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राजनीति और बाजारवाद
प्रजातंत्र का युग है। इसी काल में बाजारवाद का सही मायने में जन्म हुआ और इसने बड़ी तेजी से पूरे विश्व को अपने प्रभाव में ले लिया। सत्य है, प्रजातंत्र और बाजारवाद का गहरा संबंध है। प्रजातंत्र में प्रजा का तंत्र है अर्थात जनता स्वतंत्र है तो फिर बाजार को भी मुक्त होना ही था। अंततः अर्थतंत्र स्वतंत्र हुआ। सोचकर देख लें, खुली आर्थिक व्यवस्था राजतंत्र और तानाशाही में पनप नहीं सकती। मुक्त अर्थव्यवस्था को स्वतंत्र बाजार चाहिए, उपभोक्ता और माल चाहिए। और फिर बिकने वाला सामान चाहे फिर जो भी हो और जिस भी रूप में हो, बेचने और खरीदने की पूरी छूट चाहिए। खुला बाजार अपने नियम खुद बनाता है और उससे ही संचालित होता है। प्रजातंत्र ने अपनी छत्रछाया में बाजारवाद को उगने तो दिया मगर कालांतर में इसी बाजारवाद ने विशाल वृक्ष बनकर प्रजातंत्र को अपनी छाया में समेट लिया। परिणामस्वरूप आज प्रजातंत्र बाजार से मुक्त नहीं है। इसका प्रभाव देखा जा सकता है। बाजारवाद ने प्रजातंत्र की कोख से बेशक जन्म लिया हो लेकिन उसने बड़ी कुटिलता से जन्मदाता को अपने नियंत्रण में ले लिया है। इस हद तक कि बाजार प्रजातंत्र की हर संस्था को प्रभावित कर रहा है। वो राजनीति में दखल करता है, मतदाताओं को प्रभावित करता है, कइयों के वोट की दिशा तय करता है, राजनेताओं को बनाता बिगाड़ता है, उम्मीदवारों और राजनैतिक पार्टियों को हराता व जिताता है। संक्षिप्त में कहें तो अप्रत्यक्ष रूप से शासन करता है। और खुलकर सच कहें तो बहुत हद तक आज का प्रजातंत्र बाजार की कठपुतली बनकर रह गया है।
यूरोप के विकसित देश हों या अमेरिका या फिर एशिया के विकासशील व अफ्रीका के गरीब देश, सभी जगह पैसे के बढ़ते प्रभाव को देखा जा सकता है। आज की दुनिया में सबसे बड़ा रुपय्या है। इस बाजार का सीधा-सा गणित है, वो जहां भी पैसा लगाता है वहीं से पैसा कमाता भी है। जितना लगाता है उससे कई गुना ज्यादा कमाने के चक्कर में रहता है। वो अपने लाभ के लिए व्यवसाय करता है। उसने धर्मशालाएं नहीं खोल रखीं। समाज से उसका सरोकार तभी तक है जब तक वो उसे लाभ प्रदान कर रहा है। शासन व्यवस्था को वो अपने अनुरूप बनाता है जिससे वो अधिक से अधिक फायदा पहुंचा सके। उसके लिए मतदाता एक उपभोक्ता मात्र है और राजनेता सिर्फ माध्यम। कई बार राजनेता उसका प्रतिनिधित्व तक करने लग पड़ता है। उसके हितों की रक्षा भी करता है। यहां तक तो ठीक है, मगर खतरे की घंटी तब बजने लगती है जब इन नेताओं की प्राथमिकता व्यवसाय व व्यवसायी हो जाते हैं, इनके लिए लाभ कमा कर देना प्रथम कार्य और राष्ट्र व नागरिक हाशिये पर चले जाते हैं।
राजनीति अर्थात राज्य की नीति। राज्य को चलाने के लिए एक व्यवस्था, शासन पद्धति। जिसके मूल में एक विचारधारा का होना आवश्यक है। इसमें कम से कम समाज में रहने वाले हर एक के सुख-शांति से जीने की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। साथ ही राष्ट्र को विकास के रास्ते आगे ले चलने की योजना होनी चाहिए। संक्षिप्त में देश, राज्य, स्थानीय शासन व्यवस्था से लेकर छोटी से छोटी संस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए एक व्यवस्था, विचारधारा, नीति