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पुराना साल गया और नया साल आया
पुराने के जाने और नये के आने के क्रम को मनुष्य ने सर्वप्रथम प्रकृति में ही देखा होगा। यह एक निरंतर प्रक्रिया है, स्वीकार किया होगा। मगर पुराने के जाने का गम और नये के आने का उत्साह व खुशी मानव मात्र की प्रवृत्ति प्रतीत होती है। यह प्राणियों का अमूमन नैसर्गिक स्वभाव नहीं। मानव के मानसिक विकास के साथ-साथ इस तरह की भावना भी बढ़ती गई। पुराने का मोह और नये की कौतूहलता। और वो बस कुछ नये करने की चाहत में सदैव सक्रिय रहा। और इसी कड़ी में उसने अपनी ओर से जोड़ दिया नये साल का आगमन। अन्यथा प्राकृतिक रूप से इसका कोई अस्तित्व नहीं। विश्व स्तर पर, सामाजिक रूप में जितनी खुशी, नियमित रूप से, नये साल को लेकर मनायी जाती है वो शायद किसी और दिन नहीं। मेरे लिये यह रात अन्य लोगों की तरह ही खाने-पीने नाचने गाने व खुशियां मनाने के लिए एक बहाना मात्र है। और मैं इसे परिवार के साथ दोस्तों के बीच में मनाता आया हूं। बहुत बचपन का तो विशेष याद नहीं। हां, शायद घर में अच्छा पकवान बनता था। लेकिन फिर इंजीनियरिंग कालेज के हॉस्टल में पहुंचकर यह विशेष दिन बन गया। खाना-पीना और डांस कुछ ज्यादा ही हो जाता था और नये साल का स्वागत अक्सर बेसुध स्थिति में ही किया जाता। यह कितना सही और गलत था उम्र के इस पड़ाव पर देखने का कोई मायने नहीं। आज का युवा वर्ग भी इससे अछूता नहीं। और उन्हें हर पल किसी न किसी रूप में, चाहे जो बहाना मिले, आनंद प्राप्त करना चाहिए। सुख भोगना चाहिए। सिर्फ ख्याल इतना रखा जाये कि आपकी मस्ती से किसी और की मस्ती में व्यवधान न पड़े। और आप शारीरिक, सामाजिक व मानसिक रूप से सुरक्षित रहें। त्योहार के अतिरिक्त यह कुछ एक ऐसे विशेष मौके होते हैं जब हर एक जानकार एक-दूसरे को शुभकामनाएं देना नहीं भूलता। अपने मित्र, वरिष्ठ साथियों, अधिकारियों व रिश्तेदारों को पत्र और कार्ड बड़े चाव से लिखा जाता। हर वर्ष यह एक विशिष्ट कार्य हुआ करता। जिसमें मैं और मेरा निजी सहायक दस-पन्द्रह दिन पहले से जुट जाया करते थे। इसी तरह मुझे भी ग्रीटिंग कार्ड प्राप्त होते जिनकी संख्या दस-बीस से प्रारंभ होकर सैकड़ों तक धीरे-धीरे बढ़ती गई। इस बढ़ोतरी को मेरी पदोन्नति से भी जोड़ा जा सकता है। नौकरी में मैं जैसे-जैसे ऊपर उठता गया इनकी संख्या बढ़ती गयी। यह क्रम पिछले कुछ वर्षों तक निरंतर जारी रहा। कुछ एक खास व्यक्ति मिलने तक भी आया करते और कुछ एक दूर होने पर भी दूरभाष से बात करना नहीं भूलते। इनमें व्यक्तिगत संवेदनाएं, रिश्तों व पारिवारिक संबंधों की पुष्टि होती। इसके पीछे कहीं-कहीं छिपी चमचागिरि को भी नहीं झुठलाया जा सकता। संबंधित कंपनियां गिफ्ट के नाम पर अच्छी से अच्छी डायरी और कैलेंडर देना नहीं भूलतीं। इनका मैंने शायद ही कभी उपयोग किया हो। कुछ दिनों बाद अंत में ये निजी सहायकों, घर में काम करने वाले दूसरे लोगों व जानने-पहचानने वालों के हाथों में जाया करतीं। कई बार तो बच्चों के स्कूल का रफ कार्य करने के लिए इन महंगी-महंगी डायरियों का जमकर दुरुपयोग होता।
