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क्या कुछ बचा है बिकने के लिए?
टेलीविजन पर दिखाए गए माइकल जैक्सन की अंतिम विदाई के दृश्य किसी व्यवसायी की कलम से लिखे गए प्रतीत होते थे। इसे बाजार ने अपने हिसाब से अपने दर्शकों को परोसा था। तो फिर बीच-बीच में विज्ञापन का होना स्वाभाविक था। श्रद्धांजलि सभा का पूरा कार्यक्रम प्रायोजित-सा दिखाई देता था। इन सब के लिए पैसे का लेन-देन हुआ होगा। दिल से चाहने वाले परिवार के कुछ एक सदस्य, रिश्तेदार और समर्थकों की बात छोड़ दें, जो कि मिनट-मिनट में अपने उद्गार आंसू के माध्यम से प्रदर्शित करते थे, बाकी के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। यहां मन की भावनाएं नहीं दिमाग के स्क्रिप्ट का काम था। भला हो इस बाजार में बिकने वाले तरह-तरह के काले-काले बड़े-बड़े चश्मों का जो आंखों के साथ-साथ चेहरे के आधे हिस्से को भी ढक लेते हैं। इस तरह के कार्यक्रमों में सामने वाले को कुछ दिखेगा ही नहीं तो पढ़ेगा क्या और फिर समझना तो दूर की बात है। वैसे तो चश्मा पहनकर कतार में चल रही बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठना भी एक स्टाइल है। यह दृश्य बाजार में खूब बिकता है। फिर कारों का काफिला चाहे शादी का हो, जन्म का हो या मौत का, नेता का हो या अभिनेता का। माइकल जैक्सन के आखिरी जुलूस में भी कई गाड़ियां कतार में थीं। सभी गाड़ियां काली, सब के ड्रेस काले, चश्में काले, मानो बीसवीं शताब्दी की फिल्म में काले बाजार का कोई दृश्य हो। ऐसा नहीं कि मौत के उत्सव को बाजार में बेचे जाने की यह पहली घटना थी। जेड गुडी इसका ताजा उदाहरण बन चुकी हैं। कहते हैं कि माइकल जैक्सन ने अपने मौत के बाद के कार्यक्रम को एक विश्व उत्सव के रूप में मनाते हुए उसे यादगार लम्हा बनाने की इच्छा जाहिर की थी। अब इसमे कितना सच है कितना झूठ, आज के युग में कुछ भी कहना मुश्किल है। पता नहीं, हो सकता है इसके पीछे भी बाजार में बैठे किसी दुकानदार की गढ़ी हुई कहानी हो जिसे अपना माल बेचना हो।
हम वर्तमान को उत्तर आधुनिक काल कहते हैं। असल में इसे खरीदने-बेचने का युग कहना चाहिए। आज के राजा ज्यादा से ज्यादा माल बेचकर राजगद्दी प्राप्त करते हैं। भला हो एलेग्जेंडर का जिसने इस युग में जन्म नहीं लिया, नहीं तो बुरी तरह मार खाता। मरने के बाद उसके दोनों हाथ प्रजा को दिखाए जाने की कथा प्रचलित है, मकसद था इसे देखकर लोग समझ सके कि जाते समय एलेग्जेंडर के हाथ खाली थे। अब इस ऐतिहासिक किंवदंती को पढ़ाने वाले बुजुर्गों पर आज के युवा हंसेंगे। आज इस सत्य को जानते हुए भी कोई इसे मानने को तैयार नहीं। इसीलिए किसी की मौत को बेचने वाले लोग, किसी के जीते जी कितनी तबाही करते होंगे इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। अभी हाल ही में पढ़ा कि एक लोकप्रिय बॉलीवुड कलाकार ने उनके साथ भोजन करने में इच्छुक लोगों के लिए एक सुनिश्चित राशि तय की है। अर्थात भोजन के समय को भी बेच दिया गया है। जीवन के इन महत्वपूर्ण पलों के साथ ऐसा मजाक! शयनकक्ष में नर-नारी के बीच के बेहद व्यक्तिगत लम्हों को बाजार में बेचने की प्रथा तो अब पुरानी हो चली है। उलटे नये-नये संबंधों को सिर्फ इसलिए बनाया जाता है कि आपकी कहानी बिके। आश्चर्य तो मुझे तब हुआ था जब हॉलीवुड के एक