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क्या भारत की जनता सब समझती है?
मुंबई आतंकवादी हमले के तुरंत बाद जनता का आक्रोश चरम पर था। मीडिया ने इसे प्रमुखता से प्रचारित प्रसारित किया। इस घटनाक्रम को देशभर में व्यापक रूप से देखा गया। भारतीय आमजन कहीं न कहीं इस हादसे के बीच में खुद को भी फंसा पाता था। यह गुस्सा जायज था। मुंबई का मानुष घबराकर असुरक्षित महसूस करने लगा था। सड़कों पर नामी व चर्चित लोग भी उतर आए थे। सभी के गुस्से के केन्द्र में राजनीतिक पार्टियां थीं। और यह विरोध इतना तीव्र था कि इसमें क्षेत्रीयता फैलाने वाले नये-नये राजनीतिज्ञों की हवा तक बिगड़ गयी थी और वे चुप होकर कहीं छिप गए थे। यही नहीं, अच्छे-अच्छे मंजे हुए अनुभवी राजनेता भी अदृश्य हो गए थे। ठीक भी था। तूफान में जमीन पर लेट जाना ही उचित होता है। जनता कुछ भी समझने और सुनने को तैयार न थी। हर एक नागरिक राजनेताओं को दोषी करार दे रहा था। प्रारंभ में राजनेताओं ने मीडिया से अपनी दूरी बनाये रखने में ही भलाई समझी थी। सही था। बात बिगड़ सकती थी, आक्रोश भड़क सकता था। इधर कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही थी, उधर लोगों का क्रोध धीरे-धीरे थमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा था। व्यवस्था के खिलाफ लोग बोलने लग पड़े थे। तभी कुछ दिनों के पश्चात राजनेताओं ने पहले दबी जुबान में फिर विश्वास से बोलना प्रारंभ किया और कहने लगे, ‘राजनेताओं का विरोध व प्रजातंत्र के खिलाफ बोलना बहुत आसान है मगर क्या हमारे पास इसका कोई विकल्प है?’ उनके कहने के पीछे तात्पर्य था कि राजनेताओं व प्रजातंत्र की जगह हम चाहते क्या हैं? क्या तानाशाही, सैनिक शासन, राजतंत्र चाहते हैं? क्या हिन्दुस्तान जैसे राष्ट्र में यह संभव है? हमारे देश के लिए क्या यह उचित होगा? और अंत में नेताओं ने यह भी कहना शुरू कर दिया था कि प्रजातंत्र की वर्तमान अवस्था के लिए जनता भी जवाबदार है।
यहां सवाल उठता है कि क्या पूर्व में कोई राजनेता इस तरह से सीधे-सीधे जनता पर आरोप लगा सकता था? नहीं। आज भी अधिकांश नेता अपने मतदाता की भरपूर बड़ाई करते हैं। जिसके पीछे साफ मकसद होता है, वोट लेना। सरल शब्दों में, ‘फुसलाने की एक कोशिश’। वैसे भी ये बोलते कुछ और हैं मन में कुछ और होता है। जनता के संदर्भ में कहे गए तथ्य को वो प्रारंभ से जानते थे, मगर कहते नहीं थे। मुद्दा यहां यह है कि इस सत्य को राजनेताओं ने खुलेआम बोलना क्यूं और कैसे शुरू किया कि प्रजातंत्र की वर्तमान अवस्था के पीछे कहीं न कहीं जनता भी जवाबदार है। बात सही है, प्रजातंत्र अगर स्थिति को नियंत्रित करने में असफल हो रहा है तो इसके लिए राजनीतिज्ञ के साथ-साथ हम भी जिम्मेदार हैं। आखिरकार हम ही चुनते हैं अपनी सरकार। और फिर अपने कर्मों के लिए किसी और को दोष देना उचित नहीं।
