीवन मूल्य को एक स्तर तक समझने पर बहुत अच्छा लगता है। अमूमन इसे ही ज्ञान की प्राप्ति कहा जाता है। कई बार लगता है ज्ञान गलत परिभाषित होता है। असल में प्रकृति की गूढ़ व्यवस्था को जानना समझना ही हमारे ज्ञान की सीमा बन गई है। जबकि यह सूचना मात्र है। साथ ही समाज को अपने अनुरूप व्यवस्थित करने की चाहत अच्छे-बुरे की परिभाषाएं रचती हैं और फिर यही धर्म की उत्पत्ति में सहायक होती है। सामान्य जीवन में सत्य को परिभाषित किया जाता है। इस क्षेत्र के जानकार सफल व ज्ञानी कहलाते हैं। इन्हीं सब बातों को पाने व समझने की ललक जीवन, समाज, सभ्यता, संस्कृति को गतिमान बनाए रखती है। बस लोग आते-जाते रहते हैं। इन बातों से थोड़ा ऊपर उठते ही इसके आगे दर्शनशास्त्र का क्षेत्र आ जाता है। जीवन इसमें प्रवेश करते ही सामान्य नहीं रह जाता। अब तक जो स्पष्ट दिखाई देता या प्रतीत होता था, अस्पष्ट होने लगता है। जीवन की सार्थकता भ्रमित व उद्देश्यहीनता का प्रारंभ यहीं से होता है। तभी दर्शन में डूबे आधे-अधूरे इंसान कुछ-कुछ पागल नजर आते हैं। सामाजिक जीवन की व्यावहारिकता महत्वपूर्ण नहीं रह जाती। दाढ़ी काटने का कोई कारण नहीं होता और समय पर नहीं काटते ही वो बढ़ जाती है। बाल बनाने की कोई वजह नहीं इसलिए वो बिखर जाते हैं। पैसा, पद, पॉवर, लोकप्रियता पीछे छूटने लगती है। भूख नैसर्गिक है इसलिए खाने-पीने को मिल जाए, बस, और आदमी अपने में खोया रहने लगता है। यह अलग दुनिया है। प्रेमी भी प्रेम में डूबकर यहीं विचरण करते हैं। सृजन करते-करते कलाकार इसी लोक में आ जाते हैं। फिर चाहे वो कवि हो कहानीकार या फिर उपन्यासकार। एक सीमा तक ही इस क्षेत्र में भी सफलता-लोकप्रियता का जंजाल अच्छा लगता है। मगर इसके ऊपर जाते ही चारों ओर वीरानगी नजर आती है।
चित्रकार हो, संगीतकार हो, धर्मगुरु, वैज्ञानिक या फिर भक्त व प्रेमी। रास्ता कोई भी हो, इसमें डूब जाने वालों को एक स्तर के बाद दर्शनशास्त्र पर पहुंचना होता है और मुसाफिर दार्शनिक हो जाता है। यहां का असली सफर शौहरत और सफलता के पड़ाव के बाद से शुरू होता है। यहां मनुष्य के मन में विरक्ति आने लगती है। जीवन निरर्थक लगता है। कुछ भी सत्य नहीं जान पड़ता है। तभी समाज के तथाकथित सफलतम लोगों में से कइयों को कुछ स्तर के बाद चित्रकारी, कला और साहित्य के दर्शन में डूबा हुआ पाया जाता है। जो उस ओर नहीं जाते वो बाजार में बिकने और खरीदे जाने में ही व्यस्त रहते हैं। अन्यथा बाकी सभी बैक टू नेचर। वापस प्रकृति की ओर। जहां सब कुछ नश्वर है। सीधे शब्दों में कुछ भी सदा के लिए नहीं। कोई भी सत्य स्थायी नहीं। यह कथन कितना भ्रम पैदा करता है। अपने अर्थ को ही काटता प्रतीत होता है। नाते-रिश्ते दुनिया बेगानी लगती है। मन नहीं करता। लगता है सब बंधन छोड़कर कहीं भाग जाएं। मुक्त हो जाएं। स्वतंत्र हो जाएं। दुनियादारी के कीटाणु वापस परिवार और समाज में आदमी को खींचते हैं। इस मुक्त होने और बंधन में बंधने की प्रक्रिया के बीच के कशमकश में ही आदमी का जीवन समाप्त हो जाता है। हां, कुछ एक दार्शनिक, वैज्ञानिक, धर्मगुरु, कलाकार