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ग़रीब बस्ती में जाने का अनुभव
समाज की तरह हिन्दुस्तान में हर शहर के दो चेहरे होते हैं। एक तरफ सुविधा संपन्न साफ-सुथरी नयी-नयी कालोनियां तो दूसरी ओर गंदी और तंग बस्तियां। वैसे तो इनके बीच आपस में एक विशेष प्रकार का संपर्क सूत्र बना रहता है, फिर भी इनमें रहने वाले साथ-साथ रहते हुए भी दूर होते हैं। बड़े और रईस लोगों का ग़रीब की बस्तियों में जाना अमूमन न के बराबर होता है। और अगर कभी गये भी तो धर्म के नाम पर पुण्य कमाने या फिर समाज के तथाकथित कर्तव्य निर्वाहन के उद्देश्य से स्वयं की आत्मसंतुष्टि के लिए। वोटों की खातिर पहुंचे हुए नेताओं की यहां बात करना जरूरी नहीं है। यह अपने आप में चर्चा का एक वृहद् विषय है। आमतौर पर बाहर से आने वाले लोगों को वो नजारा देखने को नहीं मिल पाता जो इन गलियों में अपने समय से पिछड़ती और संघर्ष कर हर पल सिसकती-घिसटती जीवन की वास्तविक कहानी कह सके। आने वाले मेहमान के लिए, अगर वो इन्हीं की तरह का इंसान नहीं है तो घर को साफ-सुथरा किया जाता है, और अगर कोई सार्वजनिक कार्यक्रम करना हो तो सड़क के पास आसानी से पहुंचने वाले सबसे उत्तम स्थल को ही चुना जाता है। इस सबके पीछे कहीं भी अपनी ग़रीबी छुपाने का उद्देश्य कदापि नहीं होता, बल्कि मेहमान का स्वागत और अपनी बेहतर प्रस्तुति मुख्य वजह होती है। पूरी तरह से समर्पित, इनके बीच में इनके लिए इनकी तरह रहकर काम करने वाले विरले ही होते हैं। और जो होंगे भी वे चर्चा में नहीं आ पाते। दूसरी ओर, ग़रीब लोगों का रईसों की बस्ती में आना-जाना लगा रहता है। यह दोनों वर्ग के लिए जरूरी है। रईसों के घर-दफ्तर में काम करना, उनकी दैनिक रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करना, अर्थात नौकरी से लेकर भीख मांगने तक के लिए उन्हें इन्हीं के क्षेत्रों में आना पड़ता है। चपरासी, चौकीदार, ड्राइवर, सफाईवाला के बिना रईस की रईसी कहां संभव है। अपने हाथ से काम करना, रईसों की शान के वैसे भी खिलाफ होता है। मध्यमवर्ग जिसकी जनसंख्या का विस्तार बड़ी तीव्रता से हो रहा है, और जो दोनों वर्गों के बीच अपनी पहचान स्थापित करने के लिए सदा प्रयासरत रहता है, को यहां छोड़ दिया जाना चाहिए। वो वैसे भी संपन्न वर्ग के नजदीक, उनकी तरह बनकर रहने की फिराक में दिन-रात एक किये रहता है और कहीं-कहीं थोड़ा ग़रीबों का उपभोग व उपयोग भी कर लेता है। दूसरे दर्जे का रईस बने रहने में भी उसकी आत्मसंतुष्टि है। और इस तरह से उसकी झूठी शान बरकरार रहती है। समाज के इस पूरे दैनिक घटनाक्रम को ग़रीब की मजबूरी व अमीर की जरूरत के रूप में देखा जा सकता है। पहली बार में तो प्रतीत होता है कि ग़रीबों का अमीर की बस्ती में जाये बिना गुजारा नहीं मगर ध्यान से देखें तो अमीरों को इनकी ज्यादा जरूरत होती है।
