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लेखकों की आर्थिक अवस्था पर विरोधाभास मत

एक सम्मानीय हिन्दी दैनिक समाचारपत्र के संपादकीय पृष्ठ पर एक टिप्पणी छपी। यह पुस्तक विमोचन कार्यक्रमों के संदर्भ में थी। लिखा गया था कि किस प्रकार आजकल रईस और रसूखदार लेखक पूरे तामझाम के साथ अपनी पुस्तक का विमोचन करवाते हैं और किस तरह से आज के प्रकाशक मालदार हो गए हैं। प्रेमचंद की गरीबी को याद किया गया था। टिप्पणीकार ने यह दिखाने की कोशिश की थी कि प्रभावशाली लोग लेखन के क्षेत्र में आकर जबरन अपने प्रभाव से किताबों को छपवाते हैं, बिकवाते हैं और अपना लोहा मनवाते हैं। संवेदनशील पुराने लेखकों का जमाना टल गया। अप्रत्यक्ष रूप से यह कहने का प्रयास किया गया था कि इस तरह के लेखक न तो लेखन में गंभीर होते हैं और न ही इनमें समाज के प्रति संवेदनाएं होती हैं। यह अपने शौक और वाहवाही के लिए लिखते हैं। यह एक स्वतंत्र और खुली टिप्पणी थी। इसे किसी चर्चित पुस्तक लोकार्पण की दास्ता के रूप में प्रस्तुत किया गया था। चूंकि इसका विषय पुस्तक व लेखन से संबंधित है, इसलिए एक स्वतंत्र लेखक की हैसियत से, उस पर विचार-विमर्श करने का अवसर मैं नहीं गंवाना चाहता।

इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी लेखक-कवि का नाम आते ही एक गरीब व फटेहाल व्यक्ति का चेहरा आंखों के सामने से घूम जाता है। इस तरह की लेखकीय छवि आम भारतीय के मस्तिष्कपटल पर गहरे तक अंकित है। सामान्यजन ही नहीं पाठक भी कुछ ऐसा ही महसूस करते हैं। पैरों में टूटी चप्पल, कंधे पर लंबा झोला, बढ़ी हुई दाढ़ी और आंखों पर मोटा चश्मा, इनका कुर्ता भी अमूमन गंदा होना चाहिए, ऐसी आमधारणा होती है। और फिर तमाम मंच से, साहित्यिक कार्यक्रमों में विचार-विमर्श के दौरान, लेखों में, लेखक की आर्थिक बदहाली पर चर्चा की जाती है। समाज की व्यवस्था का रोना रोया जाता है। प्रकाशक के साथ-साथ पाठक पर भी दोषारोपण होता है। और फिर गाहे-बगाहे लेखकों की आर्थिक रूप से मदद करने के लिए सरकार से गुहार लगाई जाती है। आज के सेठ साहूकारों से सहायता प्राप्त करने की कोशिशें की जाती है। आमतौर पर लेखक भी घर-परिवार को चलाने के साथ-साथ अपने शौक और भांति-भांति के नशों को पूरा करने के लिए किसी न किसी जुगाड़ में लगे रहते हैं। सीधे-सीधे यह कहना कि ये अपने लेखन में इसके लिए समझौता भी कर लेते हैं, उचित नहीं होगा। लेकिन इसकी संभावना को पूरी तरीके से नकारा भी नहीं जा सकता। ऐसी परिस्थिति में कोई पहले से समाज में स्थापित व्यक्ति पूरी लगन के साथ साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश चाहता है तो उसके आगमन पर किसी भी प्रकार के प्रतिक्रिया की आवश्यकता है? यहां विरोधाभास है जो हमारी दुविधा को प्रदर्शित करता है।

हिन्दुस्तान के विशाल जनसमूह की आम बातचीत में लेखकों पर ऐसी चर्चा होती रही है। अनुभव विचारों को बल देते हैं। हिन्दी लेखक के उपरोक्त चित्रण को कहीं न कहीं लोकप्रिय गालिब की मुफलिसी से जोड़कर देखा जा सकता है। भारतीय सभ्यता में आदिकाल से गुरु, विचारक और धर्मशास्त्री, दीन-दुनिया व भौतिक संसार से दूर जंगलों-आश्रमों में साधना करते हुए जीवन व्यतीत करते थे। इसके मूल में यह विचार थे कि चिंतक का स्वतंत्र होना आवश्यक है। चूंकि वो किसी राजा की चापलूसी नहीं कर सकता, न ही करना चाहिए, इसलिए समाज से दूर एक साधु-संत की तरह तपस्या में लीन रहना उत्तम है। अन्यथा सांसारिक जीवन के मोहमाया में फंसकर उनकी विचारधारा, दर्शनशास्त्र और लेखन पर असर पड़ सकता है।

