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मन्नू भंडारी की तेरी मेरी कहानियां
लोकप्रिय कहानीकार मन्नू भंडारी, मेरी पत्नी की प्रिय लेखिका हैं। उस जमाने से जब वो दिल्ली में इंजीनियरिंग की छात्रा हुआ करती थीं। मन्नू जी की कहानियां व उपन्यास उसने खरीद कर पढ़ी हैं। उनके द्वारा लिखे नाटक उत्साहपूर्वक देखे हैं। उनकी लिखी पिक्चरें कई बार देखी हैं। आज भी वह उनकी रचनाओं को, गाहे-बगाहे, दुःख-सुख में, कभी खाली समय में तो कभी चिंतन के नाम पर पुनः पढ़ लिया करती हैं। उनसे संबंधित लेख व उनके साक्षात्कार तो पढ़ना छोड़ती ही नहीं। उनसे फोन पर बात करने के लिए भी वो हमेशा तैयार रहती हैं। मन्नू भंडारी को पढ़ने वाले इस तरह के सैकड़ों-हजारों पाठक मिल जाएंगे। इस विशाल पाठक वर्ग द्वारा मन्नू जी की रचनाओं पर किसी भी तरह के वाद-विवाद करने का सवाल ही नहीं, उल्टे उनके लेखन की खूबियों की व्याख्या करने के लिए ये लोग सदैव तैयार रहते हैं। वास्तविकता में भी मन्नू जी एक आदर्श लेखिका हैं। उनके विरुद्ध कोई भी तर्क-वितर्क बिल्कुल नहीं दिया जा सकता। अनर्गल बातें नहीं की जा सकती। विरोध के स्वर सुनाई नहीं देते। चाहे फिर वो लेखन या विचारधारा हो या फिर व्यक्तित्व। वो जीवनभर, किसी भी क्षेत्र में देख लें, विवादों से दूर रहीं। यकीनन वो सफल लेखिका के साथ-साथ एक महान महिला हैं। उनके लेखन में सरलता व सहजता के साथ-साथ समाज की गलियों में पनपती आम जिंदगी है। छोटे-छोटे घरों की दीवारों में सिमटी एक आम औरत की कहानी और उसका संपूर्ण संसार है। कई रंग हैं। उनकी व्यथा है। कहीं-कहीं महिला चरित्र आसमान में ऊंचा उड़ने के लिए फड़फड़ाती हुई जरूर मिल जाएगी। परंतु उनकी कहानियों में कहीं भी सीधे-सीधे विद्रोह नहीं। हां, संस्कारों के साथ चलते हुए स्वतंत्र होने की छटपटाहट देखी जा सकती है। अपने समय के साथ कदमताल करती कहानियां, बहुत कुछ कह जाती हैं।
लोकप्रिय और प्रसिद्ध लोगों की आत्मकथा पढ़ने का मुझे शौक है। उनसे बहुत कुछ जानने और समझने का मौका मिलता हैं। विशेष रूप से लेखकों के जीवन में झांकने से, उनके लेखन के बहुत से पहलू उजागर होने लगते हैं। उनके द्वारा लिखी गयी रचनाओं के कई पात्र सजीव हो उठते हैं और कई चरित्रों का निर्माण क्यों हुआ, समझ आने लगता है। समकालीन सामाजिक परिवेश और आसपास के जीवन से उठाई गई कहानियां बेहतर ढंग से समझी जा सकती हैं। उसका मूल आधार समझ आता है। यही नहीं तत्कालीन समाज की ऐतिहासिक घटनाओं व दुर्घटनाओं के बारे में कई बार कुछ छिपे हुए तथ्य खुलकर उभरते हैं। कुछ ऐसी बातें भी पता चलती हैं जो आमतौर पर दबी रहती।
