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प्रजातंत्र का पतन
समाज का बुद्धिमान वर्ग इस लेख को पढ़ने के बाद मुझे अनपढ़, अक्खड़, नासमझ या बेवकूफ करार दे सकता है। मुझे प्रजातंत्र विरोधी कहा जा सकता है। यह सिद्ध किया जा सकता है कि मैं राजशाही या फिर तानाशाही के साथ खड़ा हूं। मुझे खुद को दिये जाने वाले उपनामों से कोई खास परेशानी नहीं, लेकिन भविष्य में होने वाले बदलाव को मैं अनदेखा नहीं कर सकता। मेरे मतानुसार, अगर यही हाल रहा और हमने अपनी कमजोरियों पर नियंत्रण नहीं किया, वर्तमान की अवस्था एवं व्यवस्था में कोई विशेष सुधार नहीं किया तो प्रजातंत्र का पतन सुनिश्चित है। और इस सदी के अंत तक दुनिया में यह अपनी अंतिम सांसें गिन रहा होगा। इस बात को पढ़कर राजनीति शास्त्र के कई विद्वान अपने-अपने तर्क दे सकते हैं, समाजशास्त्र के ज्ञानी के साथ मिलकर इसके विरोध में चर्चा कर सकते हैं, लेकिन वर्तमान से आंख नहीं मूंद सकते। मात्र दो-तीन सदी पुराना (आज का) गणतंत्र अपनी वृद्धा अवस्था में पहुंचा हुआ प्रतीत होता है। जहां शरीर के विकार बीमारी बनकर उभरने लगे हैं। कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया है। मुंह में दांत नहीं, पेट में आंत नहीं, आदमी खाये तो खाये क्या, जैसी स्थिति हो चुकी है। उसने आंखों से देखना बंद कर दिया तो उधर कान से सुनना बंद हो गया। मगर फिर भी हेकड़ी ऐसी कि इसके अंधभक्त इसका इलाज करने के लिए तैयार नहीं। हकीकत को स्वीकार करने को तैयार नहीं। बस रोज नये ख्वाब, हवा में। और आवश्यकता से अधिक आत्मविश्वास। अति हो रही है। तभी तो सर्वनाश सुनिश्चित है।
प्रजातंत्र का आगमन हजारों वर्ष के राजशाही युग का अंत था। सैकड़ों वर्षों में, राजमहलों के अंदर पनपी गंदी राजनीति और कुकर्मों का फल था। राजाओं की अय्याशी और क्रूरता से त्रस्त जनता विद्रोह कर बैठी। जमींदारों-सूबेदारों के अत्याचारों ने आग में घी का काम किया था। राजनायकों की महत्वकांक्षा राष्ट्रों पर थोप दी जाती थी। सेना और युद्ध से अवाम त्रस्त था। लिहाजा जनता परिवर्तन चाहती थी। ऐसे में प्रजातंत्र का प्रयोग, उसे अच्छा लगा। यह सुनकर कि शासन में उसकी भागीदारी होगी, वो गर्व से भर गया। शब्दों की ऐसी लफ्फाजी कहां मिलेगी, लोगों का शासन - लोगों के द्वारा - लोगों के लिए, उसे इतने अच्छे लगे कि वो आत्मविभोर हो गया। और फिर ऐसी लहर चली कि पूरे संसार को उसने शनैः शनैः अपने कब्जे में ले लिया। तकरीबन हर देश में, अपने-अपने तरह की स्थानीय क्रांति ने राजाओं को महलों से निकालकर भगा दिया। सत्ता, जनता के प्रतिनिधि, नेताओं के हाथों में सौंप दी गयी। नेपाल उसका नवीनतम उदाहरण है। सत्ता हस्तांतरण के दौरान हर जगह जनता नशे में चूर थी, ठीक उसी तरह जिस तरह कुछ समय पूर्व नेपाल की जनता सड़कों पर नाची थी। इसका मतलब यह कदापि नहीं कि नेपाल के शाही परिवार ने देश में कोई भी अच्छे काम नहीं किये थे या सारे बुरे ही किए थे। यहां सवाल उठता है कि उनकी जगह बिठाये गए नये शासक, जो यकीनन नये रूप में होंगे, नये नाम से होंगे, क्या वो जनता के साथ पूरा न्याय कर पायेंगे? क्या वो कोई गलत काम नहीं कर रहे या करेंगे? क्या उनसे सिर्फ अच्छे की उम्मीद की जा सकती है? इसके जवाब के लिए हमें प्रजातंत्र में जी रहे सैकड़ों देशों के पिछले सालों के अनुभवों को देखना होगा। जहां अराजकता, अव्यवस्था, असमानता, असंतोष, अनुशासनहीनता निरंतर बढ़ती ही चली जा रही है।