इस वर्ष मुंबई कांड के कारण अधिकांश बड़े क्लबों ने किसी भी तरह के आयोजन से इंकार किया तो मुझे घर में बैठकर अकेले ही नववर्ष का स्वागत करना पड़ा। मुंबई का आतंकवाद हृदय विदारक था। इसने सभी को झकझोर दिया। इसका मतलब यह कदापि नहीं कि दूसरी आतंकवादी घटनाएं का दुःख कम था। मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इस बार अमीर एवं प्रभावशाली लोगों के कुछ अधिक मारे जाने से मीडिया में ज्यादा हो-हल्ला हुआ। और अधिक दिखाये जाने से इसने ज्यादा प्रभावित किया। फलस्वरूप अधिक प्रतिक्रिया हुई। कहीं-कहीं ज्यादा आंसू बहाने वालों के द्वारा प्रकट किया गया व्यवस्था का विरोध संतुलित नजर नहीं आया। बहरहाल, इस बार नये साल की पूर्व संध्या घर की चारदीवारी के भीतर बीती तो कुछ पल रुककर अधिक सोचने का मौका मिला। टीवी की हल्ला-गुल्ला और बेतुकी हरकतें पता नहीं क्यों अब प्रभावित नहीं करती। और जब अकेले में दिमाग के दरवाजे खुले तो देखा विगत कुछ वर्षों में हमारी सामाजिक व्यवस्था व संस्कृति में कई बदलाव आ चुके हैं।
इस वर्ष मुझे मोबाइल पर हजारों में एसएमएस प्राप्त हुए। एक दिन पूर्व से ही इनका आना प्रारभ हो चुका था, मानों भेजने वाले को जल्दी हो, बला टालना हो। अधिकांश की भाषा और शब्द एक समान थे। इनमें रिश्तेदारों, जिनकी संख्या आज के आधुनिक युग में न के बराबर हो चुकी है, पाठक, लेखक मित्र, संपादक, पब्लिशर के अतिरिक्त हमेशा की तरह बहुत बड़ी संख्या में पुराने और नये अधीनस्थ कर्मचारियों और अधिकारियों के नाम शामिल थे। इनमें से कइयों का नाम न लिखे होने के कारण यह जानना मुश्किल हो रहा था कि ये कहां से आये हैं। कई बार नाम होने के बावजूद परिचय नहीं दिये होने पर भी पहचानना मुश्किल हो रहा था। शिष्टता निभाते हुए प्रारंभ में मैंने भी संदेश पढ़कर फिर उत्तर में नये वर्ष की शुभकामनाएं भेजना शुरू किया लेकिन फिर जब मोबाइल पर उंगलियां जवाब देने लगीं तो अपने एक अधिकारी से सहयोग लेकर मोबाइल की कुछ विशिष्ट खूबियों का उपयोग करते हुए एक सुंदर-सी पंक्ति रिकार्ड की और आने वाली हर शुभकामनाओं के उत्तर में तुरंत बटन दबाकर अपना शुभ संदेश भेजता रहा। इस प्रक्रिया में अधिकांश के संदेश को पढ़ने का न तो मेरे पास वक्त था न ही इसकी संभावना, क्योंकि एक एसएमएस को अभी पढ़ ही रहा होता कि दूसरा पहुंच जाता था। अंत में तो मैं इसे बिना पढ़े तुरंत उत्तर देकर डिलीट करने लग पड़ा था अन्यथा मोबाइल के स्टोर करने की क्षमता समाप्त होने की संभावना हो जाती। दूसरी ओर, पिछले कुछ वर्षों में ग्रीटिंग कार्ड की संख्या तीव्र गति से घटी और यह इस वर्ष न के बराबर पहुंच चुकी। जबकि मेरा संपर्क सूत्र व प्रभाव क्षेत्र काफी विस्तार ले चुका है। यह रंग-बिरंगे कार्ड मुझे आकर्षित करते थे। इन पर हाथ से लिखी पंक्तियां भेजने वालों को पढ़ने वाले से जोड़ती। इसे कई दिनों तक संभाल