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कहानियों में नयेपन के सूत्रधार
हर एक जीवन एक उपन्यास की भांति है तो मनुष्य का हर दिन एक कहानी, जहाँ हर पल कोई कथा एक नये रूप में जन्म लेती रहती है। अपने चारों ओर कहीं भी नजर डालें, कोई-न-कोई घटनाक्रम चलते-दौड़ते-घटते हुए मिल जायेगा। यहाँ पात्र बदलते रहते हैं। उनकी भाषा बदलती है। स्थान बदलता है। भावनाएँ बदलती हैं और बदल रहा है समय। साथ ही बदलती है जिन्दगियाँ। जिसका अन्त भी बदलता है। रूप भी बदलता है। गुण और रास्ते भी बदलते हैं। यही नहीं समाज, सभ्यता, संस्कृति यहाँ तक कि सत्य भी समय के साथ अपना स्वरूप बदलता है। सब कुछ परिवर्तनशील है। युगों से हमारी पीढ़ियों के आने-जाने का क्रम जारी है। यह अन्तहीन श्रृंखला परिवार में क्रमवार उपस्थित है। जहाँ हर बार और कुछ नहीं तो चेहरे बदल जाते हैं। नाम बदल जाता है। बेटा, बाप और फिर दादा-नाना बनकर धीरे-से दुनिया से पलायन कर जाता है। जरूरी भी है। नये को जो आना है। कोई और बेटा-बेटी बन कर आ रहा होता है। यही प्रकृति का प्रमुख सूत्र है-जीवन का आधार। तो फिर लेखन में बदलाव क्यों नहीं आना चाहिए? आना चाहिए, आ रहा है। और जो नहीं आयेगा तो साहित्य मृतप्रायः हो जाएगा। जिसमें गति नहीं है, बदलाव नहीं है, परिवर्तन नहीं है, वहाँ जीवन नहीं है। ऐसे साहित्य में स्पंदन नहीं हो सकता। यह साहित्य के जिन्दा रहने का ही आग्रह है जो उपन्यास का स्वरूप बदला, कविता का प्रवाह बदला और साथ ही बदल रही है कहानियाँ। जहाँ कथावस्तु बदल रही है, पृष्ठभूमि बदल रही है, सूत्र व संवाद बदल रहे हैं और बदल रही है शैलियाँ।
अपनी चुनी हुई कहानियों के नये संकलन ‘मेरी पहचान’ को दोनों बच्चों को समर्पित करने के पीछे उपरोक्त बताए गए तर्कों ने प्रमुख भूमिका अदा की थी। वे आने वाला कल हैं, परिवर्तन का प्रमाण हैं। और इनके माध्यम से भविष्य ने वर्तमान बन कर इन कहानियों को लिखने में कई तरह से मेरी मदद की। कई बार ये बच्चे कहानियों में काल्पनिक पात्र बनकर उभरे तो कभी इनके द्वारा पूछे गए प्रश्न, कही गई बातें, कहानी का मूल आधार बन गईं। इनकी दिनचर्या, दोस्तों से बातचीत, स्कूल और कालेज के घटनाक्रम ने कुछ कहानियों की पृष्ठभूमि तैयार की।
मैं बच्चों का प्रशंसक रहा हूँ। अगली पीढ़ी पिछली से आगे रहती है। यह स्वाभाविक है। नयी पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी द्वारा बनाये गये रास्तों पर आगे दौड़ना होता है एक नयी मंजिल की ओर, जो फिर आगे आने वाली पीढ़ी के लिए नये धरातल की स्थापना करती है। यह एक सतत प्रक्रिया है जो निरन्तर जारी है। पुराना नये को अपने सभी अनुभव दे देता है, विरासत में। अब समझ कर उसमें नये अनुभव को जोड़ने का काम आगे वाले का है। नये के पास पुराने से अधिक उपलब्धता होती है। अधिक सुविधाएँ, अधिक जागरूकता। यही कारण है कि नयी पीढ़ी हमेशा आगे होती है। अधिक ज्ञानी, अधिक सूचित, अधिक चतुर और अधिक समझदार भी। पुरानों को इसे स्वीकार करने में कष्ट हो सकता है, मगर यह सत्य है। यकीन से कह सकता हूँ, मैं अपने बच्चों की उम्र में इनसे कम जानकारी रखता था, कम किताबें पढ़ पाया था और कम दुनिया को जानता था। अधिकांश परिवारों में भी शायद यही होगा। ये हमारे भविष्य हैं जिसे सदा उज्ज्वल रहना चाहिए। यही हमारी कामना भी होती है।
बाल्यकाल में जानने की उत्सुकता और युवा वर्ग का उत्साह देखने लायक होता है। उम्र के साथ आदमी परिपक्व हो जाता है, ऐसा उससे अपेक्षित भी है। मगर फिर वो किसी काम का नहीं रह जाता। कम से कम सृजन के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। सृजन के लिए नयी कल्पनाओं का, नये दृष्टिकोण का, नयी सोच का होना आवश्यक है, और ये सब बच्चों और युवाओं में अधिक पाया जाता है। उनके नये सवाल आपको सोचने के लिए मजबूर कर सकते हैं। इनकी ऊर्जा आपको कुछ नया करने के लिए प्रेरित कर सकती है। इनमें नया जोश होता है। जीवन की उमंग। इनकी नवीनता, जागरूकता व मौलिकता नये को प्रमाणित व परिभाषित करती है। इसे लेखन में उतारते ही यह नवलेखन हो जाता है। कहानी का पात्र बूढ़ा हो सकता है, कहानीकार बुजुर्ग हो सकता है, मगर लेखन को