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अपने लोकप्रिय कहलाने पर शंका
विगत दिवस उत्तर भारत के प्रमुख व्यावसायिक केंद्र, लुधियाना जाना हुआ। पैसा, ग्लैमर व चकाचौंध से भरे जीवन की नगरी। कपड़ा उद्योग, विशेष रूप से ऊनी वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध। आधुनिक पंजाबी संस्कृति का गढ़। ऐसे शहर में हिन्दी साहित्य के विशिष्ट कार्यक्रम में विशेष रूप से आमंत्रित किया जाना, अपने आप में महत्वपूर्ण बन गया। आयोजक जानी-मानी गीतकार-कवयित्री श्रीमती शकुंतला श्रीवास्तव जी के प्रेमपूर्वक अनुरोध को मना करने का कोई कारण भी नहीं था। शकुंतला जी से यह पहली मुलाकात होती, यह भी कार्यक्रम में जाने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित कर रहा था। वे जीवन के सातवें दशक में भी अपनी कविताओं व गीतों की तरह खूबसूरत और आकर्षक हैं। अपनी रचनाओं के साथ-साथ वो भी दुनियाभर में खूब घूमी हैं। और उन्हें आज भी सक्रिय देखकर किसी भी उम्र के साहित्यकार में ऊर्जा आना स्वाभाविक है।
दिल्ली से चित्रा मुदगिल, ममता कालिया और जालंधर से पत्रकार मित्र अजय शर्मा, अमृतसर से शिक्षाविद् हरमोहिन्दर सिंह बेदी व पटियाला से पुष्पपाल सिंह जैसी हस्तियों का कार्यक्रम में आना कम महत्वपूर्ण नहीं था। मगर इससे अधिक जिस बात ने मुझे रुककर सोचने के लिए और यह लेख लिखने के लिए मजबूर किया वो था निमंत्रण पत्र में हम सभी वक्ताओं को ‘अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त’ लेखक का दर्जा देना। हिन्दी साहित्य के उपरोक्त महान हस्तियों का तो पता नहीं लेकिन मुझे मेरे अंतर्राष्ट्रीय होने पर शंका हुई। मात्र कुछ कहानी और लेख बाहर की पत्र-पत्रिकाओं में छप जाना, जिन्हें पढ़ने वाले सीमित पाठक हों, वो भी मूलतः हिन्दुस्तानी, इतने मात्र से मैं संतुष्ट नहीं। हां, इंटरनेट के माध्यम से रचनाएं विश्वभर में उपलब्ध जरूर हैं, फिर भी इन्हें पढ़ने वालों की संख्या अभी कम ही है। यह अंतर्राष्ट्रीय कहलाने के लिए काफी नहीं। जब तक रचनाकार दूसरी भाषाओं में, विशेष रूप से विदेशी भाषाओं में अनुवादित होकर, स्थानीय पाठकों के बीच तक नहीं पहुंचते, निरंतर पढ़े नहीं जाते, तब तक अपने नाम को राष्ट्र के सरहदों के पार महसूस करना मुझे ठीक नहीं लगता। हकीकत में देखें तो हिन्दी साहित्य इस मामले में आज भी बहुत पीछे है जिसके कारण कई हैं। इनकी विस्तार में चर्चा फिर कभी करूंगा।