पश्चिम में ऐसा कभी नहीं रहा। वहां का साहित्यकार वर्ग प्रतिष्ठित के साथ-साथ सुविधा संपन्न रहा। इसका मतलब यह नहीं कि उनकी रचनाएं, विचारधाराएं खोखली या हल्की थीं। यह कोई जरूरी नहीं कि एक खाता-पीता और प्रभावशाली व्यक्ति संवेदनशील नहीं हो सकता, एक विचारक नहीं हो सकता, उसका दर्शन नहीं हो सकता। उलटे वह तो समाज के बेहतरी में, स्वतंत्र रूप से अपनी बातें मजबूती से सामने रख सकता है। दैनिक जरूरतों से चिंतामुक्त रचनाकार सृजन में बेहतर ध्यान केंद्रित कर सकता है। हिन्दुस्तान पिछले कुछ दशकों से पश्चिमी विचारधारा के प्रभाव में आया है। उसकी सामाजिक परिस्थितियां बदली हैं। हर वर्ग ने आर्थिक उन्नति की है। बहुत हद तक लेखकों में भी इसका प्रभाव है। मगर न तो लेखक पुरानी छवि से निकलना चाहता है और न ही हिन्दुस्तान का पाठक वर्ग अपने लेखक को इस छवि से मुक्त करना चाहता है। यह हमारी सोच की बेड़ियां हैं। जो जाने-अनजाने ही प्रकट हो जाती है।

यूरोप का लेखक प्रारंभ से ही समाज में अत्यधिक लोकप्रिय और आर्थिक रूप से समृद्ध था। टॉलस्टाय, चेखव एवं अनातोले फ्रांस इसके कुछ उदाहरण हैं। और जो गरीब थे वे सफलता के बाद साधन संपन्न हुए। ऐसा नहीं कि हिन्दुस्तान की तसवीर बिल्कुल भिन्न थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर एक समृद्ध जमींदार परिवार के थे। हिन्दी क्षेत्र में भी ऐसे कम उदाहरण नहीं। महादेवी वर्मा खाते-पीते परिवार की थीं। बच्चन, अज्ञेय व दिनकर के पास उस युग की आवश्यकतानुसार साधन सुविधाओं की कोई कमी न थी। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला गरीबी का एक उदाहरण हो सकते हैं मगर सुमित्रानंद पंत अच्छे परिवार से थे। राजनीतिक व सामाजिक रूप से भी ये सभी प्रभावशाली थे। आज तो परिस्थितियां वैसे भी बहुत बदल चुकी हैं। आम भारतीय की औसत आमदनी बढ़ चुकी है। समाज ने विकास किया है। लोगों के पास पैसा आया है। विज्ञान ने उन्नति की है और उसकी झलक हर जगह देखी जा सकती है। समाचारपत्र स्वयं इसके उदाहरण हैं। संपादकों को मासिक तनख्वाह में अब मोटी रकम मिलती है। पत्रकार सुविधापूर्ण जीवन जीते हैं। दूसरी तरफ चमकीले भड़कीले विज्ञापन से लैस और सनसनी से डूबी पत्र-पत्रिकाएं बिक्री के लिए हर वो हथकंडे अपनाती हैं जो बाजार में चलता है। तो क्या यह मान लिया जाये कि ये सब अपने नैतिक दायित्व व सामाजिक सरोकार से दूर हो गए हैं? शायद यह पूर्णतः सच न हो। असल में समयानुसार सफलता व लोकप्रियता के लिए यह सब आवश्यक हो गया है। सवाल उठता है कि फिर साहित्य को ही गरीबी के खूंटे से बांधकर क्यूं रखा जाये? यह संकीर्ण मानसिकता है। जब तक लेखक अपनी लेखनी में न्याय करता रहे, कम से कम तब तक उस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं होनी चाहिए।

