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यूरोपियन साहित्य का प्रभाव
साहित्य के माध्यम से संबंधित समाज व सभ्यता, तत्कालीन संस्कृति और संदर्भित इतिहास की जानकारी ली जा सकती है। यही कारण है जो अनुवादित साहित्य का स्वागत किया जाना चाहिए। इसके माध्यम से घर बैठे दुनिया को पढ़ा जा सकता है, देखा जा सकता, समझा जा सकता है, जाना जा सकता है। बाहरी दुनिया से संपर्क स्थापित होता है। यह देखने-सुनने में छोटी बात लगती है। मगर इसके दूरगामी परिणाम होते हैं। इसीलिए यह महत्वपूर्ण भी है। सकारात्मक रूप में देखें तो यह घर में रोशनदान नहीं दीवार में एक छिद्र के समान है जहां रोशनी की पतली लकीर प्रवेश करती है और फिर पूरे घर में फैल जाती है, पता ही नहीं चलता। नकारात्मक रूप में लें तो यह एक छोटा-सा छेद जहाज को डुबो भी सकता है। इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए देखें तो पायेंगे कि यूरोप का साहित्य बेहद लोकप्रिय है। यह विश्वभर में पढ़ा जाता है। यहां के लेखकों का जमकर अनुवाद हुआ और वे विश्व साहित्य में प्रमुख स्थान रखते हैं। क्या वजह है जो शेक्सपीयर पूरी दुनिया में जाने जाते हैं? किसी और भाषा में इसके समकक्ष नाम नहीं दिखाई देता। क्या यह मान लिया जाए कि इतना प्रभावशाली लेखक दूसरी भाषाओं में पैदा नहीं हुआ? ऐसा तो बिलकुल भी नहीं। तो फिर क्या कारण है कि चेखव, टॉल्सटॉय, दॉस्तोएवस्की जैसे नाम हिन्दुस्तान की जनता के दिलोदिमाग पर आज भी छाये रहते हैं? आम पाठक हिन्दी के रचनाकारों का नाम जाने न जाने मगर इनका नाम जानने वाले बड़ी संख्या में हैं। इनकी अधिकांश रचनाएं हिन्दी में अनुवादित हो चुकी हैं या हो रही हैं। मगर ध्यानपूर्वक विश्लेषण करें तो पायेंगे कि इन रचनाओं का उच्चस्तरीय होना एकमात्र कारण नहीं है। इसे शासक की शासित पर होने वाले प्रभाव के रूप में भी देखा जा सकता है। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि यूरोप ने विश्व पर कभी राज किया था। इसके माध्यम से आज भी महसूस किया जा सकता है यूरोप के वर्चस्व को। इन्हें उन्नत व विकसित सभ्यता माना जाता है। इन्हें जानने की हममें उत्सुकता होती है और इन्हें कॉपी करने की अभिलाषा। यही कारण है जो इनकी रचनाएं कौतूहलतावश पढ़ी जाती हैं। और चूंकि पढ़ी जाती हैं इसीलिए छपती हैं, अनुवादित होती हैं। फिर जो ज्यादा छपेगा वो ज्यादा बिकेगा ज्यादा लोकप्रिय होगा और ज्यादा मांग में होगा। पुनः छापा जाएगा। यह एक चक्र है। क्या हिन्दी के रचनाकारों को इसी तरह से दूसरी भाषा में अनुवादित किया जाता है? नहीं। क्या सिर्फ रचनाओं की श्रेष्ठता ही लोकप्रियता का आधार है? नहीं। ये प्रश्न जाने-अनजाने ही अनुवादित पुस्तकों के पढ़ने के दौरान जेहन में उभरते हैं। ये पूरी तरह आधारहीन नहीं हैं। मुझे भारतीय संदर्भ में उसकी उपयोगिता, उसके संदेश और संस्कृति से जोड़े जाने पर भी संदेह रहता है।