कार्यक्रम में ‘कथा साहित्य कल और आज’ विषय पर बोलना था। जब बोलने के लिए इतने अनुभवी वक्ता पहले ही क्रम में हों तो कथा-साहित्य के कथा-वस्तु-कथन-काल और सामाजिक सरोकार और उसके संदर्भ के बारे में, दोनों युगों को तुलनात्मक रूप से देखना व टिप्पणी करना मेरे लिए उतना जरूरी नहीं रह जाता। श्रोताओं को एक ही बात बार-बार सुनने से होने वाली उकताहट का भी भागीदार बनना उचित नहीं। और इसीलिए एक पाठक की दृष्टि से देखते हुए मैंने कुछ मुद्दे उठाए। इसमें कोई शक नहीं कि पहले से बेहतर लिखा जा रहा है। हर तरह से हर एक क्षेत्र के अनुभवी व ज्ञानी लोग लेखन के क्षेत्र से जुड़ रहे हैं। बाजारवाद, पूंजीवाद, आतंकवाद और अहंवाद के बीच भी सृजन, कला व साहित्य में सामान्यजन की भागीदारी बढ़ी है। लालसा बढ़ी है। कल्पनाओं व विचारों में गहराई व फैलाव हुआ है। मेहनत की जा रही है। अन्य भाषाओं की तरह यह हिन्दी के लिए भी उतना ही सत्य है। मगर सवाल उठता है कि बेहतर लिखे जाने के बावजूद आज के हिन्दी साहित्य की तथाकथित बड़ी हस्तियों को जनसाधारण कितना पढ़ता है। कितने लोग हिन्दी साहित्यकारों को जानते हैं। जबकि प्रेमचंद तब भी पढ़े जाते थे आज भी पढ़े जाते हैं। तब भी जाने जाते थे आज भी जाने जाते हैं। मगर हम न तो पढ़े जाते हैं और न ही जाने जाते हैं। यह लेखन की सामाजिक व साहित्यिक या व्यक्तिगत कुंठा नहीं, धरातल का सत्य है। मेरे एक लेखक मित्र ने मुझसे कहा था कि हम पढ़े जाते हैं या नहीं, इसकी चिंता नहीं करते, हमें सामान्य पाठक वर्ग से वास्ता भी नहीं। लेकिन फिर इस सवाल का उनके पास कोई जवाब नहीं था कि वो छोटी-छोटी साहित्यिक पत्रिका में भी छपने के लिए इतनी राजनीति व भागदौड़ क्यों करते हैं। यह भी अक्सर कहा जाता है कि हिन्दी में पाठक नहीं। लेकिन फिर हिन्दी समाचारपत्रों के बढ़ते प्रचार और प्रभाव को देखकर यह कहना भी उचित नहीं। कोई कह सकता है कि समझदार और प्रबुद्ध पाठकवर्ग हिन्दी के क्षेत्र में उपलब्ध नहीं। ऐसा भी नहीं है अन्यथा अंग्रेजी में छपने वाली तमाम अच्छे से लेकर अध-कचरा साहित्य जिसे सिर-आंखों में बिठाकर बड़ी-बड़ी दुकानों से लाइन लगाकर खरीदा जाता है, अंग्रेजी के समाचारपत्रों में जिनकी चर्चा होती है, ऐसा बिल्कुल नहीं होता। ये सभी मूलतः हिन्दी का पाठकवर्ग है। उसे असल में अपने सुविधानुसार हिन्दी की पुस्तकें नहीं मिलती। पसंद की रचनाएं दुकानों में उपलब्ध नहीं। बाजार का गणित हिन्दी साहित्य में पूरी तरह नदारद है। यह तो कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं ही लेकिन इससे बड़ी बात है कि पाठक को उसके समझ की रचनाएं नहीं मिल रही। जो उससे जुड़ी हो। संस्कार और संस्कृति समय के साथ परिवर्तनशील है उसके सामाजिक सरोकार बदल जाते हैं। मगर हिन्दी में तत्कालीन समाज के संदर्भ नहीं उठाए जाते। वक्त की मांग नहीं समझी जाती। उलटा पाठकों पर लेखक अपनी बुद्धिमानी थोपता है। हमारे यहां लोकप्रिय साहित्य नहीं रचा जाता। हिन्दुस्तान के अंग्रेजी उपन्यासकार चेतन भगत से लेकर अमेरिका में बसे मूल रूप से भारतीय झुम्पा लहरी को खरीदकर पढ़ा जा सकता है। अंग्रेजी में सलमान रुश्दी और अरुधंतिराय ब्रांड के गूढ़ साहित्यकारों