चंडीगढ़ शहर हिन्दुस्तान के खूबसूरत व विकसित शहरों में से एक है। कुछ-कुछ पश्चिमी मुख्य शहरों के समान व्यवस्थित व साफ-सुथरा। यहां की एक ग़रीब बस्ती बापूधाम कालोनी में विशेष रूप से जाने का अवसर मिला। कार्यक्रम था किसी कार्पोरेट कंपनी के द्वारा शारीरिक रूप से अपंग व सामाजिक रूप से कमजोर को स्व-रोजगार के लिए आर्थिक व तकनीकी सहायता प्रदान करना। मूल उद्देश्य कहना तो यहां उचित न होगा फिर भी सामाजिक दायित्व का निर्वाहन व पिछड़ों के उत्थान में पूंजीवाद की सक्रिय भूमिका अदा करना दिखाया जा रहा था। एक धार्मिक स्थल को चुना गया था। यहां लोगों को इकट्ठा करना सबसे आसान होता है। इनके पास जगह भी होती है। एक एनजीओ को भी बीच में रखा गया था। ये सबसे सुलभ माध्यम है। मुझे क्यों बुलाया गया इस बात पर मुझे कोई गलतफहमी नहीं थी। यकीनन एक सरकारी अधिकारी होना वजह थी अन्यथा लेखकों को हिन्दुस्तान में कोई नहीं बुलाता। छह जरूरतमंद व अपाहिज लोगों को चुना गया था। यह जन्म से शारीरिक रूप से अधूरे थे। इन्हें आत्मनिर्भर बनाना था। एक अवसर प्रदान करना था।
चंडीगढ़ शहर में इस तरह की कालोनी में जाने का यह मेरा प्रथम अनुभव था। यह मेरे लिये कई मामले में नया व आश्चर्यचकित करने वाला था। इसने मुझे सही दृष्टि दी। सत्य की जानकारी दी। ऐसे दृश्य दिये जो लेखन में मदद करेंगे। एक आधुनिक विकसित शहर में कोई क्षेत्र इतना पिछड़ा भी हो सकता है, वो भी टूटा-फूटा और अव्यवस्थित भीड़भाड़ वाला, यकीन करना मुश्किल था। वो भी तब जब हमें मुख्यमार्ग से कारपेट बिछाये गए कच्चे रास्ते पर बीस कदम ही अंदर जाना था। देखकर दुःख हुआ था। एक ही समाज में दो वर्गों के बीच इतना फासला, समाजशास्त्र, राजनीति व अर्थव्यवस्था के लिए चेतावनी है। कार्यक्रम के आसपास बने छोटे-छोटे मकानों में अच्छी भीड़भाड़ और लोगों के चेहरों पर कौतूहलता थी। सीढ़ियां व घर के द्वार संकरे तथा दीवारें व छतें कमजोर दिखाई पड़ रही थी। जमा हुए बच्चों ने कुछ बेहतरीन कविताएं गा कर सुनाईं। यह उसका मतलब कितना समझ पा रहे थे, मेरे लिये समझना मुश्किल था। इस तरह के स्थानों पर आमतौर पर धर्म के माध्यम से अधिक कार्य किये जाते हैं। वैसे तो यह कुछ-कुछ धर्म के अपने हित साधन के लिए ही होता है। मगर भोली-भाली जनता तक पहुंचने के लिए इससे बेहतर कोई और जरिया भी नहीं। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मनुष्य पेट के बाद धर्म की भाषा ही समझ पाता है। सेवा-भाव से आने वालों के लिए धर्म के अलावा किसी गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) की सेवाएं लेना भी अपने आप में एक वाद-विवाद का विषय रहा है। ये संस्थाएं जरूरतमंद की आकांक्षाओं व अपेक्षाओं में कितनी खरी उतर पाती हैं, जानना व समझना मुश्किल है। मगर ये अपने लक्ष्य की प्राप्ति व मानसिक संतुष्टि की तरफ से पूरी तरह आश्वस्त रहती हैं। वैसे भी इनके नेतृत्व के उद्देश्य में खोट हो सकती है लेकिन पूरी तरह से समर्पित कुछ कार्यकर्ता यहां भी मिल जाएंगे, जो नैसर्गिक रूप से दूसरे की सहायता करने के उद्देश्य से ही पैदा हुए प्रतीत होते हैं।
