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इराक की जीती जागती तसवीर

विगत दिवस एक खबर छपी थी। टीवी पर भी इसकी चर्चा हुई है। कपड़ों में लिपटी एक दिन की नवजात बच्ची को, मध्यप्रदेश स्थित पचमढ़ी के पहाड़ों की झाड़ियों में लटका हुआ पाया गया। सुबह किसी ने बच्चे की रोने की आवाज सुनी तो उसने शिशु को पेड़ से नीचे उतारा। अनुमान है कि किसी ने ऊपर सड़क से, नीचे खाई में बच्ची को फेंका होगा। किसलिये? इस पर चर्चा की जा सकती है परंतु इसमें कोई रहस्य वाली बात नहीं। देखने वालों का कहना है कि यहां से फेंके जाने पर किसी का भी बचना नामुमकिन है। मगर बच्ची को खरोंच नहीं आयी और वो सुरक्षित बच गई। इसे मैं ईश्वर की लीला मानता हूं। बच्ची को कुछ विशेष करना है जीवन में, इसलिए वो जिंदा है, ऐसा मेरी पत्नी का मानना है। ‘जाको राखे साइयां मार सके न कोए’, स्कूल-कालेज के छात्र इस घटना के साथ इन पंक्तियों का इस्तेमाल कर सकते हैं। नास्तिक के लिए यह महज एक संयोग हो सकता है। इसे एक अनहोनी घटना कहकर पीछा छुड़ाया जा सकता है। मगर यह अनहोनी होती क्यूं है? इसका जवाब नहीं। और फिर किसी एक के साथ ही क्यूं? हां, इसे भाग्य से भी जोड़ा जा सकता है। बहरहाल, महाभारत काल से नवजात शिशु को सड़क पर, जंगल में, नदी में बहा देना या छोड़ देने की घटनाएं पढ़ने को मिलती हैं। लोक-लाज प्रमुख कारण बताया जाता है। वैसे प्रकृति ने इसकी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है। गर्भावस्था में नारी ही नहीं हर मादा प्राणी के पेट का आकार, इसे दुनिया से छुपने नहीं देता। फिर बच्चे के पैदा होने के तुरंत बाद उसे दुनिया के डर से छोड़ देना, थोड़ा शक व आश्चर्य पैदा करता है। जिंदगीभर की जिम्मेदारी से कतराना प्रमुख वजह हो सकती है। मगर फिर ऐसी अवस्था में पहले ही गर्भ गिरा देना क्या बेहतर विकल्प नहीं है। गर्भपात न कराने के पीछे, औरत के पक्ष में दी गई यह दलील सही नहीं लगती कि बच्चे को मां मारना नहीं चाहती थी। अगर ऐसा होता तो वो उसे जन्म के तुरंत बाद नहीं मारती। फेंकती नहीं। तो फिर गर्भ न गिराने की वजह एक यह भी हो सकती है कि उसे गिराने की समय सीमा कम रह जाती हो और माता पर इसके शारीरिक असर पड़ने की संभावना दिखाई जाती हो। समाज की अजब-गजब व्यवस्था और जटिल भावनात्मक रिश्तों की जकड़न में फंसी एक माता के पक्ष में यही कहा जा सकता है कि इसके और भी कई कारण हो सकते हैं। कारण चाहे जो हो मगर यह किसी भी कीमत में स्वीकार्य नहीं है और यह एक मां होने के नाम पर कई सवाल खड़े करता है। यह इस उक्ति को भी झुठलाता है कि ‘मां कभी कुमाता नहीं हो सकती।’

