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हिन्दी में अंग्रेजी की घुसपैठ

भाषा के कंधे पर रखकर हो रही राजनीति के आतंक से जूझ रहे देश में इस तरह के शीर्षक खतरनाक साबित हो सकते हैं। सभ्य, समझदार और शांत लेखक द्वारा कुछ एक स्थान पर भाषा के विषय पर आजकल खुलकर लिखना-बोलना आसान नहीं, परिस्थितियां खतरनाक हो चुकी हैं। चारों ओर मारकाट मची हुई है। हिन्दुस्तान में सत्ता हथियाने के लिए भाषा एक शस्त्र बन चुकी है। इन सभी को मद्देनजर रखते हुए भाषाओं के बीच की घटनाओं का विश्लेषण करते समय, सकारात्मक दृष्टि व संतुलन का होना आवश्यक है। लेकिन किसी घटनाक्रम को नजरअंदाज करना ठीक नहीं, वो भी तब जब उसका असर भविष्य में गहरा और दूरगामी दिखाई दे। और तो और एक स्वतंत्र टिप्पणीकार द्वारा इस पर टिप्पणी न करना अपनी जिम्मेदारी से बचना होगा। यहां गौर करने वाली बात है कि आजकल हिन्दी के समाचारपत्रों में अंग्रेजी के स्तंभकार के लेखों के अनुवाद धड़ल्ले से छप रहे हैं। और इनकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली जा रही है। इसमें प्रथम दृष्टार्थ तो कुछ भी गलत नजर नहीं आता। उलटे सच तो यह है कि भाषाओं को एक-दूसरे से ज्ञान व सूचना का आदान-प्रदान करते रहना चाहिए। और कहा जाना चाहिए कि यह पाठकों के लिए फायदे का सौदा है। यह सच भी है। इस पर आपत्ति करने वाले को संकुचित मानसिकता वाला कहकर भी पुकारा जा सकता है। मगर यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि क्या हिन्दी वाले भी अंग्रेजी में छप रहे हैं? उसी रफ्तार से न सही, धीरे ही सही। और अगर नहीं तो क्यों? प्रश्न का उत्तर महत्वपूर्ण नहीं। न ही इस पर बेवजह की राजनीति करने की आवश्यकता है। जरूरत है तो यहां सिर्फ स्वस्थ विश्लेषण की। यह भाषा के असंतुलन का मामला है। जिसे हर कोण से देखा जाना चाहिए।

उम्र में वरिष्ठतम खुशवंत सिंह जी का नाम हिन्दुस्तान में जाना-पहचाना है। आज अंग्रेजी में सबसे ज्यादा छपने वाले स्तंभकार के रूप में भी वह जाने जाते हैं। उनके दृष्टिकोण, रचनाशैली, रचना सामग्री की चर्चा यहां नहीं हो रही। उनका साप्ताहिक स्तंभ अंग्रेजी के अनेक न्यूज पेपर के साथ-साथ कई हिन्दी समाचारपत्रों में भी नियमित रूप से प्रकाशित होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी छपता हो तो कहा नहीं जा सकता। यकीनन इनके अंग्रेजी में लिखे लेखों का हिन्दी में अनुवाद किया जाता होगा। हिन्दी के समाचारपत्रों की संख्या जिसमें खुशवंत सिंह छपते हैं, दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इसी श्रृंखला में अंग्रेजी के और भी नाम जुड़ते चले जा रहे हैं। पहले करण थापर और अब राजदीप सरदेसाई और शायद बरखा दत्त भी। हो सकता है कुछ और नाम भी हों। अभी हाल ही में चेतन भगत के लेख भी हिन्दी में दिखाई दिए हैं। इस घटनाक्रम का स्वागत किया जाना चाहिए। इन चर्चित लोगों की योग्यता व ज्ञान पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता। न ही इस लेख का यह उद्देश्य है। इनके अनुभवों से हिन्दी जगत को लाभान्वित होने देने पर किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन आश्चर्य के साथ-साथ प्रश्नचिह्न और कारणों के विश्लेषण की आवश्यकता तब महसूस होती है जब एक भी नाम ऐसा नहीं सूझता जो हिन्दी में लिखता हो और उसका अनुवाद अंग्रेजी में छापा जाता हो। मेरी जानकारी कम हो सकती है इसीलिए मैंने कुछ वरिष्ठ जानकारों से पूछताछ की। हिन्दी लेखन के शीर्ष पुरुषों और फिर जाने-पहचाने स्तंभकारों से भी चर्चा की। विश्वास न हुआ तो वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों से भी संपर्क किया। सत्य जानने के लिए हिन्दुस्तान के हर कोने से संपर्क साधने की कोशिश की गई। इनमें से कोई भी एक लोकप्रिय नाम नहीं बता पाया, जिनके हिन्दी लेख का अंग्रेजी में रूपांतरण निरंतर छपता हो। एक-दो नाम जरूर उभरकर आये जो कभी-कभार अंग्रेजी में भी लिख लेते हैं और इधर-ऊधर छप जाते हैं। मूल रूप से ये हिन्दी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं के विद्वान हैं और इसलिए दोनों में बराबरी से लिख लेते हैं। मगर हिन्दी में लिखा लेख अंग्रेजी में अनुवाद होकर हर सप्ताह छपता हो, सुना नहीं, देखा नहीं। अगर कोई है तो जानकारी मिलने पर प्रसन्नता होगी। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं? अंग्रेजी वालों के लिए इस तथ्य में कोई अजूबा नहीं। उनके लिए यह सामान्य-सी बात हो सकती है। मगर हिन्दी वालों के लिए यह यकीनन एक चिंतन व आत्मपरीक्षण का विषय होना चाहिए।

