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सीमाओं में परिभाषित राष्ट्र

अमृतसर के नजदीक स्थित वाघा बॉर्डर पर सायंकालीन परेड समारोह में, आजकल अच्छी-खासी भीड़ होने लगी है। अमृतसर आने वाले हर एक पर्यटक के लिए यह एक महत्वपूर्ण एवं दर्शनीय पर्यटन स्थल बन चुका है। बीएसएफ के छह फुट से ऊंचे जवानों द्वारा अनुशासन के साथ परेड करना यहां मुख्य आकर्षण होता है। पाकिस्तान की ओर से पाकिस्तान रेंजर्स के जवान भी पूरी मुस्तैदी के साथ यही कार्य करते हैं। सीमा के पार भी, लाहौर जैसे महत्वपूर्ण शहर के नजदीक होने के कारण, खूब भीड़ जमा होती है। तकरीबन घंटेभर के समारोह में दोनों ओर देशप्रेम की भावना उमड़ पड़ती है, जोश उत्पन्न होता है, भरपूर नारे लगाये जाते हैं। दर्शकों द्वारा अपने-अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाया जाता है। उनके प्रदर्शन पर इतनी तालियां बजाई जाती हैं कि माहौल में गरमाहट महसूस होने लगती है। बारी-बारी से दोनों ओर के परेड के समर्थन पर उत्पन्न होने वाले शोर में प्रतिस्पर्द्धा के साथ-साथ लयात्मकता होती है, जो वातावरण में विशिष्ट तरंग उत्पन्न करती है। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों ओर के जवानों-अफसरों द्वारा व्यवस्थित ढंग से इस कार्यक्रम को प्रस्तुत किया जाता है। और यकीनन इसके लिए आपस में मिलकर पूर्वाभ्यास किया जाता होगा। हर स्तर पर दोनों ओर से परस्पर सहयोग रहता होगा। अन्यथा इस कार्यक्रम के नियमित रूप से सफलतापूर्वक संपन्न होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। प्रारंभ से ही गलत नारे या गलत शब्दों के प्रयोग से बचने की सलाह दी जाती है। उत्तेजना को संयम के साथ संतुलित करने की कोशिश की जाती है। अपने-अपने दर्शकों को अनुशासन के साथ बैठाया जाता है। परेड के दौरान दोनों ओर से तालमेल होता है, मानो संगीत-सा कोई प्रवाह हो। इसीलिए तीव्र संवेदना से उत्पन्न क्रोध के होते हुए भी सकारात्मकता होती है। दोनों ओर के जवानों के चेहरे पर लाये जाने वाली भाव-भंगिमा व शरीर की भाषा, बॉडी लेंग्वेज, गुस्से का प्रदर्शन करती प्रतीत होती है, मगर ध्यान से देखने पर दूसरी-तीसरी बार में यह समझने में कठिनाई नहीं होती कि यह बनावटी है और सिर्फ मनोरंजन के अतिरिक्त कुछ नहीं। फिर भी, दोनों देशों के बीच में तनाव होने पर उसका असर यहां देखा जा सकता है। बहरहाल, यह एक बार देखने लायक कार्यक्रम अवश्य है और आजकल अत्यधिक लोकप्रिय है। यही कारण है जो दूर-दूर से नागरिक इस स्थल पर पहुंचते हैं।

