My Blog

Articles, Personal Diaries and More

रिमझिम गिरे सावन

मेघालय अर्थात बादलों का घर जमीन पर। विगत वर्ष शिलांग गया था तो वहां का अदभुत दृश्य देखकर राज्य का नाम सार्थक लगा। कालिदास की अद्भुत कृति मेघदूत से इसका संबंध है या नहीं, लगता नहीं, मगर शब्दार्थ में संदर्भित जरूर है। तभी तो शिलांग से चेरापूंजी जाते हुए, रास्तेभर बादलों के बीच में से निकलने पर, चारों ओर बिखरे दृश्य का वर्णन शब्दों में संभव नहीं, इसके लिए कालिदास की कल्पनाओं में जाना होगा। लगता है कि मानो आप बादलों के साथ रह रहे हैं। बरसात में उन दृश्यों की याद आते ही मैं तो मात्र एक लेख लिखने के लिए प्रेरित हुआ मगर कालिदास ने तो मेघ को विरही यक्ष का संदेशवाहक दूत बना डाला और मेघदूत की रचना करके अमर हो गए। अब यह कालिदास का जीवन अनुभव था या शापग्रस्त यक्ष की बेचैनी जो वह बादलों को देखकर प्रियतम की याद में व्याकुल हो उठे। बहरहाल, महाकवि के अलौकिक स्वप्न संसार से उपजा श्रृंगार रस भारतीय जनमानस में आज भी निरंतर बहकर हमें कामोत्तेजित करता रहता है। और यही कारण है कि हमारी संस्कृति में बादल सिर्फ आकाश में नहीं रहते, यह वेद-पुराण व मंत्रों में उच्चारित होते हैं, प्राचीन प्राकृत और पाली की गाथाओं से लेकर संस्कृत में छंदों तक, अपभ्रंश के आख्यानों से लेकर आंचलिक बोली, लोककथाओं से होते हुए ग्रामीण जीवन की संस्कृति तक में उपस्थित हैं।

पहाड़ों पर बरसात का मौसम अति मनोहारी और श्रृंगारिक होता है। बादलों का पहाड़ों से अठखेलियां करना किसी ऐसे चित्रकार की कल्पना का रचना संसार हो सकता है जो मिनट-मिनट में अपना कैनवस बदलकर उसमें नये-नये रंग भरता है। यह कहावत बिल्कुल सच है कि पहाड़ों पर रास्तों और बादलों का कोई भरोसा नहीं। कहीं से भी आकर कभी भी अचानक प्रकट हो सकते हैं। तीन वर्ष हिमाचल प्रदेश में रह चुका हूं और बरसात का सुंदर दृश्य पहाड़ों पर देख चुका हूं। मगर यहां रात की बरसात भयावह होती है। बादलों का फटना, पहाड़ों का धंसना, चट्टान खिसकना, तेज आवाज के साथ बिजली का गिरना मन में डर पैदा करता है। नीचे जमीन पर भी यह कभी-कभी कम कष्टदायक नहीं। बाढ़ आने पर सारा शहर तहस-नहस हो सकता है। सड़कों पर कीचड़ और गरीब की झोपड़ी में टपकता पानी दुःख देता है। दैनिक मजदूर को काम न मिले तो यही सावन पेट को काटने लगता है। मगर यह सब हमारी सामाजिक व्यवस्था की करतूतों का फल है। वरना प्राकृतिक रूप से वर्षा ऋतु का इश्क हरेक जीव-जंतु के रगों में ऐसा बहता है कि आदिकाल से अब तक पशु-पक्षी से लेकर मानव तक इस दौरान प्रेममय होते हैं। पुरातन काल से लेकर आधुनिक साहित्य तक में श्रृंगार रस सावन के पानी के साथ जमकर बरसता है।

