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संतोष में ही सुख है
मैं पता नहीं इस योग्य हूं भी या नहीं। शायद भाग्यवश ही तकरीबन तीन दशक पूर्व, मध्यप्रदेश की मैट्रिक परीक्षा में मैंने राज्य की मैरिट सूची में पांचवां स्थान प्राप्त किया था। तब जाने-अनजाने ही प्रथम न आ पाने का दर्द अनायास उभरा था। जो फिर जाते-जाते भी अपने निशान दिल-दिमाग पर छोड़ गया। गाहे-बगाहे यह आज भी टीस बनकर उभरता है। चूंकि उसके बाद मैंने कोई विशेष तीर नहीं मारा, इसलिए अपनी उपरोक्त उपलब्धि पर मुझे मन ही मन कभी-कभी संदेह उत्पन्न होता है। शायद यही कारण है जो इसे ईश्वर का दिया हुआ विशेष आशीर्वाद मानकर चुप ही रहता हूं और इसका कहीं विशेष जिक्र नहीं करता। लेकिन प्रथम आने की कशिश आज भी जिंदा है। संयोगवश धर्मपत्नी ने भी दिल्ली सीबीएसई बोर्ड की परीक्षा में मैरिट में स्थान प्राप्त किया था। छात्राओं के बीच वो प्रथम थीं। मेरे मतानुसार वह अपने करिअर में वर्तमान उपलब्धियों से भी कहीं अधिक ऊंचाइयां प्राप्त कर सकती थीं। इसके लिए भी एक बार फिर मैं उनके भाग्य को जिम्मेवार मानता हूं। इसे नियति ही कहेंगे कि कई दूसरी अखिल भारतीय परीक्षाओं में उन्होंने आवेदन ही नहीं किया। इस बात का मलाल उन्हें कहीं न कहीं आज है या नहीं? पता नहीं। वह पुरानी बातों को कुरेद कर उद्वेलित होती हैं या नहीं? लगता नहीं। कभी जिक्र भी नहीं किया, अर्थात वर्तमान से वह खुश लगती हैं। उन्हें जीवन में संतोष है। मगर, अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, मेरी चाहते आज भी जिंदा हैं। और मैं इसे आज भी किसी न किसी तरह से प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहता हूं। अमूमन बच्चे मां-बाप के सपनों को पूरा करने का एकमात्र माध्यम बन जाते हैं। ऐसा ही कुछ प्रयास मैंने भी अपने घर में किया।
कुछ वर्ष पूर्व बड़ी बेटी ने शहर के प्रतिष्ठित स्कूल में कई सालों का रिकार्ड तोड़ते हुए बोर्ड की परीक्षा में जब अपने स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया, तो यह परिवार में विशेष खुशी की बात थी। मगर यह मेरी दबी-छिपी महत्वाकांक्षा की भूख को पूरा करने के लिए काफी नहीं था और अपने जीवन के सपनों को साकार करने के लिए मेरी सारी ऊर्जा एकमात्र आशा के रूप में बची छोटी बेटी पर केंद्रित हो गई। चूंकि वह भी बचपन से ही बहुत अच्छा रिजल्ट दे रही थी तो मन ही मन उम्मीद जागी कि यह सीबीएसई बोर्ड में ऐसा कुछ करेगी जिससे मेरी बची हुई अभिलाषाएं शायद पूरी हों। और मैं अपनी इन अधूरी इच्छाओं को पूरा होने का ख्वाब कई माह पूर्व से देखने लग पड़ा था।
विगत सप्ताह सीबीएससी दसवीं का परीक्षाफल घोषित हुआ। छोटी बेटी ने सत्तानवे प्रतिशत अंक प्राप्त किये। परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए यह प्रतिशत गर्व करने योग्य है। इस पर खुशी में पागल हुआ जा सकता है और यही कारण है जो परिवार में उत्सव का माहौल था। मगर मेरे मन में एक कांटा चुभ रहा था। वह मात्र पांच नंबरों से संपूर्ण क्षेत्र में प्रथम स्थान प्राप्त करने से चूक गईं थी। और उसका स्थान पांचवां था। यह मेरे लिये एक