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महान आत्मा से एक मुलाकात
क्या किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उससे मिल पाना मुमकिन है? नहीं। कम से कम साक्षात् व्यक्तिगत रूप से तो बिल्कुल भी नहीं। मरणोपरांत शरीर का अस्तित्व समाप्त हो जाता है और आत्मा के बारे में यहां स्पष्ट टिप्पणी नहीं की जा सकती। चूंकि यह आस्था का क्षेत्र है। मनुष्य के पंचतत्व में विलीन होने पर उसे देख पाना संभव नहीं। चिरनिद्रा में सोये मानव को जगाना संभव नहीं। आत्मा की बात यहां करना इसलिए निरर्थक है कि यह यहां संदर्भित भी नहीं। अन्यथा उसके अस्तित्व पर तर्क-वितर्क शुरू हो जाएगा। मगर सुना है कि योगीजन आत्माओं से सीधे संबंध स्थापित कर बातचीत भी कर लेते हैं। ध्यान लगाकर उनसे संपर्क बना लेते हैं। उन्हें देख सकते हैं। उनके दर्शन कर सकते हैं। कहा तो जाता है कि आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है और फिर एक-दूसरे को देख-सुन-समझ सकती है। लेकिन हम जैसे भोगी सामान्य मानव द्वारा इन सब अलौकिक अहसास का आनंद ले पाना आमतौर पर संभव नहीं। सामान्यतः लोग अपने पूर्वजों को भी भूल जाते हैं। बहुत अधिक हुआ तो दो-तीन पीढ़ी पहले तक का नाम याद रह जाता है। हां, अगर यह नाम लोकप्रिय, शक्तिशाली, प्रभावशाली व उपयोग-उपभोग के लायक हुआ तो संबंधित परिवार उन्हें दिन-रात याद करते हैं। लोगों के बीच स्मरण किया जाता है। अपनी-अपनी हैसियत से स्मारक बनाए जाते हैं। पार्क बनवाए जाते हैं। रोड, शहर, मोहल्ले के नाम रखे जाते हैं। जन्मशताब्दी और जयंती मनाई जाती है। मगर इन सबके पीछे प्रेम नहीं होता। असल में यह सब स्वार्थ के लिए किया जाता है। अक्सर कुछ समय गुजर जाने पर मरे हुए व्यक्ति से भावनात्मक संबंध जैसी कोई बात नहीं रह जाती है। जीवन आगे चलना है, कहकर भुला दिया जाता है। हां, कुछ संस्कारी भले बच्चे अपने बुजुर्गों के साथ बिताये समय को याद करते हैं। उनके द्वारा कही गई पुरानी बातें स्मरण की जाती हैं। लेकिन जिन्होंने उन्हें देखा नहीं वो सिर्फ नाम ही जान पाते हैं। और अगर संबंधित व्यक्ति के द्वारा या उसके लिए लिखा हुआ उपलब्ध है तो उसके व्यक्तित्व के बारे में पढ़ा जा सकता है। अन्यथा सामान्य परिस्थितियों में उसके जानने वालों के माध्यम से उसे कुछ-कुछ जाना जा सकता है। उसके जीवन से संबंधित प्रमुख जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। बहुत महान व्यक्ति हुए तो उनकी महानता को पढ़-पढ़कर हम अक्सर एक रेखाचित्र अपने मस्तिष्क में खींच लेते हैं, बस। ऐसा अक्सर ऐतिहासिक पुरुषों के लिए होता है कि पढ़कर-सुनकर उनके बारे हम काफी कुछ जानने लगते हैं। इसमें कितना सत्य कितना गल्प होता है विवाद का विषय है। लेकिन हम उनका अपनी कल्पनानुसार एक खाका जरूर खींच लेते हैं, मन ही मन में। मगर शायद हम उन्हें पहचानते नहीं। और अगर पहचान भी लें तो उनके सत्य का अहसास नहीं कर पाते। सामान्य रूप में उनके साथ जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर पाते। ऐसा तभी संभव है जब हम भावनात्मक के साथ-साथ आध्यात्मिक व ज्ञान के धरातल पर भी उनसे जुड़ने की कोशिश करें। जो सामान्य परिस्थितियों में संभव नहीं।