विगत सप्ताह साहित्य की एक गोष्ठी में विशेष रूप से बुलाया गया। एक प्रतिष्ठित लेखक द्वारा किया गया चेखव की कहानी का हिन्दी अनुवाद पढ़ा जाना था। उस पर चर्चा होनी थी। मैं चेखव का प्रशंसक रहा हूं। कसी हुई कहानियां लिखने में चेखव माहिर थे। आम घटनाक्रम को भी बड़ी सरलता से उठाते। मगर कार्यक्रम में सुनाई गई कहानी मुझे लंबी और बोझिल लगी। बहुत देर तक समझ न आयी। मुझसे पूर्व सभी वक्ता इसकी बड़ाई कर चुके थे। अपनी बारी आने पर मैंने अपना पक्ष बड़ी सफाई से रखने की कोशिश की, पूरे सम्मान व आदर के साथ। फिर भी लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। लोग चेखव की कहानी को कमजोर मानने को तैयार ही नहीं थे। क्या यह संभव है कि एक रचनाकार की सभी रचनाएं श्रेष्ठ हों? फिर चाहे वो कितना भी महान हो। मगर हमारे लेखक-पाठक के लिए विदेशी लेखक पूजनीय हो जाते हैं। जहां फिर उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता।
अनातोले फ्रांस (1844-1924) फ्रेंच साहित्य में बड़ा नाम है। 1921 में नोबल पुरस्कार मिलने के पश्चात उनकी ख्याति को और अधिक बढ़ना ही था। इसी बीच, अनातोले फ्रांस के चुनिंदा कहानियों का हिन्दी अनुवाद पढ़ने को मिला। एक प्रतिष्ठित समाचारपत्र के लिए पुस्तक की समीक्षा करनी थी। कुछ एक कहानियां पढ़ते ही कई सवाल उभरने लगे। उदाहरणार्थ, पहली (लंबी कहानी) ‘सात पत्नियां’ नारी पर केंद्रित है। जहां दूसरी-तीसरी पत्नी के आते-आते यह नारी चरित्र के पतन की कहानी बन जाती है। पाठक के मन-मस्तिष्क में स्त्री की एक विशिष्ट रूपरेखा खिंच जाती है। नायक तो अंत तक नायक रहता है मगर नायिका खलनायिका साबित हो जाती है। अंतिम दो-तीन कहानियां ‘दांत का दर्द’, ‘पेरिस की सुंदरी’, ‘रूप की परी’ के पढ़ने पर तो अनायास ही ये प्रश्न मजबूती से उठ खड़े हुए। असल में ये सभी कहानियां स्त्री के चरित्र पर उंगली उठाती हैं। सभी में उनके पर-पुरुष प्रेम का प्रदर्शन है। हर एक कहानी में नायक बड़ा असहाय व भोला-भाला दिखाया गया है। और जहां अपवादस्वरूप कोई कहानी की नायिका, पिछली पीढ़ी की या आदर्श नारी प्रतीत होती है, पति के दुखदायी होने के बावजूद उसके लिए प्रेम की भावना रखती है तो वहां भी शारीरिक पैमाने ही याद किए जाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ नारी पर ही कहानियां लिखी गयी हैं। प्रकाशन, संपादन, धर्म, अफवाह, समाज के प्रचलन पर कई कहानियां हैं। परंतु कहीं न कहीं नारी केंद्र में है और लक्ष्य भी। इन सभी कहानियों की नायिकाएं सुंदर दिखाई गई हैं, अब चूंकि वास्तव में भी फ्रांस नारी सौंदर्य का केंद्र है तो लेखक द्वारा सत्य प्रदर्शित किया जाता है, ऐसा कहा जा सकता है, लेकिन फिर ऐसे में नारी के चरित्र के लिए लेखक द्वारा कहे गये विचार को भी स्वीकार करना होगा। लेकिन यह सत्य नहीं हो सकता। कहानी पढ़ने के दौरान एक सजग पाठक के मन में सवाल उठ सकता है कि कहीं ये लेखक के किसी विशिष्ट मानसिक सोच का द्योतक तो नहीं? जानने के लिए जीवन का अध्ययन किया। पाया कि लेखक का वैवाहिक जीवन संतुलित और संतुष्ट नहीं था। यह उथल-पुथल से भरा था। मगर फिर सवाल उठ सकता है कि क्या व्यक्तिगत अनुभव इतने महान लेखक