झटका था। इससे बड़ी तकलीफ मुझे इस बात की थी कि जिस लड़की ने प्रथम स्थान प्राप्त किया वह उसी स्कूल की थी और बेटी से अमूमन कुछ आगे-पीछे ही रहा करती थी। वैसे वह भी प्रतिभाशाली है। उस भाग्यशाली होनहार छात्रा का साक्षात्कार सहित फोटोग्राफ तमाम समाचारपत्रों के मुख पृष्ठ पर छपा था। छपना ही था, लेकिन इसे देखकर मुझ जैसे तथाकथित चिंतक लेखक को भी एक पल के लिए तकलीफ हुई थी। यह जानते और समझते हुए भी कि इस तरह की भावना व व्यवहार उचित नहीं, मैं एक बार फिर अपने भाग्य को दुर्भाग्य घोषित करके कई घंटों तक बेचैन मगर चुप रहा। बधाई के लिए सैकड़ों मित्रों व शुभचिंतकों के फोन आये। वे सभी इतने अधिक प्रतिशत सुनकर अचरज भी महसूस करते और बेटी से सफलता के राज भी पूछते। शायद वे इसका उदाहरण दे-देकर अब अपने बच्चों पर दबाव डालेंगे। बहरहाल, सभी ने बेटी का भविष्य उज्ज्वल होगा, ऐसा खुलकर आशीर्वाद दिया था। मगर मैं फिर भी, बिना पूछे, इस बात की बेवजह सफाई देने के लिए स्वयं ही बोल पड़ता कि मेरी बेटी दुर्भाग्यवश कुछ अंकों से मात खा गई। अधिकांश सुनने वालों ने इस बात पर गौर नहीं किया था और अति उत्तम रिजल्ट पर ही चर्चा की थी। कुछ समय पश्चात, निष्पक्ष और शांत होकर देखा तो पाया कि प्राप्त हुआ अंक नाते-रिश्तेदार और दोनों तरफ के खानदान में अब तक का सर्वश्रेष्ठ परिणाम है, फिर भी मैं संतुष्ट नहीं था। इसे मेरा पागलपन नहीं तो क्या कहेंगे? आज के युग की आधुनिक बीमारी का एक जीवंत उदाहरण के रूप में भी इस घटनाक्रम को देख सकते हैं।
इस तरह की महत्वाकांक्षा को पालने वाला मैं कोई अकेला अभिभावक नहीं हूं। उपरोक्त कथा सुनाने के पीछे अपनी पारिवारिक उपलब्धि को प्रदर्शित करने का शौक भी नहीं है मुझे। यह उदाहरण इस बात का प्रमाण मात्र है कि इतना मिलने के बाद भी आज के आदमी में संतोष नहीं। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे। आज की प्रतिस्पर्द्धा के युग में इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। स्वयं का उदाहरण देने के पीछे एकमात्र कारण था कि पाठक इसे सही रूप में सीधे-सीधे समझ सकें। उन्हें यह प्रभावित करेगा। स्वयं की आलोचना व मनःस्थिति के विश्लेषण का प्रस्तुतीकरण, अचूक ब्रह्मास्त्र है जो पाठक पर असर किए बिना नहीं रह सकता।
कुछ दिनों बाद ही मुझे अपनी बेवकूफी का अहसास हुआ। इस स्तर तक पढ़ने-लिखने के बावजूद भी मैं उसी बीमारी से ग्रसित निकला जिसके विरोध में लिखता रहा हूं। आम माता-पिता सदैव अपनी महत्वाकांक्षाओं को अपने बच्चे पर थोपते हैं। यह हानिकारक है और व्यक्ति विशेष, परिवार और समाज के लिए नुकसानदायक भी। यह शारीरिक व मानसिक दोनों तरह से परेशान कर सकता है। दबाव के कारण छात्र अच्छा रिजल्ट नहीं दे पाता। आमतौर पर हम सामाजिक व्यवस्था पर दोषारोपण करते हैं मगर बच्चे पर सबसे अधिक दबाव माता-पिता का ही होता है। वे उससे बहुत अधिक अपेक्षा करते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चा शिखर पर पहुंच जाए, और कुछ नहीं तो कम से कम उनसे आगे निकले। बच्चों के विकास की बातें करना अच्छी बात है, उनको मेहनत करने के लिए प्रेरित करना हर माता-पिता