और योजना का होना आवश्यक है। क्या हमें यह आज की राजनीति में दिखाई देती है? नहीं। विचारधाराएं समाप्त हो चुकी हैं। अधिकांश राजनेताओं के लिए राजनीति एक व्यवसाय बन चुका है। समाज सेवा अब कोई उद्देश्य नहीं। नीति अब शब्दों का मायाजाल मात्र बनकर रह गयी है। तभी प्रायः वकीलों को प्रमुखता से अधिकांश राजनीतिक पार्टियों की ओर से बोलते हुए देखा जा सकता है। राजनीति अब राजनेताओं के जीवनयापन का माध्यम बन चुकी है। अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के लिए इसे पाला पोसा जाता है। कहीं-कहीं तो यह अब पारिवारिक व्यवसाय के रूप में पनप रही है। आज के युग में अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो कितने राजनीतिज्ञों ने देश के किसी भी जनआंदोलन व क्रांति में भाग लिया? कितनों ने जनता के साथ खड़े होकर धूप में पसीने बहाएं हैं? घूम-घूम कर चुनाव के समय में प्रायोजित भीड़ में जाकर भाषण देना, मीडिया में बयानबाजी करना, अब यही राजनीति रह गयी है। इसमें भी कोई आदर्श नहीं होता, तथ्य नहीं होता, समाज के लिए सोच और देश के विकास के लिए बात नहीं होती। एक-दूसरे की कमियों को उजागर करने की होड़ लग जाती है। अपने गुणों का बखान और दूसरे के अवगुणों को चिल्ला-चिल्ला कर प्रसारित व प्रचारित करना तो बाजार का सिद्धांत है। और यह अब राजनीति में आ चुका है।
अब मीडिया को ही ले लें, इसका प्रजातंत्र में महत्वपूर्ण रोल है। राजनीति के लिए यह कितना जरूरी है, यहां बताने की आश्यकता नहीं। मगर जिसकी नींव खुद बाजार में रखी गई हो वह बाजार के प्रभाव से कैसे मुक्त हो सकता है। जिसका प्रथम उद्देश्य लाभ कमाना हो वहां जनहित की प्राथमिकता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। उनके द्वारा समाज की बातें करने में कहीं न कहीं असहजता महसूस होती है। यह बहुत हद तक सत्य है, तभी मीडिया में वही राजनेता दिखते हैं जो बाजार को संचालित व नियंत्रित करना जानते हैं। ये नेता कोई काम करें न करें मगर नाम जरूर होता है। ये सुर्खियां बटोरना जानते हैं। वे आज डिजाइनर कपड़े पहनते हैं। उनकी वेशभूषा व आभूषणों पर भी चर्चा होती है। वस्त्रों के रंग और ब्रांड की बातें की जाती हैं। ब्यूटी पार्लर में जाकर नेताओं के शारीरिक सौंदर्य को बढ़ाया जाता है। एक मॉडल की तरह राजनेता को स्थापित किया जाता है। वही चेहरे उभरते हैं जो सुंदर हों और सदा मुस्कुराते रहें। वैसे इसमें कोई बुराई नहीं है। साफ-सुथरा सुंदर-स्मार्ट राजनेता का होना गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन यदि यही एक मुख्य आधार बन जाए तो परिणाम गलत हो सकते हैं। अति किसी भी चीज की बुरी है। और बाजार जिस तरह से राजनेताओं को संचालित करता है इस अवस्था में राज्य की नीति प्रभावित न हो, मान लेना मूर्खता होगी। राजनीति कर्म प्रधान नहीं रह गयी। अब राजनेता को चर्चा में रहना जरूरी है। वे परिस्थितियों के हिसाब से स्वयं को प्रदर्शित करते हैं, शब्दों से ऐसे खेलते है कि क्या बताएं। चेहरे पर मन की भावनाएं नहीं आने देते। सीधी प्रतिक्रिया नहीं करते। आजकल टीवी के माध्यम से ऐसे तथाकथित चॉकलेटी ड्राइंगरूम मार्का नेताओं का जन्म हो रहा है जो सिर्फ बोलने की खाते हैं। यही राजनीति के मुखौटे धीरे-धीरे चर्चित नेता बन जाते हैं। ये मीडिया की देन हैं। बाजार की उत्पत्ति हैं। ये चतुर चालाक व्यावसायिक मैनेजर हैं। ये जन नेता नहीं, इनमें नेतृत्व की क्षमता नहीं, इन्हें तो सिर्फ बाजार को संचालित करने की कला आती है।