वाघा बॉर्डर मूल ग्रांड ट्रंक रोड पर अमृतसर और लाहौर के बीचों-बीच दिखाई देता है। यह अमृतसर से तकरीबन तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। और इतना ही कुछ-कुछ लाहौर से भी होगा। 1999 में अमन सेतु (श्रीनगर व मुज्जफराबाद के बीच के सड़क मार्ग) के खुलने से पूर्व तक, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच की आवाजाही के लिए यही एकमात्र सड़क मार्ग था। यह आज भी रेल यातायात के लिए उपयोग किया जाता है। यहां से न केवल नागरिकों का आना-जाना बल्कि दोनों देशों के बीच का व्यावसायिक आयात-निर्यात भी होता है। अमृतसर और लाहौर दोनों ही इस क्षेत्र के प्राचीन व महत्वपूर्ण शहरों में से एक हैं। दोनों का इतिहास पुराना है, संस्कृति विशिष्ट है। इतने नजदीक दो बड़े शहरों का होना अपने आप में विशेष है। विभाजन के दौरान इन दो महान शहरों के बीचों-बीच बंटवारा होने से ही शायद इतनी हृदय-विदारक घटनाएं हुई थीं। इसी रास्ते से अधिकांश लोगों का विस्थापन हुआ था। जिसके चलते इन स्थानों पर सर्वाधिक खून-खराबा हुआ था। अमानवीयता की हदें पार की गई। वाघा, एक गांव, जिसका आधा हिस्सा पाकिस्तान तो आधा हिन्दुस्तान में आया। और शायद यही कारण है कि जो इस बार्डर को एशिया की बर्लिन वॉल भी कहा जाता है। आज वहां जाने पर, नयी पीढ़ी को, कुछ भी ऐसा अहसास नहीं होता कि मात्र कुल पचास-साठ वर्ष पहले यह सीमाएं बांध दी गई थीं। और लोग एक तरफ से दूसरी तरफ पीढ़ियों से बसा हुआ घर छोड़कर अफरा-तफरी में भागे थे। कुछ जरूरी सामान के साथ, कुछ खाली हाथ। रास्ते में कई बिछड़े थे तो कई पहुंच नहीं पाये थे। आज उसी स्थान पर जाने पर देश प्रेम की भावनाएं जागती हैं।

संयोगवश विगत माह वाघा बॉर्डर के साथ-साथ फिरोजपुर के नजदीक स्थित हुसैनीवाला बॉर्डर भी देखने का मौका मिला। सूर्यास्त के दौरान राष्ट्रीय ध्वज को सम्मानपूर्वक उतारने की विशिष्ट रिट्रीट परेड का आयोजन सतलुज नदी के तट पर स्थित हुसैनीवाला बॉर्डर पर भी किया जाता है। यहां पर भी दोनों देश के जवानों द्वारा सायंकालीन विशिष्ट परेड का आयोजन किया जाता है। यहां पर वाघा बॉर्डर जैसी भीड़ तो नहीं उमड़ती, मगर ऐसी कई विशेषताएं हैं जो वाघा बॉर्डर से इसे अलग करती हैं। यहां पर सीमा रेखा के बहुत नजदीक तक पहुंचा जा सकता है। वाघा बॉर्डर पर दोनों तरफ के दर्शक नागरिक दूर-दूर होते हैं, वहीं इस स्थान पर, एक रेखा जो कि सफेद रंग से सड़क के बीचों-बीच खींची गई है, के दोनों तरफ बिलकुल आमने-सामने बिठाये जाते हैं। बीच में कोई अवरोध नहीं होता। कहीं-कहीं तो बिलकुल अगल-बगल। वे इतने नजदीक होते हैं कि एक-दूसरे को न केवल अच्छे से देख सकते हैं बल्कि हाथ भी मिला सकते हैं। इस सफेद सीधी खींची गई रेखा को एक क्षण के लिए तो सिपाही भी परेड करते हुए कुछ पल के लिए लांघते हैं। कार्यक्रम में आते-जाते हुए, जाने-अनजाने ही सही, दर्शकों का पैर भी इस सीमा रेखा के पार पड़ सकता है। आदमी द्वारा बनाई गई हर चीज, इस रेखा के दोनों ओर, अलग-अलग दिखाई देती है, चाहे फिर वो संतरी का कक्ष व गेट हो या फिर उन पर लिखी भाषा व लिपि, यहां तक कि इस रेखा के दोनों तरफ के रोड के रंग में दिखने वाला फर्क अलग से दिखाई देता है। आसमान, हवा, खेत तो दोनों ओर एक से ही हैं, इंसान भी बहुत हद तक एक से हैं, अगर दोनों में कोई फर्क है तो उनके पहनावे और दृष्टि में।

