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लघुपत्रिका के बहाने राजनीतिक समझ
हिमाचल की साहित्यिक पत्रिका ‘पर्वत राग’ एवं पंजाब (जालंधर) की पत्रिका ‘साहित्य सिलसिला’ के विशेष चर्चा कार्यक्रमों में जाने का अवसर मिला था। लघुपत्रिका के संदर्भ में अनुभवी संपादकों की बातचीत होनी थी। इस पर विचार-विमर्श किया जाना था। यह विषय पुराना हो चुका है। और कई बार घिसा जा चुका है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस समुद्र मंथन से अब तक तो कुछ विशेष नहीं मिला। अक्सर वही पुराने तर्क-वितर्क और बातें की जाती हैं। मगर इस चर्चा के दौरान अबकी बार अनायास ही एक नया संदर्भ मस्तिष्क में कौंधा था। लोकसभा का चुनाव इसका एक कारण हो सकता है। हो सकता है कि औरों के दिमाग में भी ऐसे ही कुछ विचार कभी आये हों। मगर मेरे लिये यह बिल्कुल नया और गुदगुदाने वाला था। जिसके कारण चेहरे पर मुस्कुराहट उभरी थी। यह साथ में व्यंग्य के बाण भी लाया था। मैंने साहित्य में लघुपत्रिकाओं के रोल को आज की भारतीय राजनीति में छोटी पार्टियों के समकक्ष खड़ा किया तो पाया गुण-अवगुण के साथ-साथ और कई मायने में इनमें समानता है।
उपरोक्त दोनों पत्रिकाएं क्रमशः गुरमीत बेदी एवं अजय शर्मा के व्यक्तिगत प्रयासों का परिणाम है। दोनों संपादक युवा उत्साही व स्वप्न द्रष्टा हैं। शायद यही कारण है जो दोनों पत्रिकाओं का मुद्रण एवं सेटअप-गेटअप आकर्षक एवं सुंदर है। और सामग्री पठनीय है। इसमें नवीनता के साथ ही विविधता भी है। सुधार की गुंजाइश तो हर चीज में होती है, जबरन आलोचना करने की प्रवृत्ति से उपजे कुछ नकारात्मक बिंदुओं को छोड़ दें तो इनमें बहुत कुछ ऐसा है जिसके कारण ये पढ़ने के लिए मजबूर करती हैं। सबसे बड़ी बात कि ‘पर्वत राग’ एक ओर जहां सिर्फ हिमाचल राज्य में सीमित न होकर राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों के लेखकों को अपने में समाहित करने की कोशिश करती है, वहीं ‘साहित्य सिलसिला’ मूल रूप से पंजाब प्रांत से जुड़ी हुई होने के बावजूद राष्ट्रीय चरित्र लिये हुए है। इसमें अन्य प्रांतों में बस चुके हिन्दी में लिख रहे पंजाबी लेखकों को केंद्र में रखा गया है। जो अच्छी-खासी संख्या में हैं और हिन्दी साहित्य के विकास में योगदान दे रहे हैं।
सर्वप्रथम मेरे मन में सवाल उठा कि अगर ये लघुपत्रिकाएं हैं तो फिर कौन-सी पत्रिकाएं बड़ी कहलाएंगी? अगर छपी कापियों की संख्याओं को मापदंड माना जाए और इनके आंकड़ों पर यकीन करें तो हिन्दुस्तान में मुख्यधारा की कोई बड़ी पत्रिका अब दिखाई नहीं देती। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं के बंद होने का रोना रोने से अब कोई फायदा नहीं, यह बहुत पुरानी बात हो चुकी है। और लेखन की दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है। इस के संदर्भ बदल चुके हैं। लेकिन इनमें से कुछ बिन्दु उठाये जा सकते हैं। ये बिंदु हैं कि जब बड़े-बड़े व्यावसायिक घरानों के द्वारा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समर्थित और समर्पित पत्रिकाएं जिंदा नहीं रह पायीं, इनके मूल में शायद हानि ही मुख्य कारण बना था, तो फिर आज के महंगे युग में किसी पत्रिका को निकालना कितना जोखिमभरा काम हो सकता है। तो फिर जो यह जोखिम उठा रहा है वो यकीनन मजबूत इरादों का समर्पित लेखक होगा। वैसे तो यह मुद्दा भी कई बार चर्चा में आ चुका है और यह