वैसे तो यह पूर्व में भी था मगर आजकल बुद्धिमानों में, खासकर लेखन के क्षेत्र में ईर्ष्या की भावना ज्यादा दिखाई देती है। ज्ञानी अधिक संकीर्ण हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? पता नहीं। ऊपर से किसी को आगे बढ़ते देखकर, टांग खींचना लेखन व कला के क्षेत्र में अधिक नजर आने लगा है। आज यह आम कलाकार की पहचान है। किसी को फलता फूलता देख हमारे पेट में दर्द होता हैं। हम स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा में विश्वास नहीं रखते। प्रतिभाओं का लोहा नहीं मानते। और फिर सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए कुछ भी कहने-करने पर उतारू हो जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि लेखन का मूल्यांकन हो न कि लेखक का।

इन तमाम तर्कों के बावजूद संदर्भित टिप्पणी की मूल भावना को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। आजकल पैसा देकर कचरा लेखन छपवाने की बाढ़-सी आई हुई है। विशेषकर पंजाब व आसपास के क्षेत्र में तो डॉलर/पाउंड लेकर पुस्तक प्रकाशित की जा रही है और प्रकाशक मालामाल हो रहे है। छुट्टियों में स्वदेश आये प्रवासी भारतीय पंद्रह दिन में अपनी पुस्तक का प्रकाशन, लोकार्पण और समीक्षा लिखवाकर स्वयं को साहित्य में फास्ट फूड की तर्ज पर स्थापित करने का प्रयास करते हैं। मगर यह लंबे समय तक चल नहीं पाता। इसका मतलब यह भी नहीं कि सभी संपन्न रसूखदार कचरा पैदा कर रहे हैं। कई निःस्वार्थ भाव से शब्द साधना में जुटे हैं और तन-मन के साथ-साथ धन को भी सेवा में लगा दिया है। यह तो यज्ञ है, इसमें जितनी भी आहुतियां पड़े उतना उत्तम है और फिर प्रसन्न होने पर ईश्वर का पता नहीं वह कब किसी महान कलाकार को कचरे में कमल-सा खिलने के लिए कह दे या फिर महलों में अवतार ले ले।

लेखन और सृजन किसी वर्ग, जाति, आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था का गुलाम नहीं। सृजन करना एक विशिष्ट मानवीय गुण है। यह ईश्वर की मनुष्य को खूबसूरत भेंट है। सृजन के लिए आवश्यक दर्द-पीड़ा किसी को भी हो सकती है। संवेदनाएं और भावनाओं का पनपना किसी मानवीय परिस्थिति का मोहताज नहीं। एक गरीब, गरीब होते हुए भी गरीबी का अहसास नहीं कर सकता है, वहीं एक अमीर किसी गरीब की संवेदनाओं को सहजता से महसूस करके व्यक्त भी कर सकता है, उसे शब्द दे सकता है। वैसे भी साहित्य सिर्फ गरीबों के लिए ही नहीं है। मात्र आर्थिक बदहाली को व्यक्त करने के लिए यह नहीं रचा जाता। यह तो समाज के हर पक्ष हर वर्ग के लिए है।

सभ्यता ने विकास किया, परिणामस्वरूप मध्यम और उच्च वर्ग तैयार हुआ। इस वर्ग की भी अपनी परेशानियां हैं अपने दर्द हैं अपने दुख हैं। इनका भी प्रतिनिधित्व होना चाहिए और उन्हें भी शब्दों का रूप दिया जाना चाहिए। इस कार्य को करने के लिए किसी साहित्यकार का गरीब होना आवश्यक नहीं। साहित्य को किसी भी वर्ग विशेष के लिए प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। लेखन स्वतंत्र होने का एक प्रमाण है। यह क्या! किसी एक को सिर्फ इसीलिए स्थान नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि वो रसूखदार है? और अगर ऐसा सिद्धांत साहित्य के लिए आवश्यक है तो राजनीति/पत्रकारिता में क्यों नहीं? ये भी तो सेवा का क्षेत्र है। उलटे अभावग्रस्त को सत्ता प्राप्त करने पर ज्यादा लालची होते देखा गया है, वहीं सुविधा संपन्न को संतोषी। अपवाद दोनों ही उदाहरण में हो सकते हैं। असल में साहित्य हो या राजनीति या फिर पत्रकारिता, हर एक का यहां स्वागत होना चाहिए। इसे सकारात्मक रूप में लिया जाना चाहिए। घर की खिड़की खुली रखने से रोशनी के साथ-साथ शुद्ध ताजी हवा भी आती है। जो स्वास्थ्य के लिए उत्तम है।