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ज्ञानी को भोगी होने से बचना चाहिए

युगों युगों से कहा जाता रहा है कि साहित्य समाज का दर्पण है। सच में, यह पाठक को आईना दिखाता है। कहीं कहीं इसे समाज का नेतृत्व भी करते देखा जा सकता है। सामाजिक रूप से एक व्यवस्थापक होने का रोल भी अदा करता है। सत्य के धरातल पर खड़े होकर ज्ञान बांटना उसका एक स्वाभाविक, आवश्यक व अतिविशिष्ट कार्य है। यह कड़वा हो सकता है और नापसंद भी किया जा सकता है। फिर भी यह अपने मार्ग से भटकता नहीं। ध्येय को सदा केंद्र में रखता है। यही कारण है कि लोकप्रिय लेखन से यह अपने आप ही अलग हो जाता है। राष्ट्र का चरित्र निर्माण इसकी जिम्मेदारियां हैं। ये सभी बिंदु उसके अंतर्निहित लक्षणों व गुणों से अप्रत्याशित रूप से प्रमाणित होते हैं। यह इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, समाज शास्त्र सभी को अपने साथ अपने अंदर समेटते हुए आगे बढ़ता है। प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ भी एक तरह का उच्चकोटि का साहित्य ही है जिसमें नायक और नायिका के व्यक्तित्व को इतना ऊपर उठाया जाता है कि वे आदर्श प्रस्तुत करने लगते हैं। ईश्वरतुल्य पूजे जाते हैं। ध्यान से देखें तो ये अपने उद्देश्य से कभी नहीं भटकते। सरल और सहज होने के कारण लोकप्रिय तो होते ही हैं, मगर गहरे भी उतने ही और इसीलिए सदैव समाज के केंद्र में होते हैं। धर्म की नींव के पत्थर भी यहीं बनते हैं। साहित्य समय के पैमाने पर स्थायी होता है। यह उसकी पहचान है। उपरोक्त पंक्तियां साहित्य की परिभाषा के साथ ही उसकी जवाबदारियों का अहसास कराती हैं। यहां अधिकार कुछ नहीं लेकिन कर्तव्य की सीमा नहीं। यही कारण है जो इसे अत्यधिक भारयुक्त व कहीं-कहीं बोझिल बना देते हैं। साहित्य रचने वाले के कंधों पर समाज का दबाव महसूस किया जा सकता है। व्यावसायिक रूप में असफल, पैसा-ग्लैमर व सुख सुविधाओं से दूर। असल में इसकी उसे आवश्यकता ही नहीं रह जाती। बहुत हद तक संन्यासी। दीन-दुनिया से दूर। और यही कारण है जो साहित्यकार में चिंतन-मनन के साथ-साथ सत्य व निडर जैसे मानवीय गुणों का होना आवश्यक है। उसका व्यक्तिगत कुछ नहीं। यह एक तपस्या है। हर तरह की दुर्भावनाओं से दूर। इनका प्राकृतिक मानवीय गुण-अवगुण से कुछ ऊपर होना अपेक्षित है अन्यथा उपरोक्त सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाहन संभव नहीं। उसका चरित्र अनुकरणीय होना चाहिए। न केवल होना चाहिए दिखना भी चाहिए। चिंतन में व्यक्तिगत दुराग्रहों से दूरी आवश्यक है। अन्यथा सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा। ज्ञान देने वाले का स्तर लेने वालों से ऊपर नहीं तो ज्ञान का प्रवाह संभव नहीं। चूंकि उसकी बातों को सुना जाता है, पढ़ा जाता है इसीलिए उसके हर शब्द, हर कथन संतुलित होने चाहिए। यह समाज के हित में है। अन्यथा उसके ध्येय से भटकने पर समाज का अहित अवश्यंभावी है। और लिखा गया साहित्य नहीं रह जाता।

