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ऊपरी चकाचौंध की आधुनिक दुनिया

शहर के आधुनिक बाजार में स्थित खाने-पीने की एकमात्र दुकान विगत सप्ताह बंद हुई तो सुनकर मुझे पहले आश्चर्य और फिर दुःख हुआ था। मेरी यह पसंदीदा जगह थी। स्वादिष्ट व्यंजन साफ-सुथरे और उचित दाम पर मिलते थे। बाजार में खरीदारी करते हुए कुछ खाने की इच्छा होने पर कहीं और दूर नहीं जाना पड़ता था। क्या करें, पेट-पूजा एक महत्वपूर्ण व अतिआवश्यक नैसर्गिक दैनिक कर्म है। भूख लगने पर मगर अब मुश्किल होगी। सुना है अब वहां कपड़े की दुकान खुल रही है। कुछ महीने पहले इसी बाजार में एक किराने की दुकान भी बंद कर दी गयी थी। वहां भी कपड़े की दुकान ही खुली थी। यह शहर का आधुनिकतम, ग्लैमर से भरपूर, व्यस्त व चकाचौंध वाला बाजार है। जानकारी इकट्ठा करने के उद्देश्य से पूछने पर पता चला कि यहां कपड़ा अधिक बिकता है और व्यवसाय में लाभ का प्रतिशत भी इसी धंधे में ज्यादा है। तो फिर कोई भी व्यवसायी ऐसा क्यूं नहीं करेगा। यकीनन ऐसा अन्य शहरों में भी हो रहा होगा।

क्या आपने इस बात का नोटिस किया है कि आज के आधुनिक बाजारों, मॉल, शॉपिंग कम्प्लेक्स में सबसे अधिक दुकान किस वस्तु-चीज की होती हैं? बिना किसी जद्दोजहद के एक बच्चा भी तुरंत उत्तर देगा कि हर शहर, हर कस्बे के हर बाजार में कपड़े के दुकानों की बहुलता है। उसके बाद ही अन्य का नंबर आता है। इसमें भी जूते-चप्पल, श्रृंगार-प्रसाधनों व इलेक्ट्रॉनिक उपभोग वस्तुओं से संबंधित दुकानें अधिक हैं। दवाइयों की दुकानें भी कई मिल जाएगी। जिंदा रहने के लिए हवा और पानी के बाद जिस चीज की सबसे ज्यादा आवश्यकता है, ‘भोजन’ उससे संबंधित दुकानें कम मिलेंगी। दिन में कम से कम तीन बार हर घर में खाना बनाने के कच्चे माल वाली किराना व प्रोविजनल स्टोर कम ही मिलेंगे। मगर पुराने जमानें के शहरों व कस्बों में इनकी संख्या अधिक हुआ करती थी। आबादी के लिए यह महत्वपूर्ण स्थान होता था। कई प्राचीन शहरों में तो इनकी अलग-अलग नाम से गलियां होती थी। रोजमर्रा की दूसरी जरूरी वस्तुओं के लिए मंडी हुआ करती थीं। परांठे वाली गली से लेकर चाटवाली गली, पापड़वाली, कचौड़ी वाली गली, हलवाई मोहल्ला, मिठाई बाजार आदि आदि। हॉट बाजार में खाने-पीने की चीजों का आकर्षण होता था। सब्जी मंडी, फ्रूट मार्केट, गल्ला मंडी शहर में प्रमुख केंद्र के रूप में जाने जाते थे। कुछ शहर तो इनसे पहचाने भी जाते थे, जैसे संतरा मार्केट नागपुर में तो केले के लिए भुसावल। आगरा का पेठा व मथुरा के पेड़े का पूरे विश्व में नाम था। आमतौर पर हर शहर में कुछ एक हलवाई प्रसिद्ध हुआ करते थे। लस्सी, गरमागरम मलाईदार दूध से लेकर नाश्ते के लिए विशेष नाम वाली दुकानें जानी जाती थीं। पुराने शहर की पुरानी मार्केट में यह व्यवस्था आज भी देखी जा सकती है। मगर आधुनिक समाज में अब यह उतने महत्वपूर्ण नहीं। आज ब्रांडेड कपड़ों के शोरूम का जमाना है। खाने-पीने वाली दुकानें बड़ी सामान्य अवस्था में मिलेंगी, जबकि कपड़ों व श्रृंगार की दुकानें सजी-धजी होंगी। आधुनिक मॉल और बाजारों में जो खाने-पीने के स्थान मिलेंगे उनमें से अधिकांश विदेशी नामी कंपनियां के हैं, जिनमें मिलता है ब्रांडेड फास्ट फूड। यहां पश्चिमी सभ्यता नये अवतार में दिखाई देगी।

