My Blog
Articles, Personal Diaries and More
महान ही इतिहास क्यूं रचते हैं?
पिछला रविवार खेल प्रेमियों के लिए ऐतिहासिक दिन बन गया। लॉन टेनिस का नया अध्याय लिखा गया। स्विट्जरलैंड के रोजर फेडरर ने पुराने सारे रिकार्ड तोड़ते हुए एक नया शिखर स्थापित किया। वैसे तो रिकार्ड बनते ही टूटने के लिए हैं लेकिन निकट भविष्य में इसके टूटने की संभावना कम दिखाई देती है। फेडरर न केवल अब तक के लॉन टेनिस के महानतम खिलाड़ी बन गए बल्कि आगे भी कई कारणों से याद किये जाते रहेंगे। मैं प्रारंभ से ही उनका प्रशंसक रहा हूं मगर धीरे-धीरे अंधभक्त समर्थकों की श्रेणी में कब शामिल हो गया पता ही नहीं चला। यहां पर आकर भावनाएं दिल और दिमाग पर छाने लगती हैं और तर्क-वितर्क अर्थहीन होने लगते हैं। यहीं से हिरोइज्म की शुरुआत भी होती है। मेरी भावनाएं फेडरर के लिए इस कदर हावी थीं कि इस वर्ष के विम्बलडन फाइनल के प्रारंभिक दौर में चार बार ब्रेक प्वाइंट अर्जित करते-करते, फेडरर का लगातार चूकना, मुझसे देखा न गया। ये सेट प्वाइंट भी थे। फेडरर ने इसी दौरान चार बार चैलेंज भी किया मगर हर बार इलेक्ट्रॉनिक इन्सटेंट रिप्ले ने उनके शॉट को आउट करार दिया। ये चारों शॉट बेहतरीन और बेस लाइन से इतने नजदीक थे कि दूर से सही दिखाई देते थे। अगर इनमें से एक भी शॉट फेडरर के पक्ष में चला जाता तो गेम की दिशा प्रारंभ में ही तय हो जाती और फिर शायद उनको इतना संघर्ष न करना पड़ता। मगर नियति अपने रास्ते खुद चुनती है। संघर्ष से मिला हुआ मेहनत का फल अधिक मीठा होता है। आसानी से मिली हुई जीत अच्छी नहीं लगती और उसकी कीमत कम हो जाती है।
मेरी भावनाओं को एक दर्शक के रूप में कोई दूसरा अंधभक्त समर्थक ही समझ सकता है जब मैंने फेडरर के पक्ष में सोचते हुए उसके समय को दोष देना प्रारंभ कर दिया था। और आज का दिन फेडरर के लिए अभाग्यशाली कहकर टेलीविजन बंद कर दिया था। मैं अपने आदर्श खिलाड़ी को हारता हुए नहीं देख सकता था, वो भी तब जब वह इतिहास बनाने के कगार पर खड़ा था। मगर महान खिलाड़ी संघर्ष के रास्ते से ही शिखर पर पहुंचते हैं। यह बात एक बार फिर साबित हुई थी। मैं तो उसके जुझारूपन का कायल पहले ही हो चुका था। मैंने उन्हें नडाल के हाथों विगत वर्ष विम्बलडन (2008) के फाइनल में हारते हुए देखा था। तब मेरा मत था कि अब फेडरर को खेलना छोड़ देना चाहिए। चूंकि मुझे ऐसा लगा था कि उम्र उस पर हावी होने लगी है। मान्यता है कि शिखर पर रहते हुए ही विजेता को रिटायरमेंट ले लेना चाहिए। बाद में हारते हुए खेल के मैदान को छोड़ना ठीक नहीं, फिर चाहे वो समय की मार हो या शरीर की हार। लेकिन काल को तो एक नया इतिहास रचना था और रोजर फेडरर को एक ऐतिहासिक पुरुष बनना था। उसने अपने संघर्ष को जारी रखा और आत्मविश्वास के साथ खेलता रहा। परिणामस्वरूप कुछ दिन पूर्व फे्रंच ओपन और फिर विगत सप्ताह विम्बलडन 2009 जीतकर पन्द्रह ग्रैंड स्लैम के साथ वह आज के टेनिस इतिहास का शिखर पुरुष बन गया। यह सिलसिला तो आगे भी जारी रहेगा क्योंकि अभी उसमें बहुत टेनिस बाकी है।
