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जो फिट है वो हिट है
उम्र को चालीस पार किए अभी तीन-चार साल ही हुए हैं, मगर बचपन के हमउम्र सहपाठियों में से एक भगवान को प्यारा और दो यमराज के हाथों पकड़े जाने से किसी तरह बचे हैं। दोनों की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी है। मरना तो एक दिन सभी को है लेकिन ये दोनों अपनी जिंदगी अब सहमी हुई-सी गुजारते प्रतीत होते हैं। बाकी दोस्तों के हालात भी कोई बहुत अच्छे नहीं, हार्ट अटैक तो कइयों को आ चुका है। पच्चीस एक को शूगर और पच्चीस प्रतिशत हाई ब्लडप्रेशर या हाइपर टेंशन के शिकार हैं। पचास प्रतिशत को आंखों में चश्मा लग चुका है। मोटापा, कमजोरी, नींद न आना हम सब में आम बात है। कुछ एक को ऐसी कई नई बीमारियां हैं जिनका नाम न तो समझ आता है न ही उच्चारण करना आसान है। डॉक्टर से मिले बिना लोगों का हफ्ता नहीं गुजरता और दवाई बिना एक दिन नहीं चल पाता। बुढ़ापे से पहले प्रौढ़ अवस्था में इतनी बीमारियों का आगमन, सोचने पर मजबूर करता है। यह वसंत में पतझड़ आने के समान है। विज्ञान की लाठी के सहारे हमने जीवन की राहें तो लंबी कर लीं लेकिन एक बूढ़े के समान हांफ्ते-हांफ्ते से सफर तय करते हुए दिखाई देते हैं।
उपरोक्त बीमार दोस्तों में अधिकांश सफल और उच्च पदस्थ हैं। वो भी प्राइवेट व कार्पोरेट सेक्टर में। इन्होंने अब तक शरीर को भट्ठी में झोंका हुआ था। रात-रात भर काम करना, दिनभर पानी की जगह चाय पीना और जरा जरा-सी टेंशन में सिगरेट फूंकना। देर शाम थकावट दूर करने के लिए शराब और गर्मी में बियर, साथ में मसालेदार चिकन व मटन-मच्छी। आजकल समुद्री फूड का प्रचलन भी स्टार होटलों में खूब प्रचलित है। और शाकाहारी दारूबाज हुआ तो दसियों किस्म के फ्राइड स्नेक्स, पकोड़े तथा पनीर की कमी नहीं। सितारा होटलों में बंद कांच की दीवारों में बहती एसी की हवा, कोल्ड-स्टोरेज व डिब्बे का खाना, साथ में बेयरा हिलने भी नहीं देता, बैठने और उठने के समय कुर्सी भी सरकाता है। बस मुंह चलाना है। कई बार चबाने की आवश्यकता भी नहीं। पानी भी मशीन का साफ किया हुआ। न जाने कितने उपयोगी विटामिन और गुणकारी खनिज तत्व भी खत्म हो जाते होंगे। प्रकृति से दूर, यह जीवन, कांच की बोतल में बंद एक तितली की तरह हो चुका है जिसे बचपन में हम लोग खेल-खेल में पकड़कर कैद कर लिया करते थे। तब भी बड़े-बुजुर्गों के कहने पर ढक्कन में छेद कर दिया जाता था और कहा जाता कि कहीं बिना हवा के यह मर न जाए। मगर अब खुद इंसान के लिए खुली हवा के महत्व को समझाने वाला कोई नहीं।
खाने में हरी सब्जियों का सवाल ही नहीं, फल-फूल खाने का स्वाद नहीं, जब सब कुछ बंद डिब्बों में जूस या तैयार माल के रूप में मिलता है, तो इधर-उधर हाथ-पांव क्यूं मारना। अच्छा है चबाना नहीं पड़ता। क्या करें दांत भी तो ठीक नहीं। बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी हर पॉकेट को सूट करने वाली गाड़ियों के होने से पैदल चलने का प्रश्न ही नहीं। ऐसे में शरीर कैसे ठीक रह सकता है? चालीस के बाद अब हर दोस्त ने यह कहना शुरू कर दिया है कि यार अब वैसा जोश नहीं रहा। उस तरह से काम नहीं होता। कैसे होगा, जब शरीर ही साथ नहीं दे रहा? कंपनी का मालिक, कार्पोरेट जगत का बॉस भी समझ जाता है कि इसका रस चूसा जा चुका है, इसलिए अब दूसरा मुर्गा पकड़ा जाए। यही कारण है जो कम उम्र के सीईओ व सीओओ और जीएम कंपनी में लगाए जाने लगे हैं। अब पचास के ऊपर के आदमी को रिजेक्टेड माल घोषित कर दिया जाता है। आज बाजार में ये बूढ़े कहलाते हैं।