मदर टेरेसा के एक आश्रम में पिछले कुछ समय से जा रहा हूं। वहां बहुत बड़ी संख्या में मानसिक बीमार व्यक्ति व शारीरिक रूप से अपंग लोगों को देखकर ईश्वर से नाराजगी रहती है। घर से निकाले गए बुजुर्गों को देख सामाजिक व्यवस्था की कमजोरियां व जीवन का खोखलापन उजागर होता है। मगर यहां छोटे-छोटे बच्चे अपनी ओर ज्यादा ध्यान आकर्षित करते हैं। इनके साथ समय व्यतीत करना विशिष्ट आनंद देता है। इस बार गया तो बातचीत में उभरे कुछ तथ्यों पर यकीन नहीं हुआ। इसमें गौर करने लायक प्रमुख है, प्रथम- कुछ दिन के नवजात शिशु अनाथालय में अधिक आते हैं। द्वितीय- इनमें से अधिकांश कन्याएं होती हैं। तृतीय- यह मेरा भ्रम था कि मां-बाप बच्चों को चुपचाप कहीं पैदा करके छोड़ जाते हैं, जैसा कि अक्सर फिल्मों में दिखाया जाता है, या उपरोक्त घटना बताती है। सत्य तो यह है कि अधिकांश बच्चों के मां-बाप अपनी-अपनी बच्चियों को सिर्फ इसलिए इन आश्रमों में छोड़ जाते हैं क्योंकि वो लड़की का जिम्मा लेने को तैयार नहीं। इनमें अधिकांश एक लड़के की चाह में होते हैं। और लड़के के स्थान पर पैदा हुई दूसरी-तीसरी लड़कियों को अनाथ आश्रम में छोड़ दिया जाता है। चतुर्थ- जहां एक ओर इस तरह के स्वार्थी मां-बाप हैं वहीं दूसरी ओर इन बच्चियों को गोद लेने वालों की भी कमी नहीं। अनाथालय पहुंचने के कुछ दिनों के अंतराल में ही ये बच्चे किसी न किसी के द्वारा गोद ले लिये जाते हैं। जिस दिन मैं टेरेसा होम पहुंचा वहां सभी बच्चे, सिर्फ दो को छोड़कर, गोद लिये जा चुके थे। बस न्यायिक प्रक्रिया के पूरे होने का इंतजार था। जो दो बच्चे छूटे हुए थे, उनमें प्रथम अभी मात्र दस दिन की बच्ची थी और ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि वो कुछ ही दिनों में गोद ले ली जायेगी। दूसरी बच्ची बचपन से ही अस्वस्थ पैदा हुई थी और इसीलिए गोद नहीं ली गई थी। अनाथ आश्रम में उस वक्त करीब बीस बच्चों में मात्र दो लड़के थे। इन सभी बच्चों की उम्र अधिकतम एक से डेढ़ वर्ष की थी। सभी सुंदर, चंचल और मासूम। उनके पास जो भी प्यार से आता वे उसके अपने हो जाते। चंद मिनटों में ही मुस्कुराने लगते, खेलने लगते। कुछ देर उनके साथ बैठने पर आदमी सब कुछ भूल सकता है। इनके साथ खेलना आत्मिक सुख की अनुभूति प्रदान करता है। दुनिया के हर सुख-दुःख, नीति व राजनीति, धर्म-भाषा, संस्कृति व सभ्यता से दूर, जो भी इन्हें साथ ले जाएगा, ये उन्हीं के रंग में ढल जाएंगे। किसी एक धर्म में पैदा हुआ बच्चा किसी दूसरे धर्म में जाकर पलता है। यह मनुष्य के लिए सीख हो सकती है। अगर वो सीखना चाहे, समझना चाहे।

यहां सवाल उठता है कि इन बच्चों का क्या कसूर है। इन मासूम बच्चों का भाग्य देखकर दुःख हुआ। एक अहसास जागा कि जिस घड़ी में इनके मां-बाप ने इन्हें छोड़ने का फैसला लिया होगा, क्या उनके लिए यह आसान होगा? वे उस वक्त कितने निष्ठुर होंगे। स्वार्थी होंगे। कुछ एक उदाहरण भी आये जहां औरत ने दूसरी शादी करने के लिए अपने बच्चे का त्याग किया और इन अनाथालय में बच्चों को छोड़ा। पता चला कि इस तरह की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह हमारे आधुनिक होने की पहचान है। स्व-केंद्रित जीवन जीने का परिणाम है। नारी जाति के लिए यह एक कड़वा सत्य है, बेशक जिसकी संख्या कम सही, मगर इसे देखकर उसे आत्मविश्लेषण की आवश्यकता है। अन्यथा वो अपनी पहचान खो सकती है।