चर्चित दंपति ने अपने बच्चे की प्रथम सार्वजनिक फोटो को भी बेचा था। खुद को बेचना तो अब आम बात है। एक को खरीदने का इश्तहार दो, गांव-गांव गली-गली सैकड़ों आवेदन मिल जाएंगे। फिर इनसे आप चाहे जो करवा लें। कपड़े उतारना तो अब हर स्त्री-पुरुष का जन्मसिद्ध अधिकार हो चला है। पता नहीं एक अर्द्धनग्न औरत या आदमी को देखकर सामान्य दर्शक क्या सोचता होगा? क्या उसे अपने शरीर को देखकर हीन भावना होती होगी या फिर कहीं-कहीं अपने बेहतर अंग को देखकर गर्व का अहसास होता होगा? इतना कौन सोचता है। शरीर दिखाने वाली सारी स्वर्ग की परी हो या लड़के हॉलीवुड का अर्नाल्ड लगते हों ऐसा भी नहीं है। आपका माल अच्छा है या नहीं, इसका बिकने से कोई ताल्लुक नहीं। यहां तो मिट्टी भी बेची जा सकती है। धन्य हो आधुनिक बाजार का, यहां कौड़ियों का माल करोड़ों में बेचा जा सकता है। सुरीली आवाज बिकती थी, ठीक है, मगर अब शोर भी बिकता है। सुंदरता और कला बिकती थी, क्या करें, मगर अब फूहड़ता, नग्नता, बदतमीजी, बेशर्मी, बदनामी, गुंडागर्दी सब बिकती है। एक तथाकथित अभिनेत्री, जिनके लिए सुंदरता व सौम्यता की नई परिभाषा गढ़नी होगी, अपने शादी के स्वयंवर को सरेआम बेच रही हैं। अगर जनता हंस भी रही है तो क्या मुश्किल है, हम बिक तो रहे हैं। कुछ मूर्ख तो हैं ही हर मूर्खता देखने के लिए।
आज के युग में इस बिकने की महिमा अपरम्पार है। खरीदने वाले, बेचने वाले और देखने वाले में से किसी भी एक को दोष देना यहां ठीक नहीं। यह बाजार का मायाजाल है जो सिर चढ़कर बोल रहा है। पहले किसी जमाने में ताना मारा जाता था कि क्या तू अपने मां-बाप को बेच देगा? अब इन प्रश्नों का कोई महत्व नहीं रह गया है। आज मां-बाप स्वयं अपने बच्चों को बेचने में लगे हुए हैं। बच्चों की मासूमियत व बालपन धड़ल्ले से बिक रहा है। अब ऐसा कौन-सा रिश्ता है जो बिकता नहीं। सरकारी अफसर के बिकने की बात करना समय व्यर्थ करना है, यहां न बिकने वाले को अधिक मुश्किल का सामना करना पड़ता है। पहले दूल्हा बिकता था। उधर, औरतों के बिकने की प्रथा तो मनुष्य ने अपनी सहूलियत के लिए आदिकाल से कर रखी है। हुआ यूं कि अब मुहब्बत बिकने लगी है। भावनाएं, विचार, शब्द, क्या नहीं बिकता? लेखक, संपादक, पत्रकार, कवि, शायर सब बिकते हैं। और मजे की बात है कि जो जितना ज्यादा बिक रहा है वो उतना सफल है। वकालत के बदले पैसा-वकील तो होते ही बिकने के लिए, मगर अब न्याय भी बिकता है। डाक्टर द्वारा खुद के जीने के लिए मरीज से पैसा लेने तक बात समझ आती है मगर पैसे के लिए मरीज की जान लेना देखकर दुःख होता है। इंजीनियर तो सामान बनाते ही बेचने के लिए हैं, उनकी मोटरें बिकती हैं मगर अब रास्ते भी बिकने लगे हैं। हैरानी बढ़ती है यह देखकर कि अब राहगीर भी बिकने लगे हैं, और तो और मंजिल भी बिकती है। पूर्व में, कई कहानीकार व सिनेमा ने बाजार में बिकने से बचने वाले कई पात्र गढ़े, कई औरतें मंडियों में बिकने से बचने के लिए कोठों से भाग गईं, गुलामों तक को विद्रोह करते दिखाया गया है। मगर अब तो बिकने के लिए लोग खुद तैयार खड़े हैं। तैयार ही नहीं खड़े हैं, भीड़ लग जाती है, पुलिस बुलानी पड़ती है। अजीब दुनिया का गजब काल है। जहां लोग अपनी शर्म बेचते हैं, हया बेचते हैं और तो और अपने दिलों को भी बेच देते हैं।