आदर्श रूप में प्रजातंत्र एक उत्तम व्यवस्था है। जनता अपने व समाज-देश के हित को देखते हुए अपने नेताओं का चुनाव करती है। पूरा न होने पर उसे हटा देती है। कहने को तो यह बहुत अच्छा लगता है कि शासक को एक सुनिश्चित वर्ष के बाद जनता के पास वोट के लिए जाना पड़ता है और इस तरह से वो निरंकुश नहीं बन पाता और नियंत्रण में रहता है। यही प्रजातंत्र का अस्त्र और महत्वपूर्ण बिंदु है। मगर यही ताकत उसकी सबसे बड़ी कमजोर बन चुकी है। शासक प्रजातंत्र में पंगु होता है। वो जनता द्वारा नियंत्रित होता है। शासक सदा जनता को अपनी ओर खींचने में, खुश करने में लगा रहता है। वो देश के लिए नहीं वोटरों के लिए काम करता है। असल में हम यह भूल जाते हैं कि राजनीति शास्त्र के नींव में समाजशास्त्र है और उसके भी पहले मनुष्य का मानव शास्त्र, उसकी सोच, उसका दर्शन, उसका व्यक्तित्व आता है। जो कि अपने आप में क्लिष्ट है। स्वाभाविक रूप से यह बहुत ही स्वकेंद्रित है। वह स्वयं के स्वार्थ को, छोटे और व्यक्तिगत लाभ को सदैव ऊपर रखता है। और यह प्राकृतिक भी है। और यही से शुरू होता है प्रजातंत्र के पतन का प्रारंभ। मूल कारण। असल में प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत ही प्रजातंत्र के विनाश का कारण बन रहा है। आम जनता जब स्वयं के हित को पूरा होते नहीं देखती तो वह शासक से मुंह फेर लेती है। एक ऐसा हठी बच्चा जो माता-पिता की बात को नहीं मानता, वह यह समझने के लिए तैयार नहीं कि उसका वास्तविक हित क्या है। वह वर्तमान को देखता है, उसी में जीता है, भविष्य से उसका कोई मतलब नहीं। वह स्वयं को देखता है राष्ट्र और समाज का स्थान बाद में आता है। सच पूछें तो सामान्य रूप में, देश-समाज से उसका कोई सरोकार नहीं। एक तरफ जनता में अच्छे शासक की समझ नहीं, दूसरी तरफ शासक जनता को आकर्षित करने के लिए तैयार बैठा है। उसे पता है कि जनता को किस तरह से पुचकारा जाये, ऐसा कौन-सा लौलीपॉप दिया जाये जिससे बच्चा खुश रहे, बेशक फिर चाहे वो उसके सेहत के लिए ठीक न हो। इसके लिए वो उसकी भावनाओं से खेलता है। उसे उसकी कमजोरियों के माध्यम से अपने वश में करता है। धर्म-भाषा, क्षेत्र व संस्कृति के नाम पर भड़काता है। सस्ते मगर घातक प्रलोभन देता है। प्रजातंत्र में चूंकि जनता की आवाज पर ही जब सब कुछ होना है तो कुछ ऐसे शासक भी आ जाते हैं जो अवाम को डरा-धमका सके। सामान्य जनता आमतौर पर लफड़ों से दूर रहना चाहती है, डर जाती है। यही कारण है जो गुंडे-बदमाशों का जोर राजनीति में बढ़ जाता है। कौन जायेगा उनका विरोध करने। यह कहना बड़ा आसान है, कुछ बातें किताबों में अच्छी लगती है लेकिन व्यावहारिक रूप में संभव नहीं। सभी मन-मस्तिष्क और शरीर से मजबूत नहीं होते। यह स्वीकार करना होगा कि सामान्यतः जनता सीधी-सादी और समझौतावादी होती है। और यहीं से प्रजातंत्र अपने सही रूप में नहीं रह जाता। और फिर जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली नीति चल पड़ती है। जो बढ़कर कहीं-कहीं, कभी-कभी तानाशाह के रूप में पैदा हो जाती है।