आज हलवाई और देसी खाने-पीने की दुकानें तो ढूंढ़ने पर भी मुश्किल से ही मिलेंगी। उनमें भी कई तो बंद होने की कगार पर हैं। ऐसा शहरों में आम देखा जा सकता है। पुस्तकों की दुकानों का तो इससे भी बुरा हाल है। इनका इस श्रृंखला के अंत में नंबर आता है। इनकी संख्या नगण्य रह गयी है। कुछ भारतीय शहरों में तो यह अब मुश्किल से मिल पाएगी। और जो हैं भी, वो बहुत पुरानी और जर्जर अवस्था में मिलेंगी। अब तक तो यह किसी तरह से अपने अस्तित्व को बचाये रखने में सफल हैं, मगर कितने दिनों तक? यह एक बड़ा प्रश्नचिह्न है। जिसका जवाब आसान नहीं। इनमें भी अधिकांश स्कूल कालेज की किताबों वाली दुकानें होंगी। सामान्यतः पुस्तक की दुकानों का भारतीय समाज में कोई मोल नहीं। इसीलिए नयी दुकानें नहीं खुल रहीं। पश्चिमी देशों में तो यह आज भी फलफूल रही हैं। हिन्दुस्तान में इनके अच्छे भविष्य की कल्पना करना उचित नहीं। लेकिन फिर इसका खमियाजा भी तो हम भुगत रहे हैं। पता नहीं हमने विदेश से खाने और कपड़े की तो नकल कर ली, मगर पढ़ना क्यूं नहीं सीखा?

सुना है, खाने-पीने की चीजें आमतौर पर व्यावसायिक रूप में उतना अधिक लाभ नहीं देती जितना कपड़े व अन्य श्रृंगार की चीजें व उपभोग के सामान दे सकते हैं। खाने के सामान की बिक्री सुनिश्चित मात्रा में ही हो सकती है। ऊपर से डाइटिंग के चक्कर में लोगों ने कम खाना शुरू कर दिया और आधुनिक जीवनशैली में पिज्जा-बर्गर खाकर लोग दिन बिता देते हैं। असल में खाने-पीने को ज्यादा प्रमोट नहीं किया जा सकता। समोसा-कचोड़ी हो या मिठाई इसका विज्ञापन नहीं होता। वहीं दाल-चावल-आटे का प्रचार नहीं किया जाता। चूंकि सब जानते हैं कि यह एक आदमी के लिए उसके द्वारा जरूरत का जरूर खरीदा जाएगा। वहीं कपड़ों को जितना मर्जी बेचो। किसी मॉडल को पहनाकर प्रचारित करने पर इसे आप महंगे दामों में भी बेच सकते हैं। इसकी कोई सीमा नहीं। शर्ट पचास से लेकर पांच हजार रुपए तक में बिक सकती है। लेकिन सब्जी थोड़ा-सी भी महंगी होने पर मोलतोल की जाएगी। आज का आम आदमी भी खाने में कम से कम खर्च करना चाहता है जबकि शर्ट दोगुनी दाम पर खरीदी जा सकती है, तभी तो सेल का प्रतिशत देखकर हैरानी होती है। ऊपर से एक और आश्चर्य, इस बाजार का अजूबा देखिए, यहां छोटे कपड़े और महंगे हो जाते हैं। मात्र रूमाल जितने आकार के अंदर पहनने वाले कपड़े मुंहमांगी कीमत व महंगे दामों पर बिकते हैं। जबकि ये दिखाई भी नहीं देते। यह बाजार का कमाल है। विज्ञापन का प्रभाव।