आज राजनीति अप्रत्यक्ष रूप से बाजार के द्वारा नियंत्रित हो रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति हों या इंगलैंड के प्रधानमंत्री, वो चंदा देने वाले व्यवसायी को नाराज नहीं कर सकते। भारत में भी इसके कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। एक समय तो आईपीएल का मैच कराना लोकसभा की तैयारी पर भारी पड़ रहा था। भला हो शासन व्यवस्था में बैठे कुछ समझदार महान लोगों का, जिन्होंने चाहे जिस कारण से, सही वक्त पर सही फैसला लिया। प्राथमिकता को सुनिश्चित किया। लोकसभा के महत्व को प्रदर्शित किया। अन्यथा कुछ लोगों व मीडिया के एक वर्ग के लिए आईपीएल का मैच अधिक महत्वपूर्ण था। लोकसभा चुनाव के दौरान इस तरह के व्यावसायिक मैच की बात करना ही इस बात का प्रमाण है कि हम पूरी तरह से बाजार के नियंत्रण में हैं। हद देखिए, कुछ लोगों ने तो इन क्रिकेटरों के लिए वरिष्ठ राजनेताओं के समकक्ष सुरक्षा देने की बात तक कर दी थी। इस दौरान आईपीएल प्रमुख के चेहरे के हावभाव बहुत कुछ कह जाते थे। और हमें अप्रासंगिक व हास्यास्पद बना देते थे। यह सच है कि क्रिकेट ही नहीं हर खेल का राष्ट्र की भावना से सरोकार रहा है, मगर क्या आईपीएल के लिए राष्ट्र कोई औचित्य रखता है? नहीं। तो फिर क्या वजह है जो यह इतना महत्वपूर्ण बन गया था? असल में करोड़ों रुपए फूंकने के बाद राजनेता निर्वाचित होते हैं। इसकी भरपाई कैसे होगी? वही नियम बनाये जाते हैं जो कहीं न कहीं आयोजक प्रायोजक को लाभ दें। यह पूरे विश्व में हो रहा है। और हिन्दुस्तान इससे अछूता नहीं। हमें धोखा नहीं होना चाहिए, हम अपवाद नहीं हो सकते।
आज परिवारवाद हर जगह फैल रहा है। क्यूं? परिवारवाद राजतंत्र और बाजार में ही चल सकता है। राजतंत्र में राजा का बेटा ही राजा होता है। और व्यवसायी अपने बेटे को ही गद्दी सौंपता है। प्रजातंत्र की आदर्श व्यवस्था में यह संभव नहीं। इसमें तो कुछ समय के अंतराल के बाद जनता को अपना प्रतिनिधि नये सिरे से चुनना होता है। मगर आज, कुछ एक दो को छोड़ दें तो अधिकांश राजनीतिक पार्टियां परिवारवाद के दलदल में फंस चुकी हैं। मीडिया द्वारा भी इनको पूरी तरह से शह दिया जाता है। इन परिवारों में पैदा होने वाले बच्चों के नाम को और शादी के बाद पति-पत्नी के नाम को लोगों के मन-मस्तिष्क में बैठा दिया जाता है। धीरे-धीरे स्थापित कर दिया जाता है। और कालांतर में ये नेतृत्व करने के लिए उपयुक्त मान लिये जाते हैं। इन्हें बाजार अपने अनुकूल ढाल देता है। ऐसे में कहां रह गया प्रजातंत्र, कहां रह गया इसका मूल सिद्धांत? यही कारण है जो आज के प्रजातंत्र को बाजारतंत्र का नाम दे दिया जाये तो अधिक उचित होगा।
अगर जनता को उपभोक्ता बनने से बचना है, सम्मानीय नागरिक बनकर मतदाता कहलाना है तो बाजार की चकाचौंध व आकर्षक खोखले विज्ञापन से बचकर मतदान करना होगा। तभी प्रजातंत्र अपने सही स्वरूप में जिंदा रह पाएगा। अन्यथा बाजार में प्रजातंत्र कब बिक जाएगा, हमें पता ही नहीं चलेगा।