हुसैनीवाला बॉर्डर के नजदीक किसी बड़े शहर के न होने के कारण, यहां का कार्यक्रम वाघा बॉर्डर की तरह अभी उतना लोकप्रिय नहीं। कार्यक्रम में भीड़ बेशक कम हो, परंतु यहां का ऐतिहासिक महत्व कुछ अधिक जान पड़ता है। यहीं पर शहीद भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव की समाधियां स्थित हैं जिन्हें देखकर देश के प्रति एक विशिष्ट भाव उत्पन्न होता है। यहीं पर इन तीन महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के चौथे साथी बटुकेश्वर दत्त की समाधि भी स्थित है। उनकी अंतिम इच्छा अनुसार ही उनका इसी स्थान पर 1976 में अंतिम संस्कार किया गया। शहीद भगत सिंह की माता विद्यावती का भी, उनकी अंतिम इच्छा अनुसार, इसी स्थान पर अतिम संस्कार किया गया। जिन्हें बाद में पंजाब माता की उपाधि दी गयी। इन महान विभूतियों के एक स्थान पर होने से यह विशिष्ट और आदरणीय स्थल बन जाता है। भारत-पाक युद्ध में इस स्थान पर भीषण लड़ाई हुई। इस दौरान यहां काफी नुकसान हुआ था। वर्तमान में फिरोजपुर से आने वाली रेलवे लाइन यहां पर आकर रुक जाती है। अन्यथा पूर्व में यह पाकिस्तान क्षेत्र तक जाती थी। बॉर्डर के नजदीक उपस्थित आखिरी रेलवे स्टेशन की बिल्डिंग आज भी खड़ी हुई है। इसमें अंगे्रजों की भवन कला दिखाई देती है। इन पुरानी हो चुकी बिल्डिंगों में भारत-पाक युद्ध की गोलियों और बारूद के निशान आज भी नजर आते हैं। विभाजन के पूर्व अंग्रेजों के जमाने के बने हुए इस रेलवे स्टेशन की एक झलक देखकर मेरे मन में कई सवाल उत्पन्न हुए थे। इतिहास को जानने की उत्सुकता हुई थी। यह कुछ-कुछ आज के जमाने के दिल्ली में स्थित मेट्रो रेलवे स्टेशन की तरह दिखाई देता है।

इन सीमाओं पर स्थित दोनों ओर के लहलहाते खेतों को देखने पर कोई फर्क का अहसास नहीं होता। कई स्थानों पर यह खेत दोनों ओर समान रूप से फैले दिखाई देते हैं। नदियां भी कई बार इन सीमाओं को लांघती हैं, और एक ओर से दूसरी ओर आती-जाती आगे बढ़ती हैं। आसमान में उड़ते पंछी के लिए इन सीमाओं का कोई अस्तित्व नहीं। जमीन पर चलने वाले जानवर जरूर मानव निर्मित तारों की बाढ़ से उलझकर लहूलुहान हो जाते हैं। मनुष्य के विकास का प्रतीक, मोबाइल के सिग्नल भी नहीं रुकते और रेडियो-टीवी की तरंगे दोनों ओर सुनी और देखी जाती हैं। एक-दो सैकड़ा वर्ष के बाद, विज्ञान की उन्नति के साथ, जब मानव ब्रह्मांड में अतिविकसित जीवन जी रहा होगा तब उसे पीछे मुड़कर देखने पर, इस तरह की सीमाओं के बारे में जानने व पढ़ने पर हैरानी होगी। यकीन करना मुश्किल होगा। लेकिन तब शायद हम आकाश में कोई नयी सीमाएं बना चुके होंगे। चूंकि मनुष्य की यह फितरत आदमी के साथ सदैव रहेगी। वो, स्वयं के लिए कोई न कोई कहीं न कहीं सीमा खींचकर, उससे अपने आत्मसम्मान को जोड़कर, आत्मविभोर होता रहता है।