चेरापूंजी में बहुत दिनों बाद भीगा था। यहां मिनटों में ही अचानक बरसात शुरू हो जाती है। और कुछ कदमों की दूरी में ही आदमी पूरा भीग जाता है। गीले कपड़ों में ही शिलांग वापस आया था। उम्र के साथ ही बरसात में भीगने से हम बचने लगते हैं। कई कारण हो जाते हैं। वरना बचपन में स्कूल से आते-जाते बरसात में भीगना अच्छा लगता था। यह दीगर बात है कि घर पर आकर डांट पड़ती थी। कॉपी के गीले हो जाने से कई बार लिखा हुआ धुल जाता और कक्षा में भी मास्टरजी की बात सुननी पड़ती। कभी-कभी हल्का-फुल्का सर्दी-जुकाम भी हो जाता। इन सबके बावजूद बरसात में भीगने का कोई भी मौका मैं नहीं छोड़ता था। इससे बचने के लिए रेनकोट दिया गया था, इसे पहनकर साइकिल चलाने में मजा आता और पानी की फुहारे जब चेहरे पर पड़ती तो मन मदमस्त हो जाता। हां, जूते खराब होने पर डांट ज्यादा पड़ती थी। चमड़े के जूते महंगे जो होते हैं। बचपन में इसकी चिंता हम क्यूं करे, तभी तो इन्हीं जूतों के साथ स्कूल के ग्राउंड में लंच ब्रेक में फुटबाल खेलने का मजा ही कुछ और होता। कुछ दशक पूर्व तक हर बच्चे का, शाम को बाहर जाकर खेलने का समय सुनिश्चित था। फिर चाहे ग्राउंड में पानी भरा हुआ हो या कीचड़, जमकर फुटबाल खेली जाती। फिसलकर कई बार गिरते और मिनटों में ही खड़े भी हो जाया करते थे। एक और खेल खेला जाता था जिसमें लोहे की तकरीबन एक फुट लंबी छड़ को खड़े-खड़े गीली जमीन में फेंककर घुसाया जाता, फिर आगे बढ़कर उसे निकाला जाता और फिर थोड़ी दूर पर आगे उसे फेंककर जमीन में फिर घुसाया जाता। इस तरह से खेलने वाला उस लोहे की छड़ के साथ-साथ आगे बढ़ता जाता। जहां कहीं भी वह जमीन में छड़ को घुसा नहीं पाता वहीं पर वह हार जाता। इसमें खेलने वाले ने कितनी दूरी तय की है इस बात पर जीत सुनिश्चित होती। इसे एक तरह का देसी गोल्फ कहा जा सकता है। खेलने वाले को कच्ची मिट्टी वाले रास्ते का दिशा-ज्ञान होना चाहिए। इस खेल का क्या नाम था याद नहीं।

पता नहीं, आज का बालक इस तरह की नादानियां और साधारण खेल खेलता है या नहीं? शाम को घर से निकलता है भी या नहीं? क्योंकि अब उसके पास घर के अंदर ही कंप्यूटर पर खेलने वाले कई गेम उपलब्ध हैं। स्कूल से मां-बाप के साथ कार में आने-जाने वालों की संख्या बढ़ चुकी है। कस्बों तक में बसें चलनी लगी हैं। वैसे तो जनसंख्या का एक बहुत बड़ा अनुपात आज भी रिक्शे और साइकिल में आता-जाता है। मगर अत्यधिक (अनावश्यक) सतर्क मां-बाप बच्चे को हवा-पानी से बचाने की फिराक में रहते हैं। ऐसे में भीगने की संभावना कहां। और बच्चे प्रकृति के इस अनमोल अनुभव से वंचित रहने लगे हैं। हां, कॉलेज में इस तरह से भीगने का मजा ही कुछ और है। जवानी में बरसात बहुत आकर्षित करती है। यही कारण है बरसात में बॉलीवुड का रोमांस एक लोकप्रिय चलन है। इसके लिए फिर चाहे नकली बरसात ही क्यों न करनी पड़े। लड़कियां भीगने में लड़कों से अधिक आनंद लेती हैं। यह सत्य हो न हो मगर हिरोइन का बरसात में भीगना ग्लैमर को प्रदर्शित करने का सबसे बेहतरीन माध्यम माना जाता रहा है। रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म की नायिका पर फिल्माया गया वो दृश्य, जिसमें जीनत अमान बरसात में भीगते हुए अपने नायक को कहती है कि ‘तेरी दो टकियां दी नौकरी मेरा लाखों का सावन जाए’, इस एक पंक्ति से ही बॉलीवुड के रोमांटिक मूड का पता लग जाता है। तभी तो मधुबाला से लेकर साधना, नरगिस, मुमताज, रेखा, हेमा ही नहीं माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी और काजोल भी बरसात में खूब भीग चुकी हैं। नायक इस मामले में पीछे रह गए। आधुनिक युग में स्वीमिंग पुल व समुद्र में नहाते हुए दृश्य को अधिक सेक्सी जरूर माना जाने लगा है मगर जो श्रृंगार रस बरसात के भीगे कपड़ों में से टपकता है वो स्वीमिंग सूट की नग्नता में नहीं, जहां छिपाने के लिए कुछ भी नहीं रह जाता।