पूर्व में ब्योन बोर्ग मेरा पसंदीदा लॉन टेनिस खिलाड़ी हुआ करता था। उनके लंबे बॉल, छहररा बदन, कसरत से कसा हुआ शरीर, अलग से दिखाई देता था। उन्हें चाहने वालों की संख्या लंबी-चौड़ी थी। वे बड़े शांत और गंभीर स्वभाव के माने जाते थे। उन दिनों ब्योन बोर्ग के एक टापू खरीदने की चर्चा आम थी। उनके बाद कई नामी खिलाड़ी आये और गए। सभी ने अपनी-अपनी तरह से प्रभावित भी किया। कइयों के कई तरह के किस्से मशहूर हुए। इवान लेंडल (8 ग्रैंड स्लैम) से लेकर एंड्री आगासी (8 ग्रैंड स्लैम), जॉन मैकनरो (7 ग्रैंड), बोरिस बेकर (6), पीट सम्प्रास (14) आदि से होते हुए नडाल (6) तक की कहानी कोई अधिक लंबी नहीं है। इसमें पीट सम्प्रास भीड़ में अलग दिखाई देते हैं। जिनका रिकार्ड रोजर फेडरर ने ध्वस्त किया। इतना काफी नहीं महानतम बनने के लिए। इसीलिए और भी कई उपलब्धियां हैं फेडरर के नाम। फेडरर अब तक के सबसे अधिक ग्रैंड स्लैम फाइनल (बीस बार) खेलने वाले पहले खिलाड़ी बन गए। इसके अतिरिक्त 2009 का विम्बलडन कई रिकार्ड दर्ज कर गया। यह मैच अब तक का सबसे लंबा फाइनल मैच था जिसमें 77 गेम खेले गए। पांचवां सेट सबसे लंबा जिसमें 16-14 अर्थात तीस गेम खेले गए। ऐश सर्व के विशेषज्ञ रोजर फेडरर ने अपने जीवन के अब तक के सबसे अधिक ऐश सर्व इसी मैच में किए, पूरे पचास। है न ऐतिहासिक मैच। यही नहीं, खेल में शिखर पर पहुंचने के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है रोजर फेडरर के व्यक्तित्व में जो उन्हें अतिरिक्त गरिमा और चाहने वालों की लंबी फौज पैदा करती है।
टेनिस में पैसा प्रारंभ से ही रहा है। यह रईसों का खेलों माना जाता है। जबकि ऐसा इसमें अब कुछ नहीं। इसका इतिहास कोई बहुत प्राचीन नहीं, मात्र डेढ़ शताब्दी पुराना है। हां, पूर्व में राजा-महाराजा इसी तरह का गेम, जिसे रियल टेनिस कहा जाता है, खेला करते थे। विशेष बात है कि टेनिस आज भी अपनी परंपरा और साख बनाए रखने में कामयाब है। ताज्जुब होता है यह देखकर कि इसमें बहुत कम परिवर्तन किए गए हैं। विगत पूरी शताब्दी में नियम में सिर्फ दो बदलाव। पहला, सर्व करते समय खिलाड़ी को कम से कम एक पैर जमीन पर हमेशा रखना होगा और दूसरा टाई ब्रेकर 1970 में आया।
टेनिस देखने में सरल खेल दिखाई देता है। पश्चिमी सभ्यता के अनुशासित खेल प्रेमियों का भी कुछ प्रभाव है जो इस खेल के चारों ओर सभ्यता और परंपरा का कोहरा ढका मिलेगा। नपी-तुली तालियां, कुछ देर की हंसी व खुसफुसाहट और फिर खेल प्रारंभ होते ही पूर्णतः शांति। हर एक अच्छे शॉट पर जबरदस्त तालियां और फिर चुप्पी। यह दर्शकों का पक्ष है। मगर यह खेल उतना आसान नहीं जितना दिखाई देता है। इस खेल में शक्ति, ऊर्जा, जोश के साथ-साथ स्फूर्ति, चपलता और तीव्रता की एक साथ आवश्यकता पड़ती है। दूर से देखने पर छोटे से मैदान में खेलना आसान लगता है मगर चार बार एक छोर से दूसरे कोने तक फटाफट दौड़ने पर बात तुरंत समझ आने लगती है। उस पर से सौ मील से अधिक रफतार से मारी गई बॉल को खेलना और फिर सेकेंड्स में वापस आने वाले शॉट के लिए तैयार होना कोई मामूली बात नहीं। नेट लगाकर दोनों ओर खेलने वाले हर गेम में स्फूर्ति और तेजी की आवश्यकता दिखाई देती है इसीलिए दुबले-पतले छरहरा बदन के खिलाड़ी यहां अधिक सफल होते हैं। फिर चाहे बैडमिंटन हो या फिर लॉन टेनिस, टेबल टेनिस। छोटी-सी जगह में स्प्रिंग की तरह इधर से उधर दौड़ने के लिए अतिरिक्त स्टेमिना की जरूरत होती हैं। मगर लॉन टेनिस में कुछ अधिक की आवश्यकता है। यहां एक लंबे रैकेट के द्वारा अच्छी-खासी वजनदार बॉल को ताकत से मारना अर्थात आपकी कलाई और बाजुओं में भी दम होना चाहिए। और फिर पांच-पांच छह-छह घंटे, अकेले निरंतर खेलना, यह इस खेल को फुटबाल के समकक्ष पहुंचा देता है। बाकी खेलों में तो फिर कई खिलाड़ी होने पर आपको कुछ वक्त मिल जाता है सांस लेने का, मगर यहां तो हर अगले मिनट तैयार, पूरी तरह चौकन्ना, सतर्क, दमखम के साथ।