इस तरह के सामाजिक कार्यक्रम से सचमुच के जरूरतमंद तक सहायता पहुंच पाती या नहीं, बहुत बड़ा सवाल है। व्यवस्था जनित जटिलताएं बहुत हैं। मनुष्य अपनी नीयत को हर जगह साफ नहीं रख पाता। सभी छह लाभार्थी से मैंने संक्षिप्त मगर सारगर्भित चर्चा की। यह मेरे लिए अधिक उपयोगी थी। शायद यहां मैं भी स्वार्थी निकला। चूंकि इस कार्यक्रम के लिए हां करने के पीछे ऐसे ही कुछ कारण बन रहे थे। असल में कुछ लिखने से पूर्व इन लोगों को समझना व जानना चाहता था। ये मेरी आंख खोलते हुए जीवन के अनुभव के साथ-साथ मेरी कथा-कहानी के पात्र भी बन रहे थे। मन में कहीं न कहीं मोह था कि अब मैं दुनिया को सही चित्र दिखा सकूंगा। यहां सवाल यह भी उठाया जाना चाहिए कि इन ग़रीब बस्तियों में जाकर लेखन की सामग्री व स्टोरी जुटाने के पीछे एक लेखक व पत्रकार का उद्देश्य क्या होता है? इनकी परेशानियों को कम करने का प्रयास या इनके माध्यम से अपना नाम दुनिया तक पहुंचाने का लाभ? मेरे मतानुसार लेखक व पत्रकार इस मामले में भी अपनी महत्वकांक्षाओं का कहीं न कहीं पोषण करते दिखाई पड़ते हैं। बहरहाल, छह के छह लोगों से बात करने पर मैं यह जान पाया कि इनमें से अधिकांश परिवार नियोजन के बारे में सचेत नहीं हैं और यह उनके विकास के विरोध में जाता है। ग़रीबी के साथ रोजगार न होने पर भी परिवार बढ़ाना अर्थात दोहरी मार। इस पर राजनीति और वोट बैंक की नजर न हो तो इसे छिपाया नहीं जाना चाहिए कि कुछ एक धर्म विशेष इस मुद्दे पर भ्रमित दिखाई दिये। इन सभी से बातचीत में ऐसा भी महसूस हुआ कि यहां भी कुछ एक जरूरतमंद अपने संपर्क सूत्र व चपलता के द्वारा एक से अधिक बार सहायता ले जाते हैं। जबकि कुछ लोगों तक सहायता पहुंच भी नहीं पाती। यहां भी भाग्य व चालाकी अपना काम कर जाती है। दबे स्वर में ही सही मगर कइयों का ऐसा मत रहा है कि कुछ मानसिक रूप से कमजोर और विकलांग कई बार अतिरिक्त सहानुभूति का फायदा भी ले जाते हैं, लेकिन फिर भी ये किसी भीख मांगने वाले भले-चंगे हृष्ट-पुष्ट नवयुवक-नवयुवतियों से कहीं बेहतर हैं। चोर-उचक्कों को इन्हें देखकर शर्म आनी चाहिए। उनके लिए ये चुनौती है। कहीं-कहीं तो ये आम आदमी को भी प्रोत्साहित कर जाते हैं। और हमें संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते हैं।
कार्यक्रम के अंत में मुझसे भी कुछ कहने के लिए कहा गया। मुझे इनसे वोट नहीं चाहिए इसलिए मेरा अधिक बोलने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। सवाल तो यह भी उठता है कि क्या अधिक बोलने से इन लोगों के वोट मिल सकते हैं? शायद नहीं। नेताओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए। मैं इन्हें प्रभावित भी नहीं करना चाहता था और इसीलिए अपने वाक्-चातुर्य के प्रदर्शन का भी सवाल नहीं था। इन्हें बहुत ज्यादा ज्ञान देने की आवश्यकता भी नहीं, चूंकि इन्हें फिलहाल दो वक्त की रोटी और ठंड से बचने व तन ढकने के लिए कपड़ों की अधिक आवश्यकता है। हां, इन्हें इनके सपनों के बारे में जरूर कहा जा सकता है कि ईश्वर इनकी सभी मनोकामनाएं पूरी करें। ऐसा मेरा कहना उनके द्वारा प्रेमपूर्वक ताली बजाने के लिए काफी था। जिसके लिए कम से कम मैंने कोई जोड़तोड़ नहीं कर रखी थी। वैसे अधिक सपने दिखाने में भी अच्छाई नहीं, ऐसा मेरा मानना है। यह अंत में तकलीफ ही देता है। इसीलिए आखिर में, आप सभी सुख-शांति के साथ स्वस्थ रहें, ऐसी इच्छा प्रकट की थी। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ, जब हाथ जोड़कर मैंने इनके बीच में से विदाई ली तो वे सभी आश्चर्यचकित थे। और पूरे जोश के साथ ताली बजा रहे थे। शायद उन्हें लंबे-लंबे भाषणों की आदत पड़ी हुई थी जिससे वे उकता चुके हैं।