इसी दौरान समाज से पलायन भी कर जाते है। और जो नहीं भाग पाते कहीं न कहीं समाज और समय से कटे हुए प्रतीत होते हैं। वे घर-परिवार ही नहीं अपने भीतर भी भटकते रहते हैं। जब कुछ भी, कहीं नहीं मिलता, तन संतुष्ट नहीं, मन रमता नहीं तो भटकाव और तीव्र हो जाता है। इसके आगे भी कुछ है? के उत्तर की तलाश में वहां पहुंच जाते हैं, जहां कुछ भी नहीं। सब कुछ शून्य। अस्तित्वहीनता का अहसास होने लगता है। यह दीगर बात है कि फिर वहां ऊब नहीं, अकेलापन नहीं, भ्रम नहीं। उस शून्य में शामिल होते ही एक संपूर्ण शांति। शून्य की शांति। जब कुछ भी नहीं तो मानव निर्मित शब्द, समाज, संवेदना और स्वरूप का कहां अस्तित्व रह जाता है। वहां मानवीय प्रवृत्ति कैसे बची रह सकती है। असल में शून्य में सत्य-असत्य, अच्छे-बुरे का अस्तित्व ही नहीं।
कुछ भी न होने का अहसास, जब पक्का यकीन में परिवर्तित हो जाता है तो आदमी स्वयं को भी अस्तित्वहीन समझने लगता है। वहां से प्रारंभ होती है एक नयी राह जिसे व्यक्त नहीं सिर्फ अहसास किया जा सकता है। इसे मोक्ष कहें, वैराग्य कहें या संन्यास या फिर कुछ न परिभाषित करें तो बेहतर होगा।
दुनिया बनाने वाले ने बड़ी चतुराई से काम किया। सभी को दर्शन के क्षेत्र से होते हुए शून्य में ले जाता तो उसकी बनाई सृष्टि का अंत हो जाता। और तभी कर्म का प्रयोजन हुआ। हां, हिन्दुस्तान के जीवनदर्शन में ऐसे वैराग्य का कुछ अंश प्रारंभ से है। जब एक गरीब भिखारी राजा के बुलाने पर भी नहीं जाता और अपने में मस्त रहता है तो उससे पूछा जाता है। वो बड़े आराम से कहता है कि राजा के मिलने से अंत में जिस सुख-शांति-समृद्धि की प्राप्ति होगी वो मुझे अभी यहां लेटे रहने में भी मिल रही है। संतोष, भारतीय दृष्टिकोण रहा है और आनंद की अनुभूति मानसिक अवस्था। मगर आज इस देश को भी बाजार की चकाचौंध ने घेर लिया है। इसमें और अधिक की चाहत और संघर्ष ही जीवन का उद्देश्य और मंजिल बना दिया गया। अंत में कुछ हासिल नहीं होता तो परेशानी बढ़ती है, मन भटकता है। ऊब व घबराहट का जन्म होता है। अकेलापन काटता है। कुछ भी न मिलने पर हताशा बढ़ती है। और अंत में वो फिर धर्म के पास शरण लेता है। यहां भी हाथ कुछ नहीं लगता, मगर तब तक जीवन कट जाता है। लेकिन फिर आखिर में जब वो मृत्यु के नजदीक पहुंचता है तो सब कुछ खत्म होने का अहसास उसे तंग करता है। और वो परेशान हो उठता है। और एक दिन अचानक वो एक अंधेरी सुरंग में धकेल दिया जाता है। यह खत्म होना और कुछ नहीं, अस्तित्वहीन होने के समान है। सब कुछ शून्य में मिल कर शून्य हो जाता है। जीवन अगर सत्य है तो मृत्यु उसे असत्य प्रमाणित करने की प्रक्रिया का प्रारंभिक बिंदु है। जिसके आगे सब कुछ अकल्पनीय है, अवास्तविक, अपरिभाषित। क्या मायाजाल है, शून्य से प्रारंभ हुआ जीवन शून्य में मिल जाता है।
आज निदा फाजली भी शायद उतने अकेले नहीं होंगे। सफलता और लोकप्रियता शायद उनके जीवन में प्रवेश कर गई होगी। ठीक है, यह जीवन का उत्सव है। मगर फिर वो ऊब-अकेलापन, जिसके आगे शून्य का स्वाद है, से भी वह वंचित होंगे।