क्रिकेट का खेल, जिसे अब इस देश के बाजार के मैनेजरों ने अपने हित के लिए धर्म ही बोलना शुरू कर दिया, से कोई शिकायत नहीं। खेल कोई भी बुरा नहीं होता। लेकिन एक ही के पीछे पागलों की तरह लगे रहना एक शक्तिशाली देश की निशानी नहीं हो सकती। यह हमें अन्य खेलों में हास्यास्पद स्थिति में पहुंचाता है। मात्र एशियाई देश क्रिकेट के प्रति दीवानों की तरह पीछे भाग रहे हैं। यह बाजार का खेल है। बहरहाल, लॉन टेनिस को हिन्दुस्तान में पहले अमृतराज और फिर पेस-भूपति फिर सानिया मिर्जा ने एक नयी दिशा देने की कोशिश की। वे कितने सफल रहे कहना मुश्किल है। मगर हिन्दुस्तान इस बेहतरीन खेल से आज भी मिलों दूर है। इसे मैं हमारा दुर्भाग्य ही कहूंगा।
मैंने थकावट भरी ऊर्जा निचोड़ लेने वाले इस खेल को अपनी युवावस्था में कुछ-कुछ खेला है। शौकिया। कुछ मिनटों बाद ही बॉल के ग्राउंड में इधर-उधर जाते ही उसको उठाकर लाने की शक्ति नहीं रह जाती। और तभी इस खेल में टेनिस बॉल किड्स की अहमियत का पता चलता है। यह बॉल ब्वाय ऊर्जा बचाने में मदद करते हैं। इन्हें देखकर खेल में सामंतशाही का अहसास जरूर होता है मगर ऐसा कहना उचित नहीं। हां, कुछ महिला खिलाड़ियों ने यहां अपने खेल के प्रदर्शन के साथ, सौंदर्य को नग्नता प्रदर्शन की हद तक ले जाने में धीरे से ही सही मगर बहुत बड़ा रोल अदा किया है। गनीमत हो विलियम्स बहनों का जिन्होंने इस खेल को खेल ही रहने दिया नहीं तो स्टेफी ग्राफ, क्रिस एवर्ट, मार्टिना नवरातिलोवा भी इससे पूरी तरह बच नहीं पाए थे। कुछ एक महिला खिलाड़ियों ने तो ग्लैमर के नशे में खेल को बहुत हद तक डूबो दिया। मारिया शरापोवा एक उदाहरण हो सकती हैं। फेडरर इन सब ग्लैमर के नशे और सफलता के अहम् से दूर दिखाई देते हैं। एक शांत, सरल और संयमित इंसान जो अपने जीवन से पूर्णतः संतुष्ट लगता है साथ ही संघर्ष की राह में निरंतर आगे बढ़ते रहने में यकीन करता है। इन्हीं गुणों के कारण वह अपनी ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। वह खेल के दौरान अपना संतुलन नहीं खोते। हारते हुए भी शांत दिखाई देते हैं और अक्सर प्रारंभिक हार को अंत में जीत में परिवर्तत कर देते हैं। कई बार महत्वपूर्ण मैचों में हार के बाद बच्चों की तरह रोते जरूर हैं मगर जीत के बाद गर्मी नहीं खाते। उछल-कूद नहीं मचाते। अपने विरोधी को घूरते नहीं। अच्छे शॉट लगाकर अपने चेहरे पर आक्रोश नहीं लाते। जीत के बाद खुश जरूर होते हैं मगर पागल नहीं हो जाते। भाग्यवश फेडरर की पत्नी मिरका जो स्वयं भी एक टेनिस खिलाड़ी रह चुकी हैं उसी तरह सरल और तनाव से सदैव दूर लगती हैं। वह विदेशी सौंदर्य का प्रतीक तो हैं परंतु पारंपरिक संस्कारों व संस्कृति से सराबोर दिखाई देती हैं। ऐसे संतुलित व्यवहार वाले साथी का प्रभाव खेलने वाले पर अवश्य पड़ता है। विश्व में शांत और गंभीर लोगों को ही अधिक पसंद किया जाता है। फिर चाहे गावस्कर और तेंदुलकर हो या फिर फुटबाल का पेले। अच्छे खेल के बावजूद मेराडोना पिछड़ते से प्रतीत होते हैं, अपनी आदतों के कारण। अच्छे गुण खेल में भी सदा मदद करते हैं। यह आपकी ऊर्जा केंद्रित व ध्यान नियंत्रित रखते हैं। यही सब गुण हैं जो उन्हें एक अच्छा भी इंसान बनाता है। और जो अच्छे इंसान नहीं वो महान नहीं हो सकते और फिर इतिहास तो बिल्कुल नहीं रच सकते।