मन्नू भंडारी की आत्मकथा, ‘एक कहानी यह भी’ पढ़ी। इसमें कोई शक नहीं कि बहुत सोच-समझ कर इसका शीर्षक रखा गया है। यह रचना के सार से संबंधित है। इस पर लेखिका की स्वयं की व्याख्या भी सटीक व न्यायसंगत है। मगर इसे ‘तेरी मेरी कहानियां’ कहा जाता तो शायद और बेहतर होता। तब फिर शीर्षक स्वयं बहुत कुछ कहने लग पड़ता। क्योंकि मन्नू जी के साथ-साथ लेखक राजेन्द्र यादव जी की कहानी भी चलती है। राजेंद्र यादव इस आत्मकथा में प्रमुख पात्र बनकर उभरे हैं। यह स्वाभाविक भी है। कई जगह यह समझना मुश्किल है कि मन्नू भंडारी के मन में उनके प्रति क्रोध है या दिल के किसी कोने में दबा-छिपा सॉफ्ट कॉर्नर। किसी व्यक्ति विशेष के लिए बहुत अधिक कहना या लिखना तभी संभव है जब आप उसके साथ किसी न किसी रूप में जुड़े हों, या जुड़े रहने की अपेक्षा रखते हो, फिर चाहे यह जुड़ाव भावनात्मक रूप में ही सही नकारात्मक हो या फिर सकारात्मक। मन्नू जी व राजेंद्र यादव के बीच के संबंध आज खुली किताब हैं और इस पर दोनों ने कई बार बात की है। मगर इस आत्मकथा के माध्यम से मन्नू जी ने अपने पक्ष को मजबूती से रखा है। वो भी विस्तार में। जो यह प्रमाणित करता है कि उनके मन में राजेंद्र जी के प्रति विशेष भाव हैं। वो भाव क्या और क्यूं है, इस पर चर्चा करना दीगर बात है। बहरहाल, लेखिका स्वयं भी इसे कहीं न कहीं स्वीकार करती हैं। यह अलग बात है कि एक पति के रूप में राजेंद्र यादव जी से अपेक्षाएं, उन्हें अंदर ही अंदर निरंतर डसती रही। खाती रही। खोखला करती रही। एक ही छत के नीचे साथ रहते हुए भी (अपरिभाषित व अप्रत्याशित) दूरी से उत्पन्न हुआ खालीपन, जिसे लेखन के द्वारा भरने की उन्होंने सदा कोशिश की। और जब नहीं सहा गया तो पारंपरिक बंधनों को तोड़कर अलग हो गईं। उनके स्वयं के शब्दों में, ‘लेखन के कारण ही वे आज तक इतना सहकर भी जीवित हैं।’ लेखन, मातृत्व और एक औरत की भावनाएं, यह तीन कोण, मन्नू भंडारी के मस्तिष्क में जिस तेज रफ्तार से कशमकश करते चले हैं, वो उनके लेखन में पढ़ा जा सकता है, समझा जा सकता है, देखा जा सकता है। मन्नू भंडारी बाल्यकाल से ही सक्रिय छात्रा व उत्साही युवती रहीं। देश, समाज व व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक विशिष्ट विचारधारा के साथ पली बढ़ीं। साथ-साथ स्वयं की सोच भी जाग्रत की और उसके साथ क्रियाशील रहीं। प्रारंभ से ही उनमें आत्मसम्मान के साथ संवेदनशीलता भी थी। देशप्रेम की भावना से सदा ओतप्रोत।
हर महान व्यक्ति के जीवन को ध्यान से देखें तो पायेंगे यह आमतौर पर सामान्य नहीं होता। असामान्य परिस्थितियों में उनके द्वारा लिये गए विशेष निर्णय, प्रतिकूल अवस्था व वातावरण में कार्य करने की उनकी क्षमता और जीवन का उतार-चढ़ाव उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करता है। और इन्हीं विशेषताओं के कारण फिर वो इतिहास में दर्ज हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ मन्नू जी की जीवनी पढ़कर भी कहा जा सकता है।