मदर टेरेसा होम में बच्चों को जिस प्रेम से रखा जाता है, देखना सुखद है। हैरानी भी होती है। इतना ध्यान तो शायद कई नैसर्गिक माता-पिता भी नहीं रखते होंगे। यह पूछने पर कि बड़े होकर क्या यह बच्चे अपने असली मां-बाप का पता पूछते हैं, जानना चाहते हैं? उत्तर मिला था, कई बार। मगर यह उन्हें बताया नहीं जाता। यह बच्चे अपने नैसर्गिक मां-बाप के लिए प्रेम रखते हैं या नफरत? सही-सही बता पाना आसान नहीं। इस मुद्दों को इतनी आसानी से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचाया जा सकता। वे अपने गोद लेने वाले मां-बाप के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करते हैं? बहुत सारे दूसरे पैमानों पर निर्भर करता है। मां-बाप का स्वभाव, सौतेले भाई-बहन का व्यवहार, सामाजिक परिस्थितियां, पारिवारिक माहौल, आर्थिक दशा एवं बच्चे का स्वयं का व्यक्तित्व। बहरहाल, बड़े होकर इनमे भी वहीं गुण-अवगुण विकसित होते हैं जो एक सामान्य बच्चे में हो सकते हैं।

उन बच्चों के बाल्यावस्था को, जो अपने माता-पिता से दूर रहते हैं, देखना ईश्वर के साक्षात दर्शन के समकक्ष हो सकता है। यहीं पर कर्मवादी और भाग्य न मानने वालों से पूछा जा सकता है कि इन चंद घंटों या कुछ दिनों के पैदा हुए बच्चों का क्या कसूर है? जो इन्हें अपने माता-पिता से दूर होना पड़ा। पुराने जन्मों का फल कहने पर यह पूछा जा सकता है कि वो अगले जन्म में ही क्यों? और फिर इनके साथ ही क्यों? भावनाओं के आवेग से बाहर आकर सोचने व देखने पर यह पुनः अहसास होता है कि ये बच्चे कई अन्य बच्चों से अधिक भाग्यशाली हैं। इन्हें कम से कम बेहतरीन गद्देदार बिस्तर, साफ-सुथरी चादर और एक सुरक्षित घर व मजबूत छत मिली हुई है। अन्यथा ऐसे कई मिल जायेंगे जो सड़कों पर भीख मांगते हुए पैदा होते हैं। कई ऐसे मिल जायेंगे जिनके मां-बाप दिहाड़ी में मजदूरी करते हैं और बच्चे मां के आंचल में बंधे, पीठ से चिपके रहते हैं या फिर रेत-मिट्टी में लेटे सीधे सूरज-चांद के तले पलते-बढ़ते हैं। ईश्वर ने पता नहीं हर बच्चे के साथ अलग-अलग अवस्था एवं व्यवस्था क्यों बना रखी है? शायद वो अधिक समझदार है तभी तो अपनी इस असमानता को छुपाने के लिए बच्चों में कोई बुद्धि व समझ नहीं दी। बच्चे हर हाल में खुश रहते हैं, फिर चाहे वो वातानुकूलित कक्ष में मां-बाप के लाड़-प्यार में पलें या फिर अनाथ आश्रम या सड़क के किनारे रेत के ऊपर। उन्हें सिर्फ इस बात का पता होता है कि मुझे कब रोना और कब हंसना है। वे अक्सर खा-पीकर तुरंत सो जाते हैं। जिसने सबको जन्म दिया, ईश्वर या जो भी नाम दें, यह उसकी लीला है या कुछ और, यह वही जाने।