कर रखा जाता, घर में सजाया जाता और बार-बार पढ़ा जाता। इस बीच इंटरनेट पर ईमेल का चलन भी बढ़ा पर इसमें भी पता नहीं क्यूं मशीन की छाया दिखाई पड़ती। भेजने वाले की भागीदारी न के बराबर महसूस होती। चिट्ठियों की जगह लिये कार्डों में भी कम से कम हस्ताक्षर से किसी के होने का अहसास अवश्य होता था। टेलीफोन पर बातचीत करने पर तो पूरा अपनापन मिलता। मगर इस वर्ष टेलीफोन भी बहुत कम आये। बात करने की फुर्सत नहीं तो व्यक्तिगत मिलने वालों की संख्या को तो नगण्य होना ही था।
उपरोक्त परिस्थिति को क्या समझा जाये। वास्तविकता में हमारे जीवन में मशीन का रोल बहुत बड़ चुका है। आदमी नदारद है। लोगों के पास बात करने के लिए वक्त नहीं। लिखने की एकाग्रता नहीं। शब्द हैं मगर कलम नहीं। दिमाग है दिल नहीं। पैसा है मगर खर्च करने की तमीज नहीं। व्यवहार निभाना है इसलिए एसएमएस का चलन प्रारंभ हो गया। कुछ वर्षों में ही ग्रीटिंग कार्ड्स लैटरों की भांति मार्केट से पूरी तरह गायब हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। जब लैटरों का स्थान ग्रीटिंग कार्ड्स ने लिया था तो भी इस बात की चर्चा हुई थी कि जो मजा हाथ से लिखे पत्र में है, जिसमें पढ़ने वाले को लिखने वाली की संवेदना का अहसास होता है और वह उससे एक संबंध कायम करता है, वह ग्रीटिंग कार्ड में कहीं छूटा और टूटा हुआ नजर आता है। यह भावना एसएमएस में पूरी तरह से डिलीट मोड की तरह लुप्त हो चुकी है। यह एक औपचारिकता मात्र रह गई है। तो क्या मान लिया जाये कि यह मानवीय संवेदनाओं का अंत है? बिलकुल नहीं। संवेदनाएं तो आज भी उतनी ही तीव्र और हरेक हृदय में स्पंदित होती है। बस उसे बाजार की शक्तियों ने दबा दिया है। हर एक दूसरे के इंतजार में रहता है स्वयं निकल नहीं पाता। पहल नहीं कर पाता। आत्मकेंद्रित हो चुका है। बाहर निकलने वाले तमाम रास्ते बंद कर दिये और अपने आपको अपनी ही सीमाओं में बंद कर लिया है। अधिक धन के चक्कर में दौड़ते-दौड़ते जीवन पीछे छूट रहा है। जिसे किसी तरह साथ ढोने की कोशिश में, कम शब्दों में अपने होने का प्रमाण मोबाइल के माध्यम से हवा में फेंक दिया जाता है। एक साथ दसियों को। मोबाइल पर ग्रुप बनाकर। बड़े-छोटे, चाचा-भतीजे सब एक ही तरह से निपटा दिए जाते हैं। दोस्त और प्रेमी-प्रेमिका में अंतर समाप्त हो गया। ऐसा करने पर आनंद की प्राप्ति तो नहीं हो सकती। हां, कुछ पल की मस्ती के लिए होटलों में पैकेज जरूर ढूंढ़ा जा सकता है। जिसके पीछे होती है शराब की बोतले और तेज संगीत। सामने वाले के साथ महफिल बनाकर बात नहीं किया जाता सिर्फ नृत्य करता शरीर देखा जाता है। शरीर के लिए सब कुछ किया जाता है, आत्मा तो मानो मार ही डाली गयी हो। मगर फिर नशा के उतरते ही फिर वही खालीपन। आदमी पाता है कि नये साल के प्रथम दिन में कुछ भी विशेष नहीं। पूर्व में मैं कई दिनों तक पत्रों और दोस्तों के आवागमन को महसूस कर प्रफुल्लित और आनंदित होता रहता था। मगर इस बार एसएमएस के डिलीट होने के साथ ही सब खत्म था।