पुराने राग को दोहराने के समान होगा कि हिन्दुस्तान में लघुपत्रिकाओं की संख्या हजारों में है और इन्होंने ही साहित्य और लेखन को जिंदा रखा हुआ है। छोटे-छोटे और स्थानीय समाचारपत्रों की स्थिति भी अमूमन इसी तरह की है। जहां तक रही बात बड़े राष्ट्रीय समाचारपत्रों की तो वो भी शहरों/नगरों के विशेषांक पृष्ठ के माध्यम से ही अब तक मैदान में डटे हैं। संक्षिप्त में, प्रिंट मीडिया में, स्थानीय तत्व के कारण ही पत्र-पत्रिकाएं जिंदा हैं। और ऐसा ही कुछ-कुछ आज की राजनीति में भी संदर्भित दिखाई देता है, छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में एक बार सोच कर देखें।
सभी लघुपत्रिकाओं, जिसमें छोटे से लेकर व बड़े से बड़े लोगों की तथाकथित नामी पत्रिकाएं भी शामिल हैं, अपनी-अपनी विचारधारा के साथ अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव रखती हैं। प्रायः इनमें इन गुणों के लक्षण दिखाई देते हैं। अमूमन यह एक व्यक्ति पर पूरी तरह से निर्भर और केंद्रित होती हैं। यह उस व्यक्ति का व्यक्तिगत प्रयोजन होता है। और ज्यादातर उदाहरण में ये संपादक होते हैं। इनकी अपनी पसंद-नापसंद होती है। इनके अपने लेखकों व पाठकों की सीमित संख्या होती हैं। इनके क्षेत्र निर्धारित व बंटे हुए हैं। आमतौर पर स्थानीय स्तर और राज्य प्रशासन से ये विज्ञापन एकत्रित करने में सफल होते हैं। कई बार ये इन लघुपत्रिकाओं के माध्यम से साहित्य की राजनीति भी कर लेते हैं और लेखन के क्षेत्र में भी अपनी दखल रखते हैं। गुटबाजी भी जमकर की जाती है। अकसर इनमें एक-दूसरे पर छींटाकशी होती है जो कई बार साहित्यिक गैंगवार तक पहुंच जाती है। ग्रुपिज्म व क्षेत्रीयता के अतिरिक्त कई तरह के ‘वाद’ भी इनमें भरे हुए देखे जा सकते हैं। और अधिकांश बार इस गंदी राजनीति के खिलाफ बोलने वाले ही सबसे ज्यादा गुटबाजी करते हुए दिखाई देते हैं। लघुपत्रिका व लेखकों के इस परिदृश्य पर एक प्रकाशक मित्र की टिप्पणी ने मुझे सोचने के लिए मजबूर किया था कि यह लेखकों का लोकतंत्र है। यह जुमला कुछ लोगों के लिए पुराना हो सकता है मगर इस बार मुझे कहीं न कहीं नये सिरे से भारत की राजनीति को सोचने के लिए विवश कर रहा था। और निष्कर्ष ने मन-मस्तिष्क को क्षेत्रीय पार्टियों को नये दृष्टिकोण से देखने के लिए बाध्य किया था।
प्रकाशक दोस्त के उपरोक्त कथन को आधार बनाकर मैंने आगे सोचना प्रारंभ किया तो पाया कि लघु पत्र-पत्रिकाएं व क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियों की राहें समानांतर चलती प्रतीत होती हैं। दोनों ही अपने प्रमुख सूत्रधार के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। अपने-अपने क्षेत्रों में गहरा प्रभाव रखती हैं। राष्ट्रीयता का स्वाद चखने के लिए थोड़ा-बहुत, कहीं कम कहीं ज्यादा, दूसरे के क्षेत्र में भी घुसपैठ कर ली जाती है। इसमें दूसरे क्षेत्र में रहने वाले समान विचारधारा, एक ही जाति, धर्म, वर्ग व बोली के लोगों की संख्या ज्यादा होती है। इसमें दूसरे ग्रुप से रूठकर आये असंतुष्टों की भी आवाजाही बनी रहती है। इनका प्रचार-प्रसार प्रभाव इस बात पर भी अधिक निर्भर करता कि इनके केंद्र में स्थित व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा है, उसकी आर्थिक स्थिति कैसी है। वो कितने बड़े समूह से संबंध रखता है। उसकी राजनीतिक समझ और अन्य से रिश्ते कैसे हैं। वो कितनी भीड़, धन, बल जुटा सकता है। वो कितनी चर्चा में रह पाता है।