एक चर्चा पढ़ी थी। मुझे अच्छी लगी। सीधी सरल बात कही गई थी कि जब सुंदर आदमी-औरत अपने शरीर को परदे पर दिखाकर बेचता है, तो एक वेश्या को सेक्स बेचने पर रोक क्यों? अगर गायक अपनी गायकी बेचता है, संगीतकार संगीत, कलाकार अपनी कला तो एक विचारक को अपने विचार बेचने का क्यों हक नहीं? इसमें बुराई क्या है? ठीक भी तो है अधिक होशियार छात्र को नौकरी में ऊंची तनख्वाह क्यूं दी जाती है? और फिर उसे प्रारंभ से ही बिकने के लिए तरह-तरह के मैनेजमेंट गुण सीखने के लिए भी कहा जाता है। सुनकर एक अन्य ने टोका था कि विचारों और सेक्स को नहीं बेचना चाहिए, इससे समाज, संस्कृति व सभ्यता नष्ट होती है। मुझे हंसी आ गई, आज यहां समाज, संस्कृति, सभ्यता सब कुछ तो बिक रहा है। खुद ही देख लें। फिल्मों व सीरियलों में कई नायिकाएं, आजकल गांव और क्षेत्रीय बोली बोलते हुए पारम्परिक वस्त्रों में ढकी-सजी देखी जाने लगी हैं। और इस तरह के सीरियल आज खूब बिक रहे हैं! ऐतिहासिक व्यक्तित्व और धार्मिक ग्रंथों पर आधारित धारावाहिक लोकप्रिय हो रहे हैं। कारण? असल में समाज स्वयं फैशन में इतना डूबा हुआ है कि उसे परदे पर दिखाई देने वाली नग्न तसवीरों में अब कुछ नयापन दिखाई नहीं देता। मनुष्य हमेशा नयेपन की तालाश में भटकता है। नया-नया सामान अधिक बिकता है। हर सामान का नया मॉडल हर साल क्यूं आ जाता है? बिकने में परिवर्तन का सिद्धांत बड़ा महत्वपूर्ण है। इसीलिए स्वाद बदलने की तरह पारम्परिक चीजें आज अधिक बिकने लगी हैं। आज इसकी लहर-सी आ गई हैं। इस नयेपन की तालाश में आदमी कुछ भी करने को तैयार है।
एक प्रचलित व्यंग्यात्मक कथन है कि आदमी का बस चले तो ताजमहल को बेच दे, सवाल यह है कि कोई खरीदने वाला होना चाहिए। पता नहीं, हो सकता है किसी धूर्त ने ताजमहल छोड़ पार्लियामेंट तक को बेच दिया हो। खरीदने वाले मूर्खों की भी दुनिया में कमी नहीं है। बहरहाल, धर्म और भगवान तो खुलेआम बिकते हैं। धार्मिक गुरु धर्म स्थल पर तो विद्या के गुरु कोचिंग में बिकते हैं। मां की कोख से लेकर बाप का वीर्य तक बिकता है। खिलाड़ी तो बिकते ही थे, हद तो तब होती है जब खेल बिक जाता है। अब क्या करें, प्रसिद्ध लोगों के सामान नीलामी में बिकते हैं। सरस्वती पर लक्ष्मी हावी है। है दुनिया में कोई चीज जो न बिकती हो? मैं तो कहता हूं हमारा बाजार इस पूरी दुनिया को बेच दे, शर्त है कि ब्रह्मांड में कोई तो मिले खरीदने वाला। शायद इसी कारण से आकाश में हमने अपने अंतरिक्षयानों को छोड़ रखा है, किसी बाहरी को पकड़ने के लिए जो इस पृथ्वी को खरीद सके।
मजेदार बात है कि इस खरीद-फरोख्त से किसी को कोई परेशानी नहीं होती। हमाम में सब नंगे हैं। मुश्किल तब शुरू होती है जब आप तो बिक नहीं पाते और आपके आसपास सब कुछ बिक रहा होता है। कल्पना करें, आप न तो बिक रहे हैं न ही कुछ खरीद रहे हैं, तब आपकी क्या कीमत? ऐसे में, बाजार की भीड़ में आदमी कितना अकेला और मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता होगा? देखना हो तो पुराने जमाने के किसी सेक्स बॉम हिरोइन के जीवन में झांक कर देखें जो अपने फ्लैट में गुमनाम जिंदगी जीते हुए कब मर जाती हैं पता भी नहीं चलता। एक लावारिस लाश, जिसे खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं। सभी की माइकल जैक्शन की तरह किस्मत कहां, जिसका सिर-नाक-पेट अखबारों में खूब बिक रहा है।