आज हम हजारों की पैंट-शर्ट खरीदने में अपनी शान समझते हैं। इसके लिए उत्सुक रहते हैं। हमारे जीवन का यह एक अभिन्न अंग व प्रमुख हिस्सा है। खरीदारी में हम आनंद ढूंढ़ते हैं। महंगे वस्त्र खरीद कर स्वयं को विशिष्ट समझते हैं। कहीं न कहीं इसमें बड़ा व अच्छे दिखने की अभिलाषा भी छुपी होती है। दुनिया में सुंदर चीजों का अपना अलग ही आकर्षण है। विशेष रूप से महिलाओं के बीच। यकीनन महिलाओं में कोई न कोई प्राकृतिक रूप में विशिष्ट रक्तकण हैं या उनमें विशेष नैसर्गिक रसायन होता होगा, तभी तो गरीब से गरीब भी श्रृंगार के लिए सदैव तत्पर मिलेंगी। और अपनी हैसियत से अधिक खर्चा करने में नहीं हिचकिचातीं। बहरहाल, अब पुरुष भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं।

आज का आधुनिक सौंदर्य, ऊपरी आवरण है, मकान की बाहरी दीवार है। यहां शरीर के अंदर की शक्ति का कोई महत्व नहीं। आधुनिक समाज ने इसे क्यों नजरअंदाज कर दिया है? किसी को पता नहीं। हम जानते हुए भी अनजान बनते हैं। भोजन, जो कि स्वस्थ शरीर व आनंदमय जीवन के लिए अति आवश्यक है, हमारे लिये अब उतना महत्वपूर्ण नहीं। उत्तम भोजन के लिए पिछली पीढ़ी तक अधिक पैसा लगाया जाता था। अच्छे से अच्छा शुद्ध भोजन करना गरीब से गरीब आदमी की पहली प्राथमिकता होती थी। आज साधारण व आम आदमी उपभोग की वस्तुओं के पीछे पागल है। ब्रांडेड कपड़ों के पीछे भाग रहा है। बाजार की रौनक उसे अपने आगोश में समेट लेती है। उसका मस्तिष्क ठीक दिशा में काम नहीं करता। वह यह समझने को तैयार ही नहीं कि शरीर ठीक होगा तो कपड़े अपने आप अच्छे लगेंगे, और शरीर ठीक नहीं होगा तो हजार छोड़ लाखों के कपड़े किसी काम के नहीं। ऊपर से मानसिक रूप में स्वस्थ व संतुलित होना शरीर के लिए ही नहीं समाज के लिए भी उतना ही अधिक महत्वपूर्ण है। जिसके लिए पुस्तकों का होना बहुत जरूरी है। पढ़ने की संस्कृति किसी भी सभ्यता के विकास में अहम रोल अदा करती है। यह आदिमानव को मनुष्य बनाने में मदद करती है। इससे ज्ञान का विकास होता है। मगर इसे हमने पूरी तरह से तिलांजलि दे रखी है। संक्षिप्त में कहें तो साहित्य, कला, संस्कृति, सृजन हाशिये पर हैं। सिर्फ मस्ती और शोर कर प्रचलन है। ऐसा समाज जो सिर्फ बाहरी दीवारों पर टिका हो, जिसकी नींव कमजोर हो, जिसमें आत्मबल न हो, वो कितने दिनों तक चलेगा? कागज की कश्तियां अधिक दूर तक नहीं तैरतीं।