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अनुवाद की संस्कृति

सेमिनारों में जाने के बड़े फायदे हैं। विद्वानों की बातें सुनने पर बहुत-सी जानकारियां प्राप्त होती हैं। उनके मात्र दस मिनट के वक्तव्य से इतना ज्ञान प्राप्त हो सकता है जिसे स्वयं पढ़कर समझने में घंटों-महीनों भी लग सकते हैं। और फिर यह कई किताबों का निचोड़ होता है। जीवन के अनुभव के रस में डूबा होता है। आमतौर पर गोष्ठियां बोझिल और सारहीन होती हैं। असल में सेमिनार की सफलता का पूरा दारोमदार वक्ता पर निर्भर करता है। वक्ता के ज्ञानी के साथ-साथ वाक्‌कला में निपुण होना जरूरी है। अन्यथा कई पढ़े-लिखे बोल नहीं पाते और कई बहुत अच्छा बोलने वालों के पास बोलने लायक कुछ नहीं होता, और वो सिर्फ शब्दों की खाते हैं। लेकिन अगर वक्ता में दोनों कला हो तो फिर समझ लो कि वक्ता और श्रोता के बीच में सीधा, सरल व सुरुचिपूर्ण संपर्क स्थापित होकर ज्ञान प्रवाहित होने लग पड़ता है। मानसिक संतुष्टि प्राप्त होती है। वातावरण जगमगा उठता है। आम शब्दों में ‘मामला हिट’। और अगर उद्-बोधन के बाद सुनने वालों को खुलकर चर्चा करने का मौका मिल जाये तो इस तरह की सभाएं सारगर्भित और सफल हो जाती हैं।

‘अनुवाद की संस्कृति’ विषय पर पंजाब विश्वविद्यालय ने एक सेमिनार का आयोजन किया था। नामवर सिंह, रमेश कुंतलमेघ, प्रयाग शुक्ल, विनोद साही, वीरभारत तलवार जैसे विद्वानों के अतिरिक्त मुख्य बात यह थी कि कई प्रसिद्ध अनुवादकों को आमंत्रित किया गया। इन सभी ने अपने-अपने विचार रखे, चर्चाएं हुईं और बहुत-सी ऐसी बातों की जानकारी प्राप्त हुई जो आमतौर पर शायद न हो पाती। सामान्य पाठकों के लिए एक भाषा से दूसरी भाषा में किसी भी रचना का अनुवाद एक सीधा सरल कार्य है। जिसमें मात्र यह समझा जाता है कि अनुवादक का दोनों भाषाओं का जानकार होना आवश्यक है। बस। अगर पाठक जागरूक है और बहुत अधिक हुआ तो इतना भर जान सकता है कि अनुवादक द्वारा मूल रचना में अपनी तरफ से कुछ नहीं जोड़ा जाना चाहिए। मूल रचना से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। मूल को ध्यान में रखकर अनुवाद किया जाना चाहिए। पाठक विद्वान हुआ तो यह कह सकता है कि अच्छा अनुवादक शब्द दर शब्द अनुवाद नहीं करता। अनुवादक की कुछ सीमाएं हैं और अनुवाद के कुछ सिद्धांत। अधिकांश लोगों का यह मत होता है कि अनुवाद में मूल भावना शतप्रतिशत नहीं आ पाती। ये सभी विचार सत्य और वास्तविकता के नजदीक हैं। इसके अतिरिक्त ये बिंदु मूल सैद्धांतिक हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता, मगर अनुवाद की दुनिया बस यहीं तक सीमित नहीं है। इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है।