को छोड़ दीजिए, यहां तक कि अफगानिस्तान मूल के हुसैनी का ÷काइट रनर’ उपन्यास भी खूब बिकता है। तो हिन्दी क्यों नहीं बिक सकती। असल में मुश्किल इस बात की है कि हमारे यहां इस तरह के लेखकों का अकाल है। जो पैदा होता भी है उनको आगे बढ़ने नहीं दिया जाता। प्रोत्साहित पोषित व सुरक्षित नहीं किया जाता। ये हमारे लेखन के क्षेत्र में प्रवेश ही नहीं कर पाते। इसीलिए हिन्दी साहित्य जनता के बीच से बिल्कुल नदारद हैं। यहां तो ऐसा गूढ़ साहित्य रचा जाता है जो सामान्यजन को पसंद ही नहीं। साहित्य नाम ही उसे दिया जाता है जो पाठक को समझ न आये। हां, इन्हें पढ़कर लेखक जरूर एक-दूसरे की टांग खींच सकते हैं। या फिर प्रायोजित वाहवाही लूट सकते हैं। मगर फिर ऐसी परिस्थिति में पाठकों की संख्या सिमट कर रह जाती है। कहने वाले कह सकते हैं, हुसैनी के ÷काइट रनर’ में तो अफगानिस्तान के सामाजिक सरोकार दिखाई देते हैं मगर झुम्पा लहरी और चेतन भगत की रचनाओं में कोई विशेष सामाजिक संदर्भ नहीं उठता। फिर भी यह लोकप्रिय जनसामान्य की रचना होने के कारण खूब जानी और पढ़ी जाती है और इन पर फिल्म भी बनती है। इसके पीछे बाजार का सोचा-समझा तंत्र भी कार्य करता है। पहले लोगों में उत्सुकता पैदा करो, आकर्षण पैदा करो और फिर लोकप्रिय बनाकर पैसों का खेल खेलो। ठीक है, मगर फिर अंग्रेजी का एक विशाल पाठक वर्ग तो तैयार होता है जिसमें से कुछ प्रतिशत आगे गहरे साहित्य को पढ़ने के लिए बन जाता है।
हिन्दी में अगर हल्का साहित्य लिखा भी जा रहा है तो वो इतना हल्का है कि उसे पढ़कर ट्रेन-बस का यात्री धुएं में उड़ा देता है। घर ले जाकर ड्राइंग रूम में सजाने की जरूरत महसूस नहीं करता, उलटा उसे फाड़कर मूंगफली के छिलके फेंकने के लिए इस्तेमाल करता है। जासूसी, प्रेम त्रिकोण व हत्याओं को कहानी में गढ़ने वाले हमारे पास ऐसे लेखक हैं, जिनका नाम भी याद नहीं रखा जाता और जो दिनों के हिसाब से लिखते हैं और घंटों में पढ़ लिये जाते हैं। ये स्टेशन और बस स्टैंडों पर खूब बिकते हैं। हल्के व गूढ़ साहित्य, इन दो छोरों के बीच का पूरा क्षेत्र, जिसे लोकप्रिय साहित्य कहा जा सकता है, हिन्दी साहित्य में नदारद है। प्रेमचंद इसी वर्ग के थे। सामान्य पाठक से जुड़े हुए, मगर चिंतन से सराबोर। उनके लेखन में सरलता के साथ बहुत कुछ कह दिया जाता था। इसीलिए पढ़े और जाने जाते थे और जाने जा रहे हैं। हमने प्रेमचंद के रिक्त स्थान को आज तक नहीं भरा। इसीलिए वो आज तक पढ़े जाते हैं और हमारा वर्तमान अनुपस्थित है। हम इस तरह से कथा, कथावस्तु, कथन और हिन्दी साहित्य के तमाम अन्य शैक्षणिक पैमानों में तो आगे बढ़ गये लेकिन समाज की नब्ज को नहीं पकड़ पा रहे। अतः बहुत पीछे हैं और पिछड़ते जा रहे हैं। हमें प्रेमचंद के आगे निकलने की कोशिश करनी होगी, तभी जाने व पहचाने जायेंगे।