नवलेखन बनाये रखने के लिए लेखक में नयी ऊर्जा, नयी दृष्टि, नये विचार, नये पात्र, नये घटनाक्रम, नयी मुश्किलें, नये समाधान चाहिए। अन्यथा या तो रचनाकार अपने आप को रिपीट करेगा और बासी कहलायेगा या फिर थका-हारा कूड़े-कचरे की उत्पत्ति करेगा। यही कारण है जो सृजन के संसार में बच्चों से बेहतर कोई प्रेरणा का स्रोत नहीं बन सकता। ये जीवन को अपनी नजर से देखते हैं। इनके लिए हर पल नया पल होता है। इनमें स्थिरता व स्थायित्व के कारण उत्पन्न सड़न या बदबू नहीं होती। नये विषयों का अभाव नहीं होता। इनके सम्बन्धों में ताजगी होती है। भावनाओं में खुशबू और प्रेम से उम्मीद। इनकी हँसी में उल्लास तो आसुँओं में उष्णता होती है। इनका दिल तेजी से धड़कता है और कुछ कर गुजरने के लिए भड़क उठता है। वे चीजों को यथावत् स्वीकार नहीं करते। उसको देखते-परखते हैं, उसमें खोजबीन करते हैं, पूछताछ करते हैं, विश्लेषण करते हैं। उसे अपनी सोच में अपनी तरह से ढालने की कोशिश करते हैं। समझने का प्रयास तो करते हैं, मगर अमूमन सब कुछ बदल डालने के चक्कर में जुटे रहते हैं, पूरे आत्मविश्वास के साथ। एक नया संघर्ष। यहाँ तक कि समाज को ही बदल डालेंगे, इन सपनों से हर रात वे गुजरते हैं। सपने भी ऐसे जहाँ कोई सीमाएँ नहीं। कोई रुकावट नहीं। अन्तहीन आकाश में ऊँची उड़ान। जहाँ तक पहुँच सके। और यही बनता है परिवर्तन का कारण, जो यथास्थिति बने रहने नहीं देता और व्यवस्था को गतिमान बनाये रखता है।
नयी पीढ़ी नये समय का प्रतिनिधित्व ही नहीं करती, वो नये समाज की उत्पत्ति भी करती है। चूंकि लेखन को समाज से अलग हट कर नहीं देखा जा सकता, इसीलिए उसे अपने समय के साथ होना चाहिए। उसमें अपने वर्तमान को समेटने की शक्ति होनी चाहिए। बीता हुआ कल आज संदर्भित तो हो सकता है मगर उपयोगी भी हो, ज+रूरी नहीं। आज की समस्या को आज का हल चाहिए। समय के साथ सब कुछ परिवर्तनशील है। मुश्किलें अगर नयी हैं तो समाधान भी नये होंगे। गलत और सही भी समय के पैमाने पर चलते हुए ऊपर-नीचे होते रहते हैं। बहुत हद तक बदलते रहते हैं। साहित्य को इनके साथ चलने के लिए समय की गति से चलना होगा और इसीलिए नयी पीढ़ी में जाना होगा। मेरे इसी प्रयास की झलक इन कहानियों में पाठकों को मिलेगी।
पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को अमूमन इस नयेपन की सम्पूर्ण प्रक्रिया से दूर रखने की कोशिश करती है। साहित्य-कला में ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में। ये अनुभवी वरिष्ठ पीढ़ी अपनी अनगिनत पराजय को मस्तिष्क में कहीं छुपा कर पालती-पोसती है और फिर तमाम उम्र तरह-तरह से परोसती है। अपने वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए अनुशासन के नाम पर आने वाले कल को सीमाओं में बाँधने का प्रयास करती है। अपने डर को अनुभव की चाशनी में डुबो कर एक स्वतन्त्र पीढ़ी के नैसर्गिक विकास पर रोक लगाती है। बुजुर्ग सहयोग नहीं करते। सलाह-मशविरा नहीं देते, मार्गदर्शन नहीं करते, स्वयं नेतृत्व करने लग पड़ते हैं। सुनना पसन्द नहीं करते। न मानने पर पूरा संसार सिर पर उठा लेते हैं। आँसुओं में सारे संस्कारों को डुबो दिया जाता है, भावनाओं में सब कुछ भिगो दिया जाता है। संस्कृति व सभ्यता पर दोषारोपण शुरू हो जाता है। पुरानी पीढ़ी अधिकारों की बात तो करती है मगर कर्तव्य से दूर ही रहती है, बचती है। वो तो अपनी महत्वाकांक्षाओं के साथ जीती है और दूसरों के साथ खेलती है। अपनी चुकी हुई बातों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करती है। पकी उम्र में भी अपने सपने बोये जाते हैं। अपने विचार-दृष्टिकोण यहाँ तक कि पसन्द-नापसन्द को भी थोपा जाता है। तर्क से, प्यार से, रिश्तों के बंधन से। कभी-कभी धर्म के नाम पर। कहीं-कहीं बलपूर्वक भी। किस्से कहानी और इतिहास की दुहाई देकर। और यहीं रुक जाता है नयी पीढ़ी का विकासक्रम, उनका कल्पनाओं में उड़ने का प्रयास। नये और पुराने के बीच यह अन्तर्द्वंद्व जारी है और सदा रहेगा। अगर हम इस से बच सकें तो अगली पीढ़ी को एक स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए वातावरण दे सकते हैं। जहाँ वो नये आकाश को छूने के लिए उड़ सकेंगे।