हम सभी, रोजमर्रा की जिंदगी में पढ़ते समय, सुनते समय, हर वक्त अनुवाद का काम ही करते रहते हैं। जब भी कोई रचना पढ़ते हैं, कोई बात सुनते हैं, तो उसे सर्वप्रथम अपने मस्तिष्क की भाषा में अनुवाद कर, समझकर, विश्लेषित करने का प्रयास करते हैं। अंतिम निष्कर्ष में निहित ज्ञान व सूचना को संचित करने के साथ-साथ तन-मन-मस्तिष्क को आवश्यक कार्य करने का निर्णय व निर्देश देते हैं। यहां हम अनुवादक का कार्य ही कर रहे होते हैं। सीधे-सीधे समझने के लिए इसे इस तरह से भी कहा जा सकता है कि जब भी हम अपनी समझ वाली दूसरी भाषाओं की कोई भी रचना या वक्तव्य, पढ़ते या सुनते हैं, तो उसे अपनी मातृभाषा में मन ही मन पहले अनुवाद करते हैं। ऐसा ही कुछ हर एक कंप्यूटर में भी होता है जहां कंप्यूटर ऑपरेटर की भाषा (एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर) को कंप्यूटर पहले अपनी भाषा (मशीन लेंग्वेज) में परिवर्तित करता है। यही कारण है जो विद्वानों द्वारा कहा जाता है कि मातृभाषा में स्कूल की पढ़ाई कराई जानी चाहिए क्योंकि यह सीधे-सीधे आपको समझ आ सकती है। वरना अंग्रेजी में पढ़ने पर पहले हमारा दिमाग इसे अपनी भाषा में अनुवाद करेगा फिर मस्तिष्क के द्वारा क्रियान्वयन होगा। साफ मतलब हुआ कि इस प्रक्रिया में मस्तिष्क की ऊर्जा और उसकी कुशलता कम होती है।

अक्सर कहा जाता है कि अनुवादक रचनात्मक कार्य नहीं करता है, वो सृजन नहीं करता। सैद्धांतिक रूप में यह सोच ही गलत है। अच्छा अनुवादक, मूल रचना को पहले पूरा पढ़ता है, संपूर्णता में समझता है और फिर दूसरी भाषा में उसको पुनः लिखकर स्थापित करता है। एक तरह से मूल रचना का पुनर्निर्माण करता है। अर्थात नयी भाषा में रचनात्मक सृजन करता है। इसे पुनर्जन्म भी कह सकते हैं। यहां, अनुवादक, कथाशिल्प में अपनी भाषा के अनुरूप खिलवाड़ कर सकता है। उसकी शैली में थोड़ा-बहुत उलट-फेर कर सकता है। लेकिन रचना की आत्मा को छेड़ा नहीं जा सकता। और फिर छेड़ना भी नहीं चाहिए। यही अनुवादक की मुख्य सीमा होती है।

अनुवाद से भाषाएं सशक्त होती हैं। संस्कृति का आदान-प्रदान होता है। यह एक तरह से एक-दूसरे में घुलने-मिलने की प्रक्रिया का संधि स्थल है। लेन-देन के लिए प्रवेशद्वार है। कोई भी भाषा जितनी अधिक दूसरी भाषाओं ‘में’ और ‘से’ अनुवादित होगी, उतनी ही सशक्त होगी। उतना ही उसका प्रचार-प्रसार होगा। उसका साम्राज्य फैलेगा। ‘अंग्रेजी में’ और ‘अंग्रेजी से’ सर्वाधिक अनुवाद हुए हैं। इसीलिए अंग्रेजी के फैलाव को देखा जा सकता है। यह एक बहुत बड़ा कारण है जो अंग्रेजी संस्कृति चारों ओर तीव्रता से फैली। संस्कृति, सभ्यता और भाषा, एक साथ चारों ओर फैलती हैं, या यूं कहें कि ये आगे बढ़ने में एक-दूसरे की मदद करती हैं। इसमें धर्म भी जोड़ा जा सकता है। बाइबल का दूसरी भाषाओं में सबसे अधिक अनुवाद हुआ है। यही कारण है जो ईसाई धर्म का फैलाव विश्व के कोने-कोने में बड़े शांत मगर प्रभावशाली तरीके से, वैचारिक रूप में हुआ। अनुवाद में धर्म और साहित्य ही नहीं विज्ञान और अन्य शास्त्रों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। जितना अधिक ज्ञान-विज्ञान का अनुवाद होगा, उतना ही सभ्यताएं एक-दूसरे से सीखेंगी। उनका विकास होगा। वे नजदीक आएंगी।