मन्नू भंडारी की आत्मकथा का सबसे सशक्त पहलू है शब्द, विचार एवं कथन में सादगी व अपनापन। प्रवाह में निरंतरता। लेखकीय आडंबर से दूरी। दर्शन के नाम पर क्लिष्टता बिल्कुल नहीं। विचारों में गुत्थम-गुत्था भी नहीं। बस सीधी-सीधी अभिव्यक्ति। चाहे फिर वो पारिवारिक मित्र हो या रिश्तेदार। सभी के लिए कुछ ही शब्दों में सशक्त टिप्पणी। इसी रफ्तार में वो राजनीतिज्ञों-पत्रकारों व कलाकारों-साहित्यकारों के बारे में भी चर्चा करती चली गईं। व्यक्ति विशेष के गुण-अवगुण के ऊपर भी अपने स्वतंत्र विचार रखे। सिख विरोधी दंगों के संदर्भ में उनकी टिप्पणी यहां विशेष उल्लेखनीय है। जिस बेबाकी से उन्होंने कई पक्ष रखे वो पढ़कर पाठक को एक बार रुककर सोचना पढ़ता है। आज के युग में जब किसी भी तरह की सच्चाई लिखना, लेखकों के लिए मुश्किल होता जा रहा है, मन्नू भंडारी की लेखनी को प्रणाम करने का मन करता है।
मन्नू भंडारी का जीवन ‘अभिमान’ फिल्म की भांति पुरुष अहम् की भेंट चढ़ गया प्रतीत होता है। पुरुष महिला से पिछड़ना बर्दाश्त नहीं कर पाता। और यही एक प्रमुख वजह दिखाई पड़ती है जो उन्होंने इतने दुःख झेले। मगर वे अभिमान की नायिका की तरह भाग्यशाली नहीं थीं जो कालांतर में सुखी वैवाहिक जीवन व्यतीत कर पातीं। उनका जीवन इस बात को पुनः प्रमाणित करता है कि वास्तविकता कल्पना से अधिक कठोर होती है। शारीरिक अस्वस्थता के कारण उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में कोई विशेष लेखन नहीं किया। इसकी छटपटाहट इस आत्मकथा में देखी व पढ़ी जा सकती है। इस पर महाश्वेता देवी का कथन बहुत अधिक प्रासंगिक है, ‘मन्नू मेरे भीतर गर्व और दुःख दोनों जगाती है। मन्नू सामाजिक, आर्थिक हर तरह से आत्मनिर्भर थी। मन से कमजोर क्यूं पड़ गई? मन्नू बड़ी मुहब्बती, सरल और निश्छल है। ईश्वर उसे स्वस्थ रखे, दोबारा उसे कलम की ताकत से भर दे। दुनिया की तमाम नाइंसाफी, फरेब, पीड़ा का जवाब अपनी कलम से ही दे। बस, वह यूं खामोश न रहे।’
जीवन एक उपन्यास से ज्यादा अप्रत्याशित, कठिन, भावपूर्ण, कष्टप्रद व दुखभरा हो सकता है। इस आत्मकथा को पढ़कर इसे महसूस किया जा सकता है। मन्नू जी के जीवन में उभरे घावों को आज समझना मुश्किल है। उनके दर्द को पढ़ा तो जा सकता है मगर तीव्रता का अहसास करना कठिन है। इस आत्मकथा के माध्यम से तत्कालीन भारतीय नारी की स्थिति स्पष्ट होती है। विशेष रूप से एक (विशिष्ट गुण-अवगुण वाले) लेखक की पत्नी की वेदना को समझा जा सकता है। हां, एक आम पाठक के लिए यह सोच पाना मुश्किल है, स्वीकार करना तो नामुमकिन है कि एक लेखक, जो कि संवेदनाओं का दम भरता है, चरित्रों के निर्माण में भावनाओं का प्रवाह करता है, उनके माध्यम से आदर्श स्थापित करता है, समाज को अच्छे-बुरे का ज्ञान देता है, तो फिर खुद अपने जीवन में, अपनी पत्नी के साथ, इतना अधिक गलत कैसे हो सकता है? राजेंद्र यादव, स्वयं को, इस जीवनरूपी उपन्यास में, नायक या खलनायक, किस श्रेणी में रखना पसंद करेंगे?