क्षेत्रीय पार्टियों के फायदे-नुकसान की चर्चा भी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिपे्रक्ष्य में रखकर अलग-अलग की जानी चाहिए। यह देखने वाले के निगाह पर भी निर्भर करती है। मगर इतना अवश्य है कि क्षेत्रीय पार्टियों से स्थानीय मुद्दे व निवासी फोकस में आते हैं। इन पर गौर किया जाता है। क्षेत्र का विकास बेहतर होता है। ठीक इसी तरह से स्थानीय छोटे उभरते हुए लेखकों को लघुपत्रिका के माध्यम से एक प्लेटफार्म मिलता है। लघुपत्रिकाएं राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाये जाने की प्रक्रिया में एक सीढ़ी के समान है। सीढ़ी के मजबूत होने से मकान कमजोर नहीं होता। ठीक इसी तरह राज्य के मजबूत होने से राष्ट्र कभी कमजोर नहीं हो सकता। उलटे मजबूत राज्य विकसित राष्ट्र बनाने की भूमिका में अहम रोल अदा कर सकते हैं। मगर हां, अति यहां भी गलत ही प्रमाणित होगी। अत्यधिक मजबूत राज्य व बहुत कमजोर राष्ट्र एक बिखरे हुए परिवार की तरह हो सकता है। ऐसी मजबूत सीढ़ी किस काम की कि मकान रेत का बना हो। अतः इनमें एक संतुलन की आवश्यकता है। इसलिए क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा अपने क्षेत्र के बाहर कदम रखना, अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाना एक राष्ट्र को संगठित करने के लिए तानाबाना बुनने के समान है। इस तरह के मजबूत जाल को नींव बनाकर एक सशक्त व समृद्ध राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है जिसमें सभी वर्ग का प्रतिनिधित्व होगा। इन क्षेत्रीय पार्टियों से निकलकर धीरे-धीरे ऊपर उठे राजनीतिज्ञ जमीन से जुड़े होने के कारण राष्ट्र के लिए भी ज्यादा अच्छी तरह काम कर सकते हैं।
आज राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाएं नहीं हैं। इसीलिए क्षेत्रीय लेखक पदोन्नत होकर राष्ट्रव्यापी पहचान मुश्किल से बना पाते हैं। जो पत्रिकाएं दिल्ली से निकलती भी हैं उन्हें राष्ट्रीय स्तर की नहीं कहा जा सकता। सिर्फ दिल्ली से निकलने मात्र से कोई राष्ट्रीय नहीं हो जाता। इनकी छपने वाली प्रतियों की संख्या भी बड़ी सीमित है। प्रभाव क्षेत्र भी सीमित है। इसके आगे न बढ़ने के पीछे भी वही पुराने कारण हैं जो आमतौर पर राजनीतिक पार्टियों के सामने भी हैं। इनमें कोई विशिष्ट विचारधारा नहीं। राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण सोच नहीं। गुणवत्ता के नाम पर कोई पैमाना नहीं। आंतरिक प्रजातंत्र नहीं। भाई-भतीजावाद, गुटबाजी खुलकर होती है। दूर बैठा आम पाठक/लेखक जुड़ नहीं पाता और स्वयं को उपेक्षित महसूस करता है।
साहित्य हो या राजनीति, दोनों में ही राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर की पत्रिकाएं व पार्टियां आवश्यक व महत्वपूर्ण हैं। इसके लिए हमें बड़े समाचारपत्र समूह के मॉडलों को ध्यान से समझना होगा। इस गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के युग में भी उनकी सफलता के राज को जानना होगा। जिसके मूल में है क्षेत्रीय व स्थानीय पृष्ठ के साथ ही बड़े-बड़े शहरों से विशेषांक (एडिशन) का निकालना। जिसमें स्थानीय पाठक को प्रतिनिधित्व मिलता है। यहां स्थानीय संपादक बहुत हद तक क्षेत्रीय पृष्ठ के लिए स्वतंत्र होते हैं। हम राष्ट्रीय स्तर के साहित्य का हाल देख रहे हैं। राजनीति में भी हमें इन पत्र-पत्रिकाओं से सबक लेना होगा।