कविता का अनुवाद सबसे अधिक कठिन होता है। कारण है उसका संगीत पक्ष। उसकी काव्यात्मकता। रचना में आने वाले स्थानीय शब्द, जिनको अक्षरशः अनुवादित कर देने पर कई बार तो कविता का प्रवाह नहीं बनता और कई बार उपयुक्त शब्द ही नहीं मिलते। परिणामस्वरूप कविता का मूल रस अनुवादित नहीं हो पाता। सौंदर्य और संगीत की अनुभूति की जा सकती है, उसका अनुवाद वैसे भी मुश्किल है। सोचिए, अंग्रेजी उपन्यास का अनुवाद तो किया जा सकता है मगर क्या पश्चिमी नृत्य-संगीत डिस्को का अनुवाद संभव है? तभी तो संगीत का उसके मूल रूप में ही आनंद लिया जा सकता है। चूंकि कविता में संगीत भरा हुआ है, इसीलिए इसका अनुवाद टेढ़ी खीर है। और यही कारण है जो अनुवादित गद्य पद्य से अधिक लोकप्रिय हुआ। अगर आपको भाषा का ज्ञान है तो कविता का रस पीने व भरपूर आनंद लेने के लिए उसे उसकी मूल भाषा में ही पढ़ा जाना चाहिए।

मौखिक अनुवाद भी स्वयं में एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। विशिष्ट भी। दो देशों के शासनाध्यक्षों की आपस में बातचीत के दौरान अनुवादक एक महत्वपूर्ण रोल अदा करता है। बीच का द्विभाषी एक की भावना, विचार, मुद्दे व आंकड़े दूसरे तक सही-सही पहुंचाने का अहम कार्य करता है। इस कड़ी का विश्वसनीय और सशक्त होना आवश्यक है। विश्व के अधिकांश देशों के शासक अपनी भाषा में बात करते हैं। इसके नुकसान कम फायदे अधिक हैं। सबसे अधिक महत्व की बात यह है कि आपकी, सामने वाले से गोपनीयत बनी रहती है। आपकी संस्कृति का प्रचार होता है, प्रभाव पड़ता है। आपके अस्तित्व की पहचान बनती है। और सबसे प्रमुख आपकी भाषा के द्विभाषी की उपयोगिता के कारण दूसरे देश में आपकी भाषा को पढ़ा जाता है। 9/11 आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका ने अपने बजट में करोड़ों डॉलर का प्रावधान दूसरी भाषाओं को सीखने के लिए रखा है। क्योंकि हमले के दौरान आतंकवादियों की भाषा को समझने वाला वहां कोई नहीं था। दुर्भाग्यवश हमारे देश का शासक वर्ग विदेशियों से बात करते समय अंग्रेजी का इस्तेमाल करता है। इसके कारण दूसरे राष्ट्र के लोग अपने द्विभाषी को लाते हैं। अगर हमारे शासक वर्ग हिन्दी व अन्य देसी भाषाओं का इस्तेमाल करें तो विदेशों में भी हमारी भाषा का द्विभाषी बनाने के लिए इन भाषाओं को पढ़ा जाएगा। इससे हमारी भाषा का विस्तार होगा। विदेशी हमारे साहित्य को पढ़ना व संस्कृति को समझना चाहेंगे। और फिर हम कहीं न कहीं अपनी पहचान बना सकेंगे। यह क्या कम महत्वपूर्ण है? यह अनुवाद की महत्ता है जिसे हमें जितनी जल्दी हो सके समझ लेना चाहिए।