अपवाद तो कहीं भी हो सकते हैं। बहरहाल, दोस्तों में अधिकांश सरकारी अधिकारियों का हाल तो और अधिक बुरा है। यहां काम तो कम है मगर खाना ज्यादा। ये तो खा कर डकार भी नहीं लेते। पेट बड़ा और दिल छोटा होता जाता है। आंतड़ियां और धमनियां इतना लोड ले नहीं पाती और ओवरलोड से फट जाती हैं।
उपरोक्त व्यवस्था व अवस्था के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। यह हमारी खुद की देन है। अधिकांश बीमारियों के मूल में हमारी आधुनिक जीवनशैली है। कोई और इसके लिए जवाबदार नहीं। हम पढ़े-लिखे मूर्ख हैं। सुबह से शाम तक, बचपन से जवानी तक हमें जितना अधिक पढ़ाया गया हम उतना ही अधिक प्रकृति से दूर होते चले गये। नासमझ अज्ञानी के गलती करने की बात एक बार समझ आती है, मगर ज्ञानी व समझदार द्वारा आत्महत्या करता देख, क्या कहा जाए? यह जानते हुए भी कि बाजार में उपलब्ध अधिकांश उपभोग की चीजें पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ने में लगी हैं, क्या किसी पढ़े-लिखे आदमी ने इस पर खुद की तरफ से कोई पहल की? कोई व्यक्तिगत त्याग किया? समझदारी दिखाई? वातानुकूलित घर, गाड़ी और ऑफिस में से किसी भी एक को प्रकृति के तापमान में रखकर खुद को गर्मी झेलने के लिए तैयार किया? उलटे पर्यावरण संबंधित मीटिंग भी वातानुकूलित हॉल में ही होती है। क्यूं नहीं जंगल, खेत, नदी, ग्लेशियर व पहाड़ के सेमिनार प्रकृति के बीच, मैदानों में जमीन पर बिठाकर किए जाते हैं? पेड़ की छांव में चबूतरे पर बैठकर अब गांव वाले भी सलाह-मशविरा नहीं करते। यहां क्या काम कम होता है? नहीं। यह हमारी सोच है। पढ़े-लिखे मूर्खों ने बोल-बोलकर पहले इस पारंपरिक व्यवस्था को पिछड़ा घोषित किया और फिर प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने पर उतारू दिखाई देते हैं। शरीर को आराम पसंद बनाया जाता है। यही आधुनिकता की पहचान बनकर उसे परिभाषित भी करता है। जरूरतें पैदा की जाती हैं, आदमी को कमजोर बनाया जाता है, चाहतों का गुलाम और फिर उसे पूरा करने में प्रकृति का दोहन। अंत में न तो प्रकृति बचती है न ही आदमी का शरीर। असल में बाजार ने सब कुछ बर्बाद कर दिया।
अपने चारों ओर नजर घुमाएं, हर जगह हा-हाकार मचा हुआ है। हर व्यक्ति सफलता पाने के लिए मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रहा है। सब कुछ भूलकर। सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों की तरह। पेट्रोल से शहरों में प्रदूषण की हालत देखने लायक है। उसी तरह से इन दूषित विचारों ने इंसानियत को नष्ट व मानसिकता को भ्रष्ट कर रखा है। क्या किसी पढे+-लिखे इनसान ने यह जानते हुए भी कि यह दौड़ किस कीमत पर हो रही है, अपनी महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाने की कोशिश की? ऐसी तेज रफ्तार का क्या फायदा कि गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त