इसी संदर्भ में एक और घटनाक्रम का विश्लेषण आवश्यक है। विश्व का विशालतम प्रजातंत्र एक बार फिर चुनाव की प्रक्रिया से गुजर रहा है। तकरीबन सभी राजनैतिक पार्टियों में कुछ एक आपराधिक छवि के लोग भी हैं। इन बाहुबलियों के विरोध में एक बार फिर मीडिया में चर्चा हो रही है। यह किसी से भी नहीं छिपा कि सभी राजनैतिक पार्टियां इसमें बराबरी से भागीदार हैं। कोई भी इस तरह के प्रत्याशियों से पूरी तरह मुक्त नहीं है। और फिर मुक्त हों भी तो कैसे, अधिकांश बाहुबली जीत की गारंटी वाले प्रत्याशी होते हैं, इनके पास पैसा भी होता है। तो फिर कौन-सी राजनीतिक पार्टियां इन्हें नहीं चाहेंगी। राजनीतिक पार्टियों का उद्देश्य जीतना होता है, हारना नहीं। सिद्धांत, दर्शन, समाज-सुधार की बातें जीतने वाले के साथ शोभा देती हैं, हारने वालों के साथ ये शब्द महत्वपूर्ण होते हुए भी अर्थहीन व प्रभावहीन होकर संदर्भित नहीं रह जाते। इन तर्कों के बावजूद धन और शक्ति बल का दुरुपयोग समाज और राष्ट्र हित में नहीं माना जा सकता। इसीलिए राजनेताओं के इस फैसले का विरोध होता है। और मीडिया वाले सवालों की बौछार करते हैं। मीडिया का यह सकारात्मक पक्ष है। हर बार राजनीतिक पार्टियां इन सवालों पर शब्दों में उलझाकर जवाब देकर बचती रही हैं। कानूनी दांव-पेंच व तर्क-वितर्क के द्वारा घुमाया जाता रहा है। कई बार कोर्ट द्वारा अपराधी घोषित न होने की सफाई दी जाती है। ‘विरोधी द्वारा फंसाया गया है’, कहा जाता है। कहीं-कहीं यह सत्य भी होता है। मगर अबकी बार कुछ राजनीतिज्ञों ने भी, धीरे और दबी जुबान में ही सही, इसका सीधे-सीधे जवाब देना शुरू कर दिया। उनका कहना है कि जनता इन लोगों को चुनती ही क्यूं है। कहने का आशय था कि जनता भी कहीं न कहीं प्रजातंत्र की इस वास्तविकता के लिए जवाबदार है। अगर वो इन लोगों को न चुन कर दें तो कौन उन्हें खड़ा करेगा।
सत्य है, कौन-सी राजनीतिक पार्टियां सफल होने की संभावना रखने वाले उम्मीदवार को छोड़ना पसंद करेंगी। अगर किसी एक ने समाज के हित व विचारधारा की बात करते हुए इन्हें नहीं लिया तो वो दूसरी पार्टी के द्वारा खड़ा किया जा सकता है और चुन भी लिया जाएगा। अतः जब तक सभी पार्टियां मिलकर इसका विरोध न करें, किसी एक पार्टी के साफ-सुथरा होने से व्यवस्था सुधर नहीं सकती। वैसे अकेले इससे भी कुछ नहीं होगा। अगर सभी राजनीतिक पार्टियां इस तरह के लोगों का मिलकर विरोध भी करें तो ऐसा प्रत्याशी निर्दलीय भी खड़ा हो सकता है। और फिर ऐसे उदाहरण की भी कमी नहीं है, कई दागदार उम्मीदवार निर्दलीय के रूप में भी जीते हैं। ऐसी परिस्थिति में, कारण चाहे जो भी हो, अंततः जवाबदेही जनता की ही बनती है। हमें अपने किये को खुद ही झेलना होगा। हम अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते। प्रजातंत्र के मंदिर में आईने लगे हैं। जैसे हम हैं वैसे ही वहां भी हम दिखेंगे। ऐसा नहीं है कि भारत की जनता ने इस तरह के प्रत्याशियों को हराकर उदाहरण पेश नहीं किया। मगर ऐसे भी कई उदाहरण हैं जहां बाहुबली लगातार अलग-अलग पार्टियों से जीतते आये हैं।
इनका अंतिम फैसला जनता के दरबार में ही संभव है। इनका विरोध जनता ही कर सकती है। संविधान, कानून, न्यायालय या चुनाव आयोग को अकेले उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता। सिर्फ इन पर उम्मीद लगाकर बैठना, कहां की बुद्धिमता है। इनकी अपनी सीमाएं हैं। जनता के दरबार के अलावा बाकी संस्थाओं के लिए लोग कुछ भी कहने से नहीं चूकते। बेवजह संदेह तक व्यक्त कर देते हैं। मगर जनता का फैसला अंतिम होता है। इसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। और फिर राजनीति से प्रेरित होकर विरोधी पक्ष के उम्मीदवार को झूठे केस में फंसाने की संभावना में भी स्थानीय जनता ही सही चुनाव कर सकती है। वो ही अपने क्षेत्र के तथाकथित बाहुबलियों को अच्छी तरह जानती है। दूध का दूध, पानी का पानी कर सकती है। अतः आदर्श व्यवस्था के लिए, अगर कोई प्रत्याशी वास्तव में राष्ट्रहित में उचित व उपयुक्त नहीं हैं तो निज स्वार्थ से ऊपर उठकर जनता को फैसला देना होगा। तभी वो प्रजातंत्र के सही स्वाद को चख पायेगी।