तो क्या यह मान लिया जाये कि अंग्रेजी के स्तंभकार ज्यादा अच्छा लिखते हैं? क्या वे ज्यादा अनुभवी और ज्ञानी हैं? या फिर क्या यह स्वीकार कर लिया जाये कि हिन्दी में स्तंभकारों की कमी है? अच्छा लिखने वालों का यहां अकाल है? इस विषय पर अंग्रेजी के लेखकों का पक्ष जानना चाहेंगे तो अधिकांश के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान उभरेगी और वे धीरे से शालीन साहित्यिक शब्दों में लपेटकर उपरोक्त प्रश्नों को स्वीकृति प्रदान करेंगे। जबकि असल में इन तर्कों में कोई दम नहीं। इनमें से किसी के भी सत्य होने की संभावना नहीं। तो फिर और क्या वजह हो सकती है? ध्यान से देखें तो ये सभी प्रश्न और उनके उत्तर और उसके पीछे छिपी मूल भावना, कभी प्रतीकात्मक रूप से तो कभी किसी और का मुखौटा धारण किये हमारे बीच उपस्थित रहती है। असल में यह हमारी मानसिकता व सोच में कहीं दबा-छिपा बीज आज पौधा बनकर खड़ा हुआ है कि अंग्रेजी के लोग ज्यादा पढ़े-लिखे, अधिक ज्ञानी और इसीलिए ज्यादा अच्छा लिखते हैं। यह सदियों में पली-बढ़ी हमारी हीन भावना का परिणाम है। दूसरी ओर हिन्दी में अच्छा लिखने वालों का अकाल है, यह जानते हुए भी कि यह सत्य नहीं, ऐसा मत अमूमन कहीं न कहीं पनपता रहता है। इसके पीछे हमारी वर्षों की गुलामी एक कारण हो सकती है।