एक और पक्ष देखें, प्रजातांत्रिक प्रणाली में जनता की भागीदारी की बात तो बाद की है, पहले अधिकांश राजनीतिक पार्टियों को ही देख लें, इन पर कुछ एक परिवार का ही वर्चस्व बना हुआ है। इनमें आंतरिक प्रजातंत्र नहीं। यूनियन, जो समाजवादी सिद्धांत पर आधारित होते हुए प्रजातंत्र का एक प्रतीक है, वहां प्रजातंत्र का सबसे घिनौना रूप देखा जा सकता है। अधिकांश यूनियन के नेता सालों साल, दशकों तक अपने यूनियन पर ठीक उसी तरह कब्जा जमाये रखते हैं जैसे यह उनकी व्यक्तिगत जागीर हो। जोड़-तोड़, मारपीट, षड्यंत्र के द्वारा भोले-भाले सीधे-सादे कर्मचारियों को ऐसे उलझाये रखा जाता है कि हर बार वही चेहरे और वही लोग अपना वर्चस्व बनाये रख सकें। प्रजातंत्र आदर्श रूप में सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन उसके लिए पढ़ी-लिखी जनता के साथ-साथ उसका समझदार होना भी आवश्यक है। लेकिन फिर यह भी पूरी तरह व्यवहारिक नहीं लगता। उदाहरण के तौर पर हम अपने ही दक्षिण भारतीयों को ही देख लें, जहां शिक्षा के बेहतर प्रचार-प्रसार के बावजूद सौंदर्य और ग्लैमर के नाम पर शासक चुने जाते हैं। अमेरिका जैसा सर्वोच्च देश भी इस बात से अछूता नहीं। विगत वर्ष साराह पॉलिन के उपराष्ट्रपति पद के लिए खड़ा होना एक बेहतरीन उदाहरण है। फैसला चाहे जो हुआ हो लेकिन जनता के बीच उनका आकर्षण देखते बनता था। प्रारंभ में तो उन्होंने हवा बना दी थी।
असल में प्रजातंत्र में हर आदमी स्वतंत्र है। और जब सभी स्वतंत्र हैं तो समाज का निर्माण कैसे हो सकता है। समाज का मतलब ही है एक व्यवस्था। जिसमें सभी को नियम में बंधकर चलना होता है। आजकल वास्तविकता में सब मिलकर जब एक परिवार में इकट्ठे नहीं रह पा रहे तो एक देश में साथ रहना आसान नहीं। विश्व परिदृश्य को देखें तो हर देश में हाहाकार मचा हुआ है। हर कोई अपना झंडा लेकर खड़ा है। हर कहीं क्षेत्र के नाम पर, धर्म के नाम पर, भाषा के नाम पर, रंग के नाम पर खूब राजनीति हो रही है। नेता भावनाओं से खेलने के फिराक में रहते हैं। देशों को आजकल पड़ोसी देश से कम आंतरिक विरोध से ज्यादा जूझना पड़ रहा है।
प्रजातंत्र के खिलाफ उसके जन्म से ही शक की बुनियाद दर्शनशास्त्रियों ने रख दी थी। और इस भीड़तंत्र को मूर्खों का शासन कहा था। कोई माने न माने मगर यह भीड़ कब अपने ही घरों में आग लगा देगी उसे स्वयं नहीं पता। हां, पूछने वालों के लिए यह बताना चाहूंगा कि बर्बादी की इस रफ्तार से, भविष्य में जिस नयी व्यवस्था का आगमन होगा, उसमें छोटे-छोटे कबीले होंगे जो महीनों व दिनों के हिसाब से जुड़ते और टूटते रहेंगे। रोज नयी लड़ाइयां होंगी। वैज्ञानिक रूप से उन्नत होने के बावजूद भी हम हजारों साल पुरानी कबीली संस्कृति में पहुंच जाएंगे। हम एक बार फिर इस सत्य को प्रमाणित करेंगे कि जीवन एक कालचक्र है जिसका पहिया सदा घूमता रहता है। अगर इस अंधेरे से बचना चाहते हैं तो सर्वप्रथम, आज इसी वक्त, उन सभी 30-40 प्रतिशत लोगों को, जो अक्सर वोट नहीं डालते, जो पढ़े-लिखे मगर निष्क्रिय, समझदार मगर डरपोक, ज्ञानी मगर कमजोर हैं, प्रण लेना होगा कि वो इस बार वोट अवश्य डालेंगे। देश को एक सशक्त शासक चुन कर देंगे। जो निर्भय होकर राष्ट्र को आगे बढ़ाए। अन्यथा आने वाली पीढ़ी हमें इस गुनाह के लिए कभी माफ नहीं करेगी कि हमने प्रजातंत्र को कमजोर करने में अपना योगदान दिया था।