मुंबई कांड के बाद जनता का आक्रोश कुछ दिनों के बाद शांत और निष्क्रिय क्यूं हुआ? यह भी सोचने लायक बात है। ध्यान से देखें तो उसका कारण बड़ा सीधा और सरल था। चूंकि इस आक्रोश के पास कोई नेतृत्व नहीं था। भीड़ को संचालित करने के लिए एक नेता चाहिए होता है जिसके पीछे अनुशासन में भीड़ शक्ति बनकर साथ-साथ कदमताल करते हुए चल सके। उंगलियों को शक्ति प्राप्त करने के लिए मुट्ठी बनना पड़ता है। आक्रोश को क्रांति में परिवर्तित करने के लिए एक संगठन चाहिए, जिसका नेतृत्व किसी समर्पित नेता के पास हो। फिर इस नेतृत्व के पास दिशा चाहिए, विचारधारा चाहिए, मंजिल चाहिए। अन्यथा वो भी भटक सकता है और पीछे चल रही भीड़ गुमराह हो सकती है, और फिर बिखर सकती है। भीड़ के आक्रोश के तेज को बनाए रखने के लिए व्यक्तित्व की ऊर्जा चाहिए, पूर्णतः समर्पित कार्यकर्ता चाहिए। कार्यकर्ताओं की ऊर्जा को बनाये रखने के लिए विचारों का ईंधन और उद्देश्य का आक्सीजन चाहिए। अन्यथा आमजन कुछ दिनों बाद अपनी दैनिक परेशानियों में दबकर एक बार फिर रोजमर्रा के जीवन से सामंजस्य बना सकता है। मुंबई का आक्रोश, आंदोलन और फिर क्रांति क्यूं नहीं बन पाया? चूंकि यहां नेतृत्व नहीं था, मंजिल नहीं थी, विचार नहीं थे। और अंत में थक-हारकर लोगों को उन्हीं नेताओं के पास वापस जाना पड़ा। और यही कारण है जो जनता चुप कर गयी। ऐसा ही कुछ अवाम के द्वारा बाहुबलियों के निर्वाचन में भी होता है। विकल्प न होने पर वो कभी डरकर, कभी बिना कुछ सोचे-समझे और कभी निज स्वार्थ में उन्हें चुनते हैं। मगर समाज में नेतृत्व की कमी के लिए भी तो हम ही जवाबदार हैं। विकल्प के न होने के लिए सामाजिक व्यवस्था जिम्मेवार है। वो अच्छे लोगों को पनपने ही नहीं देती। सरल सज्जन और सामर्थ्य वालों को पीछे धकिया दिया जाता है। और जो ऊपर से थोपा या जोड़-तोड़, धन-बल, झूठ सच से आगे जा रहा है उसे स्वीकार किया जाता हैं।
उपरोक्त सभी परिस्थितियों के मद्देनजर वर्तमान राजनीति की अवस्था को देखें तो कई प्रश्न उभरने लगते हैं। सवाल उठता है कि क्या जनता से उम्मीद की जा सकती है? यह एक कठिन सवाल है। आज के हालात को देखते हुए, सीधे-सीधे कुछ भी कह देना भावुकता की निशानी हो सकती है। क्या भारत की जनता, हकीकत में सब कुछ जानती है? सब समझती है? अगर इन प्रश्नों के सकारात्मक उत्तर चाहिए तो जनता को परिणाम देने होंगे। खुद को साबित करना होगा। दूसरों की जांच-परख करने वालों को स्वयं का आत्मविश्लेषण करना होगा। अगर यह सच है कि अवाम समझदार है तो उसे अपने वोटों का सही उपयोग करके दिखाना होगा। प्रजातंत्र की व्यवस्था के बीच पनप रहे सफेदपोश बाहुबलियों की भी कमी नहीं। अगर जनता बुद्धिमान है तो उसे आगे आकर इन्हें रोकना होगा। अपनी सूझबूझ दिखानी होगी। दूसरों पर दोषारोपण करके आप कुछ दिनों तक तो बच सकते हैं मगर अंत में भुगतना तो खुद को ही पड़ता है।