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पुस्तक लोकार्पण के बहाने

सृजन के मूल में दुःख-दर्द के बीज होते हैं और यह पीड़ा से ही उत्पन्न होता है। अमूमन इसकी संपूर्ण प्रक्रिया भी पीड़ादायक होती है। फिर चाहे वो कला का क्षेत्र हो, लेखन हो, संगीत हो या फिर नारी के द्वारा भोगी गई प्रसव पीड़ा। मगर फिर अंतिम परिणाम देखकर जिस सुख की अनुभूति होती है उसका बयान करना थोड़ा मुश्किल है। संक्षिप्त में कहें तो इसके सामने अन्य सभी सांसारिक सुख फीके पड़ जाते हैं। सृजनकर्ता को जिस आनंद की प्राप्ति होती है उसमें खुद डूबा तो जा सकता है मगर दूसरों को व्यक्त नहीं किया जा सकता। अर्थात इस प्रक्रिया में उतरना होगा। समुद्र के किनारे खड़े होकर उसकी गहराई नहीं नापी जा सकती। वैसे सृजन सदा बहुत महान और विशेष ही हो ऐसा भी नहीं है। बहुत साधारण उदाहरणों में भी इसे देखा जा सकता है। रोजमर्रा के जीवन में खाना बनाना एक नियमित दैनिक कार्य दिखाई देता है परंतु यह भी एक तरह का सृजन ही है। जो इसका आनंद लेते हैं, उनसे पूछिये, खाना बनाने के बाद उन्हें कैसा अहसास होता है? और फिर खाने वाला अगर जी भर के खाये तो बनाने वाले को जो आत्मसंतुष्टि मिलती है उसे बयां नहीं किया जा सकता। ऊपर से अगर कोई बड़ाई कर दे तो फिर क्या कहना। बनाने वाला खुशी के मारे झूम उठता है।

ऐसा ही कुछ अहसास किताब के प्रकाशित होने पर लेखक को महसूस होता है। वो अपनी हर एक रचना को अपने बच्चे के समान लेता है, उसे पालता है पोसता है बड़ा करता है और फिर सज-धज कर पूरी तरह से तैयार हो जाने पर उसे निहारता है। आत्ममुग्ध होता है। इसमें उसे आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति होती है। वो इस खुशी को लोगों के साथ बांटना चाहता है। दुनिया को दिखाना चाहता है। इसमें कहीं न कहीं समाज से सकारात्मक प्रशंसा के दो शब्द सुनने की अभिलाषा अवश्य छुपी होती है। वो गर्व करना चाहता है। इसके पीछे उसका अहम्‌ भी जुड़ा होता है। विशाल हृदय वाली, चाहे हम जितनी भी बात कर लें, रचनाकार आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता। वह तो अपनी उपलब्धि में मंत्रमुग्ध हो रहा होता है और अपनी व्यक्तिगत खुशी को सामाजिक जश्न में परिवर्तत करने के लिए आतुर होता है। मन ही मन वो चाहता है कि लोग उसकी रचना को पढ़े, उसको समझे, उसके बारे में जानें, बात करें। लोकप्रियता का नशा, इसका छोटा-मोटा इंजेक्शन यहां भी लगा होता है। और यहां से शुरू होता है लोकार्पण समारोह आयोजित करने की आवश्यकता का घटनाक्रम।

लोकार्पण और भी अन्य कारणों से आवश्यक हो जाता है। फिर चाहे वो छोटे-छोटे सामान्य से दिखने वाले कारण ही क्यों न हो। सर्वप्रथम आम पाठक को यह बताने के लिए कि आपने कुछ लिखा है, इस तरह के कार्यक्रम जरूरी हो जाते हैं। प्रचारतंत्र तक पहुंचने के लिए भी किसी प्लैटफार्म की आवश्यकता होती है। पुस्तक विमोचन का आयोजन इसकी एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसके द्वारा आप कार्यक्रम में बुलाये गए चुनिंदा लोगों तक तो सीधे पहुंच सकते हैं साथ ही मीडिया के माध्यम से अपने आप को बाहर की विशाल दुनिया तक भी ले जा सकते हैं, प्रदर्शित कर सकते हैं। और यहीं पर तथाकथित अनुभवी व ज्ञानी अतिथियों के द्वारा लेखक के लिए बोले गए प्रशंसात्मक शब्दों से उसकी हौसला-अफजाई भी होती है। असल में प्रशंसा सुनने की मानवीय कमजोरी को हम नकार नहीं सकते। यह बैटरी चार्जर का काम करता है और आज के युग के लिए तो अति आवश्यक है।

इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह के कार्यक्रम करने पर धन, शक्ति और ऊर्जा का व्यय होता है। फिर भी रचनाकार इस ओर साहसिक कदम बढ़ाता है। मगर फिर सहयोग के स्थान पर अपने ही लोगों के द्वारा ईर्ष्या और टांग खींचने की प्रवृत्ति से वह आहत होता है। साहित्य की राजनीति से वो कसमसा के रह जाता है। विशिष्ट अतिथियों का चुनाव, उनकी स्वीकृति और फिर उनकी रहने खाने की व्यवस्था, आम लोगों को आमंत्रित करना, कार्यक्रम में खाने-पीने-बोलने-बैठने का इंतजाम, इन सबमें यकीनन उसे सृजन से अधिक तकलीफ होती है। अकसर उसके आनंद का प्रवाह अवरुद्ध होने लगता है। लेकिन फिर भी वह अपनी रचना को दुनिया को दिखाने के लिए इतना आतुर होता है कि वो इन गतिरोधों-मुश्किलों को भी, हंस कर झेल जाता है। यह भी एक नशा है।

मेरे नये कहानी संग्रह ‘मेरी पहचान’ के लोकार्पण को लेकर मुझमें मिश्रित भावनाएं थीं। इसकी आवश्यकता पर प्रश्नचिह्न लग रहा था। मगर उपरोक्त तर्क-वितर्क का ही नतीजा था कि इसे मैं एक बार फिर आयोजित करने के लिए प्रेरित हुआ। और जो भी काम करो अच्छे से करो इस मूल धारणा के तहत अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश की। इस संदर्भ में दूसरों के द्वारा बहुत कुछ कहने के बावजूद भी मैं पीछे नहीं हटा। आज के युग में जब बच्चे के जन्मदिवस की पार्टियों पर लाखों खर्च कर दिये जाते हैं, किटी के नाम पर हजारों फूंक दिये जाते हैं, दोस्तों के बीच साप्ताहिक जश्न की पार्टियां दी जाती हैं, वहीं पर शब्द साधना की इतनी बड़ी उपलब्धि पर एक अच्छा आयोजन क्यों नहीं किया जा सकता? और इसी बिन्दु पर आकर एक बार फिर मैं लोकार्पण के भंवर में बहता चला गया।

मुख्य अतिथि एवं अन्य विशिष्ट अतिथियों का चयन एक मुश्किल कार्य है। कम से कम मुझ जैसे शख्स के लिए, जिसके सोचने का दृष्टिकोण एकदम सरल व स्पष्ट है। मेरे मतानुसार मुख्य अतिथि एक ऐसा शख्स होना चाहिए जो ज्ञानी और संदर्भित क्षेत्र में अनुभवी के साथ-साथ नामी भी हो। और उसका अच्छा वक्ता होना अति आवश्यक है। इनके बिना कार्यक्रम में जान नहीं फूंकी जा सकती। इस पैमाने पर देखें तो हिन्दी साहित्य में संख्या काफी कम रह जाती है। और जो हैं उनकी उपलब्धता और स्वीकृति प्राप्त करना एक पेचिदा कार्य है। बहरहाल, रवीन्द्र कालिया एवं ममता कालिया दोनों ही साहित्य के साथ-साथ मीडिया में भी एक जाना-पहचाना नाम है। और यही कारण था कि दोनों के साथ-साथ आने से लोकार्पण कार्यक्रम की शोभा बढ़ी। ममता कालियाजी का वक्तव्य जहां सरलता में गंभीरता लिये हुए था वहीं रवीन्द्र कालियाजी ने अपने सहज और मजाकिया अंदाज में दर्शकों से सीधे संपर्क साध लिया। मगर कुछ पंक्तियों के अपने छोटे से वक्तव्य में ही वे बहुत कुछ बोल गए। यह एक कला है। असाधारण गुण है जो सबमें नहीं पाया जाता। मुझे ऐसी अदा ज्यादा पसंद आती है। ऐसा संवाद जो श्रोताओं से सीधे-सीधे जुड़ जाये, फायदेमंद होता है।