पर भी इस हद तक हावी हो जाते हैं? क्या यह लेखन तक को प्रभावित कर सकते हैं? अगर हां तो यह साहित्य में चिंता व चिंतन का विषय है। वैसे मात्र कुछ कहानियों के माध्यम से लेखक के कृतित्व व व्यक्तित्व के किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। तो फिर दूूसरी संभावना बनती है कि कहीं यूरोप के तत्कालीन समाज की आंतरिक स्थिति इतनी खराब तो नहीं हो चुकी थी? हो सकता है। लेकिन फिर पूछा जाना चाहिए कि इसे दिखाकर समाज को संदेश क्या दिया जा रहा है? किसी पुस्तक में इसी तरह की कहानियों का प्रमुखता से चयन भी एक कारण हो सकता है। तो फिर इसके लिए पुस्तक का संपादक जिम्मेदार हुआ। हकीकत में लेखक, संपादक, समीक्षक, सभी को सामाजिक जिम्मेदारियों का अहसास होना चाहिए। साहित्य जहां दर्पण है वहीं मीठी गोली भी, धीरे-धीरे प्रभाव डालता है मगर होता असर गहरा है। इसलिए रचनाओं में विविधता के साथ सावधानी आपेक्षित है।
बहरहाल, अनुवादित पुस्तकों की समीक्षा में यह सवाल भी उभरना चाहिए, उभरता होगा कि समीक्षा मूल कहानी को ध्यान में रखकर की जाये या फिर सिर्फ अनुवाद के स्तर को। लेकिन फिर अनुवाद को भी मूल के साथ जोड़कर ही देखा जा सकता है। संवेदनशील अनुवादक द्वारा अमूमन शिल्प व कथन में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं किया जाता। किया भी नहीं जाना चाहिए। विचारों को छूना तो खतरे से खाली नहीं। और कहानी की आत्मा को कम से कम बिलकुल भी नहीं छेड़ा जाता। एक अच्छे अनुवाद के ये मुख्य पैमाने हो सकते हैं। लेकिन फिर इस बात को जानने व देखने के लिए समीक्षक का मूल भाषा का ज्ञानी होना आवश्यक है। जो व्यवहारिक नहीं। पाठक से तो यह अपेक्षित नहीं। अन्यथा अनुवाद होने व पढ़ने पर ही प्रश्नचिह्न लग जाएगा। उसकी आवश्यकता नहीं रह जाएगी। पाठक और मूल लेखक के बीच अनुवादक एक महत्वपूर्ण कड़ी ही नहीं, एक पूरा पुल होता है। अनुवादक मूल लेखक को स्तरहीन भी बना सकता है और पाठक तक भी पहुंचा जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो अनुवाद को पढ़ने से पाठकों का ज्ञान बढ़ता है। विशेष रूप से तत्कालीन संबंधित साहित्य, समाज, सभ्यता, संस्कृति, धर्म व इतिहास पर एक नजर पड़ जाती है। मगर उपरोक्त कहानियों में जिस तरह स्त्री चरित्र पर शंका दिखाकर पुरुष ने अपने वर्चस्व को पुनः स्थापित करने की कोशिश की है, वह आज के संदर्भ में स्वीकार्य नहीं। यह सत्य है कि पुरस्कृत सभी कहानियां अच्छी ही हों, जरूरी नहीं। और फिर इस बात को प्रमाणित करती है कि एक बार लिखा गया हर एक युग में, हर देश में, पसंद किया जाए, आवश्यक नहीं। समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। समाज, समाज की समस्याएं, उसे देखने का दृष्टिकोण, समाधान और जीवन का व्यवहारिक उद्देश्य। कल का संदर्भ आज भी फिट बैठें जरूरी नहीं। स्वीकार्य हो आवश्यक नहीं। और शायद इसीलिए भी साहित्य निरंतर लिखा जाता है, नये रूप में, नये स्वाद में, नये गुण-दोष के साथ। आवश्यकता इस बात की है कि हर पुस्तक को आंखें खोलकर पढ़ा जाना चाहिए।