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पिरिस्त्रोइका के मूल में परिवर्तन का सिद्धांत
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ सोवियत रूस के अंतिम जनरल सेक्रेटरी मिखाइल गोर्वाचोव ने कुछ समय पूर्व अमेरिकी विश्वविद्यालयों में यह कहकर सबको चौंका दिया था कि अमेरिका को भी अब अमेरिकी पिरिस्त्रोइका की आवश्यकता है। इतना ही नहीं, एक कदम आगे बढ़ते हुए वो बोल गए थे कि अमेरिकी नेतृत्व व नौकरशाहों को समय रहते इसे स्वीकार करना होगा, अन्यथा स्थितियां और कठिन होती चली जाएंगी।
पिरिस्त्रोइका रूसी भाषा का क्रियावाचक शब्द है। जिसका शाब्दिक अर्थ है पुनर्निर्माण। पुराने को हटाकर उसके स्थान पर नये को स्थापित करने की प्रक्रिया को रूसी भाषा में पिरिस्त्रोइका शब्द के माध्यम से परिभाषित व व्यक्त किया जाता रहा है। फिर चाहे बात व्यवस्था की हो या विचारधारा की, पिरिस्त्रोइका एक वृहद संदर्भ में उपयोग किया जा सकता है। मिखाइल गोर्वाचोव के द्वारा इस शब्द के प्रयोग किए जाने के कारण यह अब महत्वपूर्ण संज्ञा की तरह लिया जाता है। विश्व इतिहास, विशेष रूप से रूस के नये स्वरूप को बनाये जाने में इस शब्द का महत्वपूर्ण योगदान है। मिखाइल गोर्वाचोव को इस बात के लिए सदैव याद किया जाएगा कि उन्होंने सही समय पर पिरिस्त्रोइका व ग्लास्तनस्त् का नारा देकर रूस को एक नयी दिशा दी। अपने देश को एक बड़े संकट से बचा लिया। अन्यथा सोवियत संघ को तो टूटना ही था। इसके पहले कि रूस किसी और बड़े चक्रव्यूह में फंसकर चूर-चूर हो जाता, मौका मिलते ही उसे एक नये रास्ते की ओर मोड़ दिया गया। यही सच्चे नेतृत्व की पहचान होती है कि वह सही समय पर सही सोच के साथ सही निर्णय लेता है और उसे कार्यान्वित करने की क्षमता भी रखता है। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। नेतृत्व है तो विरोध भी होगा। मगर समय को पहचानकर सत्य के साथ खड़े रहने वाला ही अपनी पहचान बनाए रखता है अन्यथा वक्त किसी को नहीं बख्शता।
यथास्थिति बनाये रखना मानवीय प्रवृत्ति रही है और किसी भी परिवर्तन का विरोध करना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार लगता है। किसी भी बदलाव को इंसान सहजता से नहीं लेता। शासकीय नौकर स्थानांतरण को सबसे बड़ा दंड मानकर इससे बचने की हरसंभव कोशिश करता है। यहां तक की कई बार पदोन्नति को भी ठुकरा दिया जाता है। यह हित में होने वाले परिवर्तन के विरोध का छोटा-सा उदाहरण है। कार्यालयों में कर्मचारियों के फायदे के प्रयोग को भी शंका की दृष्टि से देखा जाता है। हम नये रास्तों का उपयोग करने से पूर्व कई बार सोचते हैं। मगर जो नये रास्तों को चुनते हैं इतिहास वही रचते हैं। अन्यथा आम आदमी तो हर एक नव आगंतुक को शंका की दृष्टि से देखता है। धार्मिक भावनाएं और रीति-रिवाज परिवर्तन विरोधी होने के सबसे अहम उदाहरण हैं। पूर्व में कुछ एक सामाजिक प्रथाएं, जो कि कई बार अमानवीय होती थीं, को रोकने में कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी, इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। हम अपनी सोच और विश्वास के दायरे में किसी भी प्रकार के परिवर्तन से बचते हैं। और अपनी आस्था पर जरा-सी भी चोट नहीं होने देते। मगर जब विश्वास टूटता है तो हम भी टूट कर बिखर जाते हैं।
ऐसा नहीं कि मानवीय इतिहास ने स्वयं परिवर्तन का नेतृत्व न किया हो। समय के पन्ने क्रांतियों से भरे पड़े हैं। बड़े-बड़े राजवंश जिनका सदियों से शासन था मिनटों में जमीन पर उतर आये और फिर मिट्टी में मिलकर इतिहास में गुम हो गए। प्रजातंत्र में परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है। यहां कुछ एक सुनिश्चित वर्षों के बाद सत्ता पर बैठे लोगों को हट जाना पड़ता है। और पुनः चुनाव किए जाते हैं। मगर जब बात प्रजातंत्र के अंदर की खामी को देखने और समझने की आती है और शासन व्यवस्था में परिवर्तन की बात की जाती है तो विरोध तुरंत शुरू हो जाता है। हम पार्लियामेंट में हर परिवर्तन का विरोध करते हैं। सत्ताधारी भी विरोध के डर से कई सार्थक परिवर्तन नहीं करते। अब चूंकि प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत ही स्वतंत्रता है तो विरोध तो स्वाभाविक रूप से होगा ही। इसके विपरीत जब बात तानाशाहों की आ जाती है तो वहां सत्ता का परिवर्तन बहुत मुश्किल हो जाता है।