जैसे-जैसे आप लोगों के बीच पहचाने जाने लगते हैं वैसे-वैसे लोगों की आपसे उम्मीद बढ़ती जाती है। यह एक घुमावदार चक्र है। मगर यहां हर मोड़ पर नवीनता मिलेगी। इस बार के कार्यक्रम में और भी बहुत से नये अनुभव हुए जिन्हें अन्य के साथ बांटने में कोई हर्ज नहीं। कुछ एक ने तो मुझे हंसने के लिए मजबूर कर दिया था। यकीनन यह दूसरों को भी गुदगुदायेंगे। एक विद्वान मित्र मेरी हर कार्यक्रम में खिंचाई करते थे, दर्शकदीर्घा में भी बैठकर खूब मजाक उड़ाते थे, बेवजह। इस बार निमंत्रण न मिलने पर बेहद परेशान हुए और अंतिम दिन तक किसी भी तरह से निमंत्रण पत्र प्राप्त करने की कोशिश करते रहे। एक दूसरे लेखक को कार्यक्रम के दिन सुबह-सुबह मैंने फोन किया और निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ कि नहीं, जानकारी ली। और फिर व्यक्तिगत रूप से आने के लिए निवेदन किया। विद्वान मित्र ने बहुत धीरे से पूछा, ‘मुझे आप किस रूप में बुला रहे हैं, अगर यह कार्ड में भी लिखा होता तो बेहतर होता।’ एक मिनट के लिए तो मेरे सोचने की प्रक्रिया समाप्त हो गई थी। मैं उनकी उम्र और अनुभव से ज्यादा अपनी सहिष्णुता का परिचय देते हुए मौन रहा। आवेश में आकर एक मिनट के लिए तो यह बोलना चाह रहा था कि अगर मुख्य अतिथि बनाया गया होता तो निमंत्रण पत्र में जरूर लिखा होता और अगर नहीं लिखा है तो बोलकर आपने अपने आप को कितना छोटा कर लिया। मगर मैं कह नहीं सका। मन ही मन यह विचार आया कि पूछ लूं, क्या आप मुख्य अतिथि बनने लायक हो? यहां सवाल उठता है कि क्या आम दर्शक के रूप में नहीं आया जा सकता? एक मिनट बाद ही मैंने स्वयं से कहा कि सामने वाला विद्वान वास्तव में किसी भी लायक नहीं है। और मैंने बिना कुछ कहे फोन पटक दिया। शायद उन्हें जवाब मिल चुका था। साहित्यकारों में वैसे भी अहम्‌ बहुत अधिक होता है। ऊपर से आजकल हर एक इंसान मंच पर चढ़ना चाहता है। लोकप्रियता का कीड़ा सबको काट चुका है। यह बीमारी आज के युग की पहचान है। हर कोई शिखर पर विराजमान होना चाहता है। यकीन मानिये, मैं जब भी किसी कार्यक्रम में जाता हूं, अंतिम पंक्ति में बैठता हूं। इसके बड़े सारे फायदे हैं। एक, यहां स्थान खाली मिलता है और आदमी आराम से बैठ सकता है। दो, यहां बैठने के लिए कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं करनी पड़ती। तीन, इस बात को हमें नहीं भूलना चाहिए कि पिक्चर हाल में बालकानी पीछे ही होती है। चार, पीछे बैठने पर कार्यक्रम से भागने में आसानी होती है।