हर एक लेखक, अमूमन अपने लेखन को साहित्य घोषित कर, उपरोक्त अलंकृत शब्दों व विचारों का डंका पीटते देखे जा सकते हैं। और गाहे-बगाहे लोकप्रिय लेखन को तिरस्कृत कर स्वयं को उच्च स्थान पर महिमामंडित करते रहते हैं। कहीं न कहीं स्वयं को भी महान घोषित किया जाता है। मगर क्या हर दूसरा रचनाकार इन पैमानों पर खरा उतरता है? उपरोक्त गुणों-लक्षणों व ध्येय को कहां तक प्राप्त कर पाता है? यह एक प्रश्नचिह्न है। जवाब में ऐसी दलील अक्सर दी जाती है कि चूंकि साहित्यकार भी आखिरकार एक मनुष्य ही होता है इसीलिए मानवीय गुण-अवगुण से अधिक दूर होना संभव नहीं। आमतौर पर वो भी वही सब कुछ करता है जो एक साधारण इंसान करता है। यह हमेशा एक वाद-विवाद का विषय रहा है और रहेगा कि उसके जीवन में भी प्रेम, वासना, लोभ, मोह-माया, क्रोध, आकांक्षाओं का उतना ही प्रतिशत होता है जितना कि आम आदमी में। मगर सवाल उठता है कि ऐसे में क्या उसका लेखन दूषित नहीं हो जाता? समाज को सही दिशा दिखाने की जगह वह जाने-अनजाने उसे भ्रमित नहीं कर जाता? इससे बचने के लिए यह अपेक्षित होता है कि कम से कम उसकी व्यक्तिगत अपेक्षाएं व दुर्भावनाएं सामाजिक रूप से सार्वजनिक नहीं हो। और अधिक कुछ नहीं तो कम से कम लेखन में न आये। अन्यथा वो समाज को गलत राह पर चलने के लिए प्रेरित करेगा। गलत संदेश देगा। इसी संदर्भ में एक संपादक की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है। उसका रोल अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। विशेष रूप से उसे अधिक सतर्क रहना चाहिए। क्योंकि वह न केवल एक लेखक की भूमिका अदा करता हैं बल्कि लेखकों के समूह को भी नेतृत्व प्रदान करता है। उसे अपनी सोच, चिंतन, कार्य पद्धति, कार्यप्रणाली में सावधानी व संतुलन की आवश्यकता है। अन्यथा वो अपने संपादकीय से न केवल समाज को दिग्भ्रमित कर सकता है बल्कि लेखकों के चयन, उनके लेख, कहानी, कविता के माध्यम से समाज का अधिक नुकसान कर सकता है। एक लेखक की तुलना में एक असंतुलित संपादक के ज्यादा भयावह व दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।

विगत माह ‘नया ज्ञानोदय’ साहित्यिक पत्रिका में संपादक रवीन्द्र कालिया के संपादकीय ने साहित्यिक क्षेत्र में बवंडर खड़ा किया। कथन व विचार अपेक्षा के अनुरूप नहीं थे। इसे स्तरीय पत्रिका में छपने योग्य नहीं कहा जा सकता। गरिमा नहीं थी। न ही ज्ञान था। यह यकीनन उनकी व्यक्तिगत राय थी, एक अनुभव जो सार्वजनिक रूप से पाठकों पर थोपा गया। इस लेख में उनकी निजी भावना, विचार, संपर्क सूत्र का जंजाल, एक आम आदमी की पसंद-नापसंद बड़ी आसानी से साफ-साफ दिखाई दे रही थी। उनका क्रोध उनकी नापसंद बनकर शब्दों में झलक रही थी। साधारण शब्दों में इसमें हल्कापन था। उनकी निजी साहित्यिक दोस्ती-दुश्मनी पत्रिका की आवाज बनकर सीधे पाठकों तक पहुंच रही थी। सवाल उठता है कि इन प्लेटफार्मों का दुरुपयोग किया जाना कितना उचित है? इस तरह के घटनाक्रम से, क्या नये ज्ञान का उदय हो