का उद्देश्य होना चाहिए। मगर उसे जबरदस्ती पकड़कर ऊपर खींचना, अपनी भावनाओं को उन पर जबरन लादना एक तरह का जुल्म करना है। जिसके दबाव में आकर बच्चे अपना स्वाभाविक गुण भूल जाते हैं। प्रतिभाएं नैसर्गिक रूप नहीं ले पातीं। अभ्यर्थी-शिक्षार्थी अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाते। वे स्वतंत्र नहीं हो पाते, सदैव दूसरों की इच्छाओं पर चलते हैं। दूसरों की तरह सोचते हैं। उनका अपना कुछ नहीं होता।
उपरोक्त घटनाक्रम को एक चिंतक के रूप में देखने सोचने पर, कई छोटे-छोटे मगर महत्वपूर्ण बिन्दुओं ने आकर मुझे झकझोरा था। विश्लेषण किया तो पाया कि परीक्षा परिणाम निकलने से पूर्व तक मैं किसी अनहोनी से डरा हुआ था। ईश्वर से रोज प्रार्थना करता था कि बेटी अच्छे अंकों के साथ बोर्ड की परीक्षा में पास हो। कम से कम सम्मानीय प्रतिशत जरूर आ जाए। यह दीगर बात है कि मन ही मन अपनी महत्वाकांक्षा को भी कहीं न कहीं पालता रहता था। मगर एक डर बना रहता था। अति उत्तम नंबर आने के बाद प्रथम प्रतिक्रिया तो यही थी कि ईश्वर ने विशेष कृपा दिखाई है। लेकिन फिर धीरे-धीरे उसी दबी-छिपी महत्वाकांक्षा ने अपने पैर पसारे थे जिसने मन में ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिद्वंद्विता और अन्य मानवीय अवगुणों को बढ़ाना शुरू किया। और कई दिनों तक मैं इस संक्रामक रोग से ग्रसित होकर, एक बीमार व्यक्ति बनकर भटकता रहा। जब तक संभल पाता मैं अपनी दूषित भावनाओं को प्रचारित प्रसारित करता रहा। जब तक संतुलित हो पाता स्वयं व समाज को नुकसान पहुंचा चुका था। यह आज के जमाने की फितरत है, जो मिला उससे कभी हम संतुष्ट नहीं होते और जो नहीं मिला उसके लिए परेशान रहते हैं।
विभिन्न परीक्षाएं, उनके परिणाम, प्राप्त अंक और प्रतिशत महत्वपूर्ण हैं, मगर जीवन से बढ़कर नहीं। प्रतिस्पर्द्धा स्वस्थ व सीमाओं में होनी चाहिए। ये सीढ़ियां हो सकती हैं, लक्ष्य/मंजिल नहीं। ऐसी कई सीढ़ियों को जीवन में लांघना होता है। सभी बच्चे सुखमय जीवन व्यतीत करें ऐसी शुभकामनाएं तो है ही, मगर अभिभावकगण इस तरह के पागलपन से बच सके, इस लेख को लिखने के पीछे असली मंशा यही है। अपने सामाजिक दायित्व को निभाने के उद्देश्य से इस लेख को खुलकर लिखना जरूरी समझा। आज की प्रतिस्पर्द्धा में जाने-अनजाने ही हरेक अभिभावक इस बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं। और वो अपनी प्रदूषित व संकीर्ण विचारधारा को बच्चों पर थोपने में कहीं भी कोताही नहीं बरतते। ईश्वर ने मुझ पर तो एक बार फिर मेहरबानी की, जो मेरी बेटी ने कम से कम इस परीक्षा परिणाम को स्वस्थ रूप में स्वीकार किया और अपनी उपलब्धि पर खुशी मनाते हुए दोहरे उत्साह के साथ भविष्य की अपनी योजना के लिए जुट गई। यह एक सकारात्मक सोच है। आशा करता हूं कि युवा पीढ़ी अपने बड़ों के दबाव को स्वीकार किए बिना, अपनी लगन और मेहनत से अपना काम करेगी। बस। परिणाम की चिंता करना व्यर्थ है। हम सबको जो भी प्राप्त होता है, उसे उसी रूप में स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना चाहिए। यह जीवन जीने की कला है। यह सफलता से अधिक महत्वपूर्ण है।