सोवियत रूस में कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था कितनी कठोर और निर्दयी हो चुकी थी, सारा विश्व जानता है। इसकी आड़ में पनपी तानाशाही के घोर अत्याचार में जनता ने कितनी यातनाएं सही होंगी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। तब का साहित्य सत्ता विरोध प्रतीकात्मक लेखन से भरा पड़ा है। परिणामस्वरूप जनता त्राहि-त्राहि करने लगी थी। हर जगह आक्रोश था। चिंगारियां हर दिल में सुलग रही थीं। बुद्धिमान वर्ग अब और चुप रहने को तैयार न था। तानाशाही व्यवस्था में तानाशाह अपनी शक्ति के नशे में अमूमन मदमस्त रहता है। वह सपनों की दुनिया में खोया रहता है। उसकी आंखों में पट्टी बंधी रहती है। वह सुनना भी नहीं चाहता। वह वही सुनता और देखता है जो उसे पसंद है। उसका विरोध करने वालों को खत्म कर दिया जाता है। सामान्यतः जनता इसी डर से वर्षों तक तानाशाहों को झेलती है। ऐसा नहीं कि यह हटाए नहीं जाते। मगर ऐसे कम ही उदाहरण मिलेंगे जब किसी शासक ने स्वयं परिवर्तन करने का निर्णय लिया हो और फिर उसे क्रियान्वित भी किया हो।
मिखाइल गोर्वाचोव ने समय रहते सोवियत रूस में पनप रही असंतोष की भावना को पहचाना और विद्रोह के पूर्व परिवर्तन की आवश्यकता पर मोहर लगाई। पिरिस्त्रोइका के अंतर्गत सर्वप्रथम ग्लास्तनस्त् की इजाजत दी। ग्लास्तनस्त् अर्थात बोलने की स्वतंत्रता। यह प्रारंभिक बिन्दु था। अपने डर व असंतुष्ट भावना को व्यक्त करने की स्वतंत्रता से क्रोध शांत होता है। सत्ता परिवर्तन की सबसे पहली शर्त यही है कि विरोधी को बोलने का मौका दिया जाए। और सोवियत रूस में पिरिस्त्रोइका के माध्यम से परिवर्तन हुआ। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। इस दौरान हुई घटना-दुर्घटना और विघटन उसके दूसरे पहलू हैं। परंतु इसका होना ही अपने आप में महत्वपूर्ण है। अगर यह नहीं होता तो यकीनन वहां रक्त क्रांति हो जाती। आज रशिया एक नये राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान पुनः स्थापित करने की ओर अग्रसर है। यह प्रक्रिया है जिसमे वक्त लग सकता है। कम से कम संभावनाएं तो बनी हुई हैं।
प्रकृति अपने मूल सिद्धांत परिवर्तन पर ही आधारित है। यहां कुछ भी स्थायी नहीं। ऐसे में मानव निर्मित कोई भी व्यवस्था स्थायी कैसे हो सकती है? इतिहास गवाह है। आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था की समस्त धारणाएं वॉल स्ट्रीट की दीवार के धराशायी होने के साथ टूट चुकी हैं। आर्थिक परिस्थितियां ठीक नहीं। बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। जनता में आक्रोश है। असंतोष पनप रहा है। विरोध के स्वर चीख बनकर कानों में सुनाई देने लगे हैं। ऐसे में बाहर की दुनिया छोड़ अमेरिका को पहले अपने घर को संभालने के लिए चिंतित होना चाहिए। अगर उसने समय रहते इस बात को स्वीकार नहीं किया कि उसकी व्यवस्था फेल होती जा रही है तो भविष्य में अनर्थ की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। उसे सुधार नहीं परिवर्तन की आवश्यकता है। अन्यथा यह प्रकृति के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। और इसका भुगतान उसे करना होगा।
कुछ वर्ष पूर्व तक अमेरिकी अर्थशास्त्र के अंधे पंडित यह कहते नहीं थकते थे कि अब किसी भी नयी व्यवस्था की आवश्यकता नहीं। और नयी व खुली आर्थिक व्यवस्था के साथ हम युगों युगों तक जीयेंगे। उनका सपना युग तो छोड़ कुछ वर्षों में ही टूट गया। बैंकों की हालत खराब है। कई कंपनियां रातों-रात दिवालिया घोषित हो चुकी हैं। अमेरिका जनता परिवर्तन के लिए बेसब्र है। बराक ओबामा की जीत को इसी संदर्भ में रख कर देखा जा सकता है। ऐसे में बराक ने भी इस परिवर्तन की आवश्यकता को नजरअंदाज किया तो आंधी में वह भी धूल की तरह उड़ा दिये जाएंगे। नयी सोच नयी प्रणालियों की सख्त जरूरत है। समय दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। गोर्वाचोव द्वारा वर्षों पूर्व, अमेरिकी पिरिस्त्रोइका के पीछे दिए गए सभी तर्क आज ठीक लगते हैं। तभी तो अमेरिकी जनता ने भी बड़ी गर्मजोशी व तालियों के साथ उनके भाषण का स्वागत किया था।
आज अमेरिका ही नही विश्व को भी एक विश्वस्तरीय पिरिस्त्रोइका की आवश्यकता है। विश्व में परिवर्तन की आंधी तूफान बनने के कगार पर है। ऐसे में भारत चुप रहा तो ठीक न होगा। पश्चिम में फेल हो चुकी धारणाओं का अंधानुकरण आत्मघाती होगा। भारत भी अपने पिरिस्त्रोइका के इंतजार में तैयार हो रहा है। समय रहते नहीं चेता गया तो हिसाब-किताब जनता करेगी।