साहित्य के क्षेत्र में ‘शुभ तारिका’ पत्रिका की अपनी एक विशिष्ट पहचान है। (स्वर्गीय) डा. महाराज कृष्ण जैन इसके संस्थापक संपादक थे। महाराज जैन ने अम्बाला में कहानी-लेखन महाविद्यालय की भी स्थापना की थी। यह अपने आप में एक अनूठा प्रयोग था। इससे कई लेखक-पत्रकार लाभान्वित हुए और आज भी इससे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। शुभ तारिका के पाठकों की संख्या हजारों में है। सबसे सुखद आश्चर्य यह देखकर होता है कि बचपन से पोलियोग्रस्त होते हुए भी डा. जैन ने इस पत्रिका को देश के कोने-कोने तक पहुंचा दिया और यह आज भी देश ही नहीं विदेशों में भी पहुंच रही है। उनके देहांत के पश्चात शुभ तारिका का सफल संपादन उनकी पत्नी श्रीमती उर्मि कृष्ण के द्वारा किया जा रहा है। इन्दौर, मध्यप्रदेश की उर्मि कृष्ण ने शादी के पश्चात अम्बाला में आकर यहां भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है।
मैं, डा. महाराज कृष्ण जैन से कभी नहीं मिला, न ही उन्हें देखा है। मगर जाने क्यूं, ऐसा लगता है कि मैं उन्हें जानता हूं, पहचानता हूं, उनकी उपस्थिति महसूस कर सकता हूं, उन्हें समझ सकता हूं। उनसे धुंधला-सा अलौकिक संपर्क स्थापित कर सकता हूं। शायद इसीलिए जब शुभ तारिका पत्रिका के विशेषांक में जैन साहब के लिए लिखने की बात सामने आयी तो पहले तो हिचकिचाहट थी कि मैं तो उनसे मिला नहीं। मन में सवाल उठे कि ऐसी परिस्थिति में क्या उनके लिए लिखना उचित होगा? लेकिन फिर अगले ही पल लगा कि हां यह संभव है। आंखें बंद करते ही, आत्मकेंद्रित होकर जैसे ही सोचने लगता हूं तो लगता है कि वो मेरे सामने उपस्थित हैं। मैं उन्हें देख सकता हूं। यह अनुभव अद्भुत है। यह कैसे संभव हुआ? सोच-सोच कर हैरानी होती है। शुभ तारिका परिवार से मेरा संबंध 2007 में हुआ जबकि उनका देहांत 2001 में हो चुका था। और फिर मैं तो साधारण इंसान हूं, कोई योगी और महात्मा तो नहीं। असल में मात्र दो वर्ष के दौरान ऐसा कुछ होता चला गया कि लगा कि मैं उन्हें बरसों से जानता हूं।
विगत वर्ष शुभ तारिका के चंडीगढ़ विशेषांक को संपादित करने के दौरान मैं पत्रिका की मुख्य संपादक उर्मि जी के संपर्क में आया। यह मेरे लिये साहित्यिक सृजन के क्षेत्र में शुभकारी-फलकारी सिद्ध हुआ। संपादन का अनुभव मिला वो अलग। उर्मि जी के पास संचित ज्ञान के अथाह समुद्र से कुछ बूंद मैं भी चख पाया। और प्रमुख है कि उर्मि जी के माध्यम से ही मैं महाराज जैन को पढ़कर समझ और जान सका। इस हद तक कि अब तो लगता है कि मैंने उन्हें बहुत करीब से देखा है। कभी-कभी यहां तक लगता है कि वो मेरे सामने साक्षात् उपस्थित हो जाते हैं। यह उनके व्यक्तित्व का प्रभाव तो है ही, साथ ही उर्मि जी का उनके प्रति प्रेम व समर्पण भी है। दावे से कह सकता हूं कि जो भी एक बार उर्मि जी से मिलेगा उनकी महाराज जी से भी मुलाकात हो जाएगी। उर्मि जी के मन-मस्तिष्क, यहां तक की हर शब्द में महाराज जैन इस तरह बसे हैं कि आप उस अहसास से बच ही नहीं सकते। उर्मि जी का डा. जैन के प्रति इस अद्भुत प्रेम के लिए ‘त्याग’ शब्द शायद शोभा न दे, ‘समर्पण’ शब्द का प्रयोग भी उचित नहीं होगा, इन शब्दों में अहसान का पुट होता है, यह तो प्रेम की पराकाष्ठा है, जो उनके मन में अपने पति के प्रति आज भी अगाध श्रद्धा है। गांधारी ने तो आंखों में पट्टी बांधकर पता नहीं क्या सिद्ध करना चाहा था, चूंकि इतिहास बताता है कि इस प्रतिज्ञा से, त्याग के कारण धृतराष्ट्र ने उलटे गलती अधिक की। अंधे धृतराष्ट्र ने मन-मस्तिष्क की आंखों से भी देखना बंद कर दिया। काश! वो गांधारी की आंखों से ही देख लेते तो यकीनन महाभारत नहीं होता और कौरव जिंदा रहते। लेकिन यहां उर्मि जी ने डॉक्टर जैन के निष्क्रिय (पोलियोग्रस्त) पैरों को अपने कदम देकर, उन्हें जो क्रियाशील बनाया, चलायमान किया, हिन्दी साहित्य स्पंदित हो उठा। सृजन का संसार चहक उठा। उर्मि जी तो साक्षात् सीता का रूप हैं, जो महाराज जैन के वनवास रूपी सांसारिक जीवन में पूरी तरह तन-मन-विचारों के साथ, उनके साथ रहीं। मीरा की तरह उनके भजन रूपी साहित्य में पूरी तरह लीन। कोई शिकायत नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, सिर्फ सच्चा प्रेम। एक आदर्श जीवन साथी की तरह।
आज के युग में ऐसे भावनात्मक संबंध दिखाई नहीं देते। बाजारवाद के युग में यह संभव भी नहीं। कहते हैं प्रकृति का संतुलन बेजोड़ है। कहीं किसी बात की कमी है तो वहीं किसी और की अधिकता से संतुलन बनाया गया है। अगर डाक्टर जैन शारीरिक रूप से चलने में असमर्थ थे तो क्या हुआ, उनका मस्तिष्क अत्यधिक क्रियाशील व चलायमान था। वो सामान्य आदमी से अधिक कल्पना करते थे। वैसे भी शरीर को चलाने के लिए दो पैर चाहिए, मगर कल्पनाओं को इसकी कोई आवश्यकता नहीं, वो तो पंख लगाकर ऊंची उड़ान भर सकते हैं। सृजन का संसार शरीर की सीमाओं के परे है। लिखने के लिए पैर नहीं हाथों की आवश्यकता होती है और डा. जैन की कलम सशक्त थी। निरंतर चली। और खूब चली। साहित्य के लिए शरीर नहीं आत्मा चाहिए। दर्शन के लिए शारीरिक बल नहीं विचारों का आत्मबल चाहिए जो डा. जैन में भरपूर था। साथ ही वो एक सामान्य, सरल व सहृदयी थे। जमीन से जुड़े हुए थे। तभी वो महान कहलाए। इसके अतिरिक्त भी कई कारण हैं, उन्होंने प्रकृति द्वारा आरोपित सीमाओं को बड़ी हिम्मत से लांघा, तभी तो वो शारीरिक रूप से कमजोर होते हुए भी दूर क्षितिज तक चलते चले गए। आम स्वस्थ आदमी पहाड़ों की तो छोड़िए आलस्य में जमीन पर भी कम ही घूमने निकलता है। मगर डा. जैन हिमाचल प्रदेश से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों में घूमते रहे। हिमालय से उन्हें बेहद लगाव था। उन्होंने अंतिम सांस भी पहाड़ पर ही ली थी। सामान्य आदमी मेहनत करने से जी चुराता है, आसान रास्ता ढूंढ़ता है, मगर उन्होंने इस अवस्था में भी पीएचडी की। उनके शैक्षणिक गुरु, पीएचडी के गाइड डा. संसारचंद्र ने शुभ तारिका के एक कार्यक्रम में ठीक ही कहा था कि उन्हें देखकर लगता था कि वो पूरे इंसान हैं और शायद हम सब अधूरे और अपाहिज। यह सत्य है कि वो असामान्य पुरुष थे, महान थे, मगर साथ ही उर्मि जी श्रद्धेय हैं। तभी तो राधा का नाम श्रीकृष्ण से पहले आता है और सीताराम कहने की परंपरा है।