उम्र के बढ़ने के साथ जिम्मेदारी और जवाबदारी के चलते बरसात में भीगना कम हो जाता है। और फिर यह सब अचेतन मन में धीरे-धीरे कब हमें प्रकृति के इस बेहतरनी मौसम से दूर कर देते हैं पता ही नहीं चलता। और अब तो सस्ती मोटरकार ने कइयों को पानी की बौछारों से दूर कर दिया। यही आधुनिक मनुष्य अब छोटे से बाथरूम में फव्वारा लगाकर बरसात में भीगने का मजा लेता है।

इस वर्ष बरसात की कमी से कई स्थानों पर सूखे की स्थिति आ गई। कई जगह बादल आते और बिना बरसे चले जाते। कई तालाब और बांध सूखने के कगार पर पहुंच गए। अंत में हरेक ने किसान की तरह आकाश की ओर देखकर मन ही मन कहना शुरू कर दिया था ÷हे मेघ बरसो’। ऐसी ही प्रार्थना विगत सप्ताह प्रातःकाल घूमते हुए मैंने भी की। इंद्रदेव तुरंत प्रसन्न हुए थे। मैं आकाश की ओर अभी देख ही रहा था कि तभी अचानक तेज बरसात शुरू हो गई। आमतौर पर बरसात में सैर पर जाने से मैं बचता था मगर उस दिन घर से दूर निकल चुका था और वापस पहुंचते-पहुंचते पूरी तरह से भीग चुका था। पहले तो विचार आया कि घर जल्दी से पहुंच जाऊं लेकिन फिर मजा आने लगा और मैं बहुत देर तक बरसात में घूमता रहा। जिस आनंद की अनुभूति मुझे हुई उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। जेब में पर्स-मोबाइल नहीं, महंगा कपड़ा नहीं, इसीलिए गीले हो जाने की चिंता से मुक्त था और वर्षों से सूखा मन धीरे-धीरे भीग रहा था। इस दौरान चुपके से बचपन कब लौट आया, पता ही नहीं चला। उस दिन कॉलोनी में कई लोगों ने अपने-अपने घर से झांक कर इस दृश्य को देखा और फिर मुझे बधाई दी। उस दिन के बाद से सुबह बरसात होने पर भी नियमित सैर के लिए बिना छाता निकल जाया करता हूं। तेज पानी की बूंदों का शरीर पर आघात-प्रतिघात, कई बार यूं लगता है कि मानो धमनियों में संगीत पैदा हो रहा है। मन बौछारों के साथ अठखेलियां खेलता है। हां, घर लौटकर थोड़ी बहुत डांट आज भी पड़ जाती है कि कहीं बीमार पड़ गए तो। लेकिन फिर इस डांट के पीछे छुपे हुए प्यार को महसूस कर सकता हूं। इसका भी तो एक अलग मजा है। आप इससे महरूम क्यों रहते हैं? कम से कम इस बरसात के मौसम में एक बार जरूर नहाएं और जीवन को एक बार फिर उसी तरीके से प्रफुल्लित कर लें जिस तरह से बरसात के बाद पूरी सृष्टि खिल उठती है। यकीन मानिये आपका बचपन लौट आएगा। मन करेगा कि कागज की नाव बनाई जाए और बहते हुए पानी में उसे तैरने के लिए छोड़ दिया जाए। और अगर यह नहीं कर सकते तो कम से कम छाते में ही अपने जीवनसाथी के साथ घूमने निकल जाएं। ‘रिमझिम गिरे सावन, सुलग-सुलग जाए मन’ के भावार्थ का अहसास होगा। शर्त है कि छाता एक ही होना चाहिए।