सकता है? दूसरों के लिए अम्पायर की भूमिका अदा करने वाले खुद खेल में बेइमानी करे, क्या स्वीकार्य होगा? दूसरों को दिशा दिखाने वाले स्वयं दिशाहीन हो जायें, क्या चल पायेगा? अब इस तरह के क्रिया की तीखी व तुरंत प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। परिणामस्वरूप जनसत्ता में पहले राजकिशोर फिर गगन गिल और फिर नमीता सिंह के लेख छपे। और अभी यह सिलसिला चलेगा। नौटंकी हुई है तो तमाशा तो बनेगा।

यहां सवाल उठता है कि क्या इसकी आवश्यकता थी? क्या यह अपेक्षित था? कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह से चर्चा में बने रहने का एक आधार बनता है। मगर सच तो यह है कि कुछ हजार पाठक, जिसमें ज्यादातर लेखक ही हैं, के बीच में इस तरह से चर्चा में बने रहना कोई मायने नहीं रखता। उलटे, शायद यही कारण है कि जो आज का साहित्य आम जनता में नहीं पढ़ा जाता। सोचिए, अगर पढ़ा जाता तो इसका कितना गलत प्रभाव पड़ता। क्या यह आदर्श प्रस्तुत करता? नहीं। तथाकथित लेखक वर्ग दो वर्गों में बंट गया। एक पक्ष में दूसरा प्रतिपक्ष। और इसमें भी सीधा गणित है जिसको जहां से लाभ प्राप्त होगा वह उसी के साथ खड़ा है। विचारधारा के कारण, उसके माध्यम से ऐसा होता तो यह साहित्य में शुभ कहलाता। व्यक्तिगत कटु अनुभव, लोकमंगलकारी बनकर कहे जाते तो अधिक प्रभावशाली बन पड़ता। मगर इस तरह की हरकत साहित्य के लिए ठीक नहीं। ऐसे लेखन को साहित्य कहलाने का हक नहीं। जहां जोड़तोड़, राजनीति, व्यक्तिगत प्रतिस्पर्द्धा, लोभ, लालच आ जाये तो फिर संबंधित व्यवस्था का हश्र अवश्यंभावी है। शायद यही कारण है जो लोग साहित्य से दूर हो रहे हैं। चूंकि यह जनसाहित्य न रहकर लेखकों का पारिवारिक एजेंडा बन चुका है। पिछले कुछ वर्षों में लेखकों का जबरदस्त चारित्रिक पतन हुआ है। वह व्यक्तिगत रूप से छुपा के किया जाता तो एक बार चल भी जाता। इसे कई लोगों ने स्वयं सार्वजनिक किया तो कई स्थानों पर प्रतिपक्ष ने मजाक उड़ाने के लिए इन बेहद निजी बातों व भावुक क्षणों को उधेड़ा। आजकल पत्रिकाओं में संपर्क सूत्रों के द्वारा छपा जाता है। लेखक का नाम पढ़ा जाता है लेख नहीं। उसमें अंतर्निहित विचार नहीं समझे जाते बल्कि उसके पीछे लगे व्यावसायिक वजन को देखा जाता है। यही कारण जो कला-साहित्य का स्तर आज घटा है। यही कारण जो हिन्दी साहित्य को देख पाठक हंसता है। जब लेने वाला देने वाले को भी अपना-सा ही पाता है तो छिटक जाता हैं। अन्यथा पूर्व में लिखी गयी लोकप्रिय धार्मिक रचनाओं को देखें, वो आज भी पढ़ी और सराही जाती हैं। असल में रचनाकार तपस्वी व ज्ञानी होता था। उनके व्यक्तिगत अनुभव सामाजिक सरोकार की भूमि पर उतरकर सत्य से संवाद करते प्रतीत होते थे। इसीलिए आदरणीय बन जाते थे। अनुकरणीय हो जाते थे। मगर आज ऐसा कुछ नहीं। आज का लेखक/संपादक बाजार में खड़ा है खरीदने और बिकने के लिए तैयार। और इसीलिए आम आदमी की तरह ही रह गया है। अगर उसे यकीनन बड़ा बनना है तो छोटी-छोटी चीजों से ऊपर उठना होगा।