इस संदर्भ में एक हिन्दी दैनिक के संपादक का कथन बड़ा रोचक लगा, कहा गया कि अंग्रेजी स्तंभकार के द्वारा भेजे गए कॉलम को न छापने की किसी की हिम्मत नहीं होती, उसके लिए तो जगह बनाई जाती है। मानो दुनिया का सारा ज्ञान इसी में डाला गया हो। असल में यह कहीं न कहीं हमारी कमजोरी से भी संबंध रखता है। हम आज भी अपने बौद्धिक स्तर को उठाकर सशक्त व स्वतंत्र नहीं कर पाए और विदेशी भाषा के कंधे पर बैठकर दलदल को पार करने का प्रयास करते हैं। हिन्दी समाचारपत्र के कर्ताधर्ता जिनके विकास-विस्तार की गति आजकल कुछ ज्यादा ही तीव्र है, व्यावसायिकता में सफल होने के बाद किसी मंच पर खड़े होते ही, अंग्रेजी के सूट-बूटधारी की ओर नजर गढ़ाए आशाभरी निगाहों से ताकते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि किस माध्यम से वह यहां तक पहुंचे। असल में यह हमारी सबसे बड़ी कमजोरी रही है कि हम जिस जमीन से आते हैं, ऊंचा उठने के बाद उसी को भूल जाते हैं। विडंबना है कि हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में सफलता हासिल करते ही, पैसा आने के बाद, संबंधित लोग अंग्रेजी संस्कृति को अपनाने व शामिल होने के लिए लालायित नजर आते हैं। हिन्दी का खाने वाले तथाकथित अंग्रेजी बुद्धिजीवी वर्ग की तरह बर्ताव करने के लिए तत्पर देखे जा सकते हैं। इन्हें सफलता का चश्मा चढ़ते ही अंग्रेजी के लेखक ज्ञानी और विद्वान तो हिन्दी के लेखक धोतीधारी कूड़ा-कर्कट दिखाई देने लग पड़ते हैं।

एक पक्ष और है जिस पर विचार किये बिना यह चर्चा अधूरी होगी। सोचने वाली बात है कि अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में छपने के लिए यह प्यार क्यों और कब जाग उठा? कहीं यह सारा खेल बाजार का तो नहीं? शायद। यह सारा तमाशा अर्थशास्त्र की अदृश्य शक्तियों का है। अन्यथा आमतौर पर अंग्रेजी के बीच हिन्दी लेखन वालों को आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता रहा है। यह एक ऐसा तथ्य है जो लिखा व बोला जाना अच्छा नहीं लगता, मगर कटु सत्य है। इसके बावजूद हिन्दी क्षेत्र में हिन्दुस्तानी अंग्रेजी लेखकों की दिलचस्पी का कारण साफ है, आज हरेक को मालूम है कि अगर उन्हें लोकप्रिय रहना है, अधिक से अधिक पढ़ा जाना है तो हिन्दी में छपना जरूरी है। संख्या के मामले में, राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए, आर्थिक संपन्नता व व्यापार के दृष्टिकोण से हिन्दी के सामचारपत्र आज बहुत आगे निकल चुके हैं।

सफलता के घर में किसी से विशेष प्रेम या द्वेष की भावना कोई मायने नहीं रखती। लोकप्रिय सफलता का गुणवत्ता से कोई संबंध नहीं। यहां तो परिस्थितिवश आवश्यकता के अनुरूप कदम उठाए जाते हैं। तभी तो बड़ी-बड़ी विश्वस्तरीय अंग्रेज कंपनियां भी आज हिन्दी में कार्य करने के लिए तैयार हैं। हॉलीवुड की फिल्में हिन्दी में भी डब कर साथ-साथ प्रदर्शित की जाने लगी हैं। इसे प्रोफेशनलिज्म की परिभाषा के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता है। हिन्दी के प्रति पश्चिमी देशों के मन में प्रेम जागा हो, ऐसा कुछ नहीं। जो सफल व लोकप्रिय होते हैं उनमें यही खास बात होती है कि वे समय के अनुरूप स्वयं को ढालने में अधिक दक्ष होते हैं। यह उनकी सफलता का राज होता है। यह एक कला है। यह एक ऐसा गुण है जो उच्च वर्ग में विशेष रूप से जरूर पाया जाता है। तभी तो वह चमकदार, ताकतवर व साधन-संपन्न होता है। आज इस वर्ग के सभी लोग अंग्रेजी भाषा के ज्ञानी हैं। यहां अभी हिन्दी का स्थान नहीं। वजह है, हर सफल-लोकप्रिय इंसान अंग्रेजी वाला होगा और जो हिन्दी वाला सफल होता है वो भी अंग्रेजी अपना लेता है। मैं उस शुभ घड़ी के इंतजार में हूं जब कोई हिन्दी वाला स्तंभकार अंग्रेजी में भी अनुवादित होकर निरंतर छपने लगेगा। उस दिन प्रमाणित होगा कि हिन्दी लिखने वालों को भी आज के संदर्भ में सफल होने की डिग्री प्राप्त हो चुकी है।