ही हो जाये और फिर मंजिल पर कभी न पहुंचे। जागरूक तो शायद हम हो रहे हैं लेकिन जीवन में अमल कितना करते हैं? बड़ी हास्यास्पद स्थिति है। जीवन में संतुलन नहीं। अधिक से अधिक अपेक्षाएं/चाहत और फिर उसकी पूर्ति के लिए संघर्ष। जीवन के मायने बदल गए। पहले प्रतिस्पर्द्धा में शरीर गलाओ फिर सफलता मिल जाए तो मस्ती में शरीर डुबाओ और हार गए तो गम में नशा कर जाओ। अर्थात तन-मन की एक साथ बर्बादी। महत्वाकांक्षा के नाम पर दौड़ने के लिए प्रेरित किया जाता है। हर तरफ इस तरह का वातावरण बना दिया गया है कि आदमी पैदा होते के साथ ही भागने लग पड़ता है और तभी रुकता है जब शरीर का कोई कलपुर्जा जवाब दे जाए। और जब वह रुक ही जाता है तो फिर उसे जीवनदर्शन और शांति का पाठ पढ़ाया जाता है। धर्म-दर्शन-योग शिक्षा की दुकानदारी भी खूब चल रही है। एक साथ कितने विरोधाभास हैं। मगर दोनों पक्ष फल-फूल रहे हैं।
मैंने पिछले साल से भीषण गर्मी के दौरान भी कार में एसी चलाना बंद कर रखा है। परिणामस्वरूप सड़क पर गर्मी से खूब पसीना निकलता है। लेकिन इसी बहाने शरीर के सारे छिद्र खुल जाते हैं। पसीने से बदबू जरूर आती है मगर हल्कापन लगने लगा है। शरीर के जोड़ पहले अकड़े-अकड़े से रहते थे अब खुले-खुले से लगते हैं। पहले सांस में घुटन महसूस होती थी मगर अब शुद्ध हवा से ताजगी महसूस होती है। रोज धूप सेंकने से शरीर में जान आई है। शरीर ने बेहतर कार्य करना प्रारंभ कर दिया और मैं क्रियाशील हो गया हूं। अब मुझे किसी सोनाबाथ या स्टीमबाथ में अतिरिक्त समय और पैसा नष्ट करने की आवश्यकता नहीं रही। ये सब भी तो सिर्फ पसीना निकालने के लिए ही है। प्रकृति से संतुलन बनाए रखने के लिए शरीर को पर्यावरण व वातावरण के साथ काम करने व लड़ने से ऊर्जा उत्पन्न होती है। और तन गतिशील बना रहता है। सकारात्मक सोच और भविष्य की चिंता छोड़ते ही जीवन में आनंद महसूस होने लगा। और फिर बाहरी मस्ती की आवश्यकता कम हुई। शरीर ऊर्जावान और बेहतर तो मन प्रसन्न, बदले में फिर और अधिक शरीर स्वस्थ। यह चक्र है, जिसका पहिया निरंतर घूमता रहता है।
असल में मनुष्य को स्वयं संतुलन बनाना है। जीवन जीने के लिए है, दौड़ने के लिए नहीं। और यही पाठ वो न तो पढ़ रहा है न ही उसे समझाया जा रहा है। उसे अक्सर यह समझने में देर हो जाती है कि जिसे पाने के लिए वो दौड़ रहा है वही उसके हाथ से पीछे छूट रहा है। दूसरे पर दोषारोपण से कोई फायदा नहीं। ऐसे पैसों का कोई काम नहीं जो अस्पताल के बिल भरने में काम आए। सिल्वर छोड़ गोल्डन कार्ड किस काम का अगर आप स्वादिष्ट छोड़ साधारण खाना भी न खा सकें। कपड़े कमजोर और बीमार शरीर पर अच्छे नहीं लगते। सफलता की कुर्सी पर बैठने का क्या फायदा कि उसका आनंद न ले सको। ऐसी लंबी जिंदगी का भी क्या औचित्य कि दिन-रात गोलियों की खुराक लेनी पड़े। और फिर वो बात भी नहीं रह जाती। फिर जब शरीर नहीं तो कुछ अच्छा नहीं लगता, ऊपर से प्रतिस्पर्द्धा से बाहर। आगे तक वही चलता है जिसे शरीर चलने की इजाजत देता है। वर्ना तो आज के युग में दो सेकेंड के लिए रोड पर रुकने वाले पर से भीड़ गुजर जाती है। असल में जीवन चलती का नाम गाड़ी है जहां वही हिट है जो फिट है।