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इन धरोहर की देखभाल करनी होगी

कालका-शिमला ट्वाय ट्रेन के दुर्घटनाग्रस्त होने के खबर ने मुझे विचलित किया था। इस रेल लाइन के बगल में रहते हुए मैंने अपने जीवन के बेहतरीन तीन वर्ष गुजारे हैं। इस खिलौने को रोज सुबह-शाम दौड़ते हुए पहाड़ों पर चढ़ते-उतरते देखा है। हिमालय की गोद में इसका उछल-कूद मचाना किसी मनमोहक दृश्य से कम नहीं। यह रोमांचकारी भी है। यह कुछ एक उन बेहतरीन तोहफों में शामिल है जो अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को दिये।

मनुष्य ने एक तरफ जहां प्रकृति की सत्ता के सामने सदा सिर झुकाया है, वहीं उसकी चुनौतियों को स्वीकार भी किया है। आदिकाल से ही उसने संघर्ष किया। निरंतर। अस्तित्व के लिए। सुविधाओं के लिए। असफलताएं उसे रोक नहीं पायी। यह उसकी फितरत है। नियति है। इतिहास उसके कारनामों से भरा पड़ा है। उसी में से कुछ एक ऐसी भी हैं जिन्हें देखकर दांतों तले उंगली दब जाती है। यकीन ही नहीं होता। पुरानी बड़ी-बड़ी इमारतों, विशालकाय किलों व ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों को देखकर यह समझ नहीं आता कि इतने बड़े-बड़े भारी पत्थरों को निर्माण के दौरान ऊपर तक कैसे ले जाया गया होगा? और फिर उन्हें आपस में किस तरह जोड़ा गया होगा? उस युग की भवनविद्या के संदर्भ में सोचते ही सोचने की शक्ति समाप्त होने लगती है। प्रथम दृष्टि में अविश्वसनीय लगता है, अद्भुत भी। कई ऐतिहासिक स्थानों पर पहाड़ों को काट-काट कर सुंदर कलाकृतियां व चित्र उकेरे गए। छोटे-छोटे जहाजों द्वारा तूफानों से टकरा कर समुद्र को लांघा गया। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जो विसम्यकारी हैं। मनुष्य के अदम्य साहस का परिचय देते हैं। उसकी बुद्धिमानी के सबूत हैं। इस मामले में मुझे अंग्रेजों ने अधिक प्रभावित किया है। इन्होंने अपने घर में ही नहीं दूसरे गुलाम देशों में भी कई महान कार्य किये। और तो और मुगलों की तरह केवल धार्मिक स्थल व राजाओं की व्यक्तिगत चाहतों का ही निर्माण नहीं किया बल्कि आमजन के प्रयोग में आने वाले साधनों का विकास भी किया। इसमें कोई शक नहीं कि इस कार्य के मूल में उनकी अपनी सहूलियत व बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था करना उद्देश्य रहा होगा लेकिन जनता को पूरी तरह से नजरअंदाज किया हो, कहना उचित न होगा। जहां भी गये जहां भी रहे और जिस देश पर भी शासन किया उस क्षेत्र का, जाने-अनजाने ही सही, सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, व्यापारिक व राजनीतिक विकास कर दिया। दिल्ली के राष्ट्रपति भवन से लेकर कोलकाता के हावड़ा ब्रिज तक ऐसे कई और उदाहरण दिख जाएंगे जिनके बिना हिन्दुस्तान के विकासक्रम की कहानी न केवल अधूरी रह जायेगी बल्कि यह उसके नींव के पत्थर को हटाने के समान होगा। यह हमारे केंद्र में है। यह प्राचीन भारत व आधुनिक हिन्दुस्तान की एक मजबूत कड़ी है।

कालका-शिमला रेल लाइन अंग्रेजों की भारत को अहम देन है। वर्तमान में चार हेरिटेज- दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे, नीलगिरि माउंटेन रेलवे व छत्रपति शिवाजी टर्मिनल मुंबई स्टेशन के अतिरिक्त यह चौथी वर्ल्ड हेरिटेज साइट है। प्रथम एंग्लो-गोरखा युद्ध के बाद उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजों द्वारा शिमला को बसाना प्रारंभ हुआ। 1830 तक आते-आते यह उत्तर भारत का मुख्य केंद्र बन चुका था। 1864 में शिमला अंग्रेजों की ग्रीष्म ऋतु की राजधानी बना दी गई। आज यहां कंक्रीट का घना जंगल बन जाने के बावजूद भी इसे देखकर मन को शांति प्राप्त होती है और यह अपने सौंदर्य से पर्यटक को लुभाता है। यहां के माल रोड में आज भी एक विशिष्ट आकर्षण है। यौवनता है। यहां घूमने पर एक रोमांटिक अहसास, जो शायद और कहीं न मिल सके, गुदगुदाता है। इसे देखकर बड़ी सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है कि तकरीबन सौ वर्ष पूर्व यह कितना रमणीय तथा प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा होगा। यहां तक पहुंचने के लिए पहले खच्चरों, कुलियों व विलेज कार्ट का उपयोग किया जाता था। धीरे-धीरे सड़कों का विकास हुआ। यह एक मुश्किल दौर था। फिर भी कभी अंग्रेजों का इस क्षेत्र से मोहभंग नहीं हुआ। इसके पीछे ठंडे प्रदेश की उनकी चाहत व जरूरत को माना जा सकता है। उस दौर की कड़ी मेहनत का ही प्रतिफल है कि आज भी यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कालका-शिमला सड़क हिन्दुस्तान की कई सड़कों से बेहतर और चौड़ी है। और इसकी यह स्थिति पिछले कई दशकों से निरंतर बनी हुई है। अंग्रेज प्रारंभ से ही रेल यातायात पर बराबरी से विश्वास करते थे। और इसीलिए उन्होंने बड़े पैमाने पर अपने शासनकाल के दौरान रेल लाइन का जाल बिछाया। आजादी के पूर्व हिन्दुस्तान में आज की वर्तमान रेल लाइन का अधिकांश मुख्य मार्ग बिछा दिया गया था। रास्ते में आने वाले कई पहाड़ों में से सुरंग बनाई गई तो कई नदियों को पार किया गया। ऐसे कई बेहतरीन पुल व सुरंग हिन्दुस्तान में आज भी देखे जा सकते हैं। यह विज्ञान और मनुष्य का संयुक्त प्रयास और मजदूरों के खून-पसीने के परिणाम हैं, आगे बढ़ते हुए मानव के पदचिह्‌न जो सालों साल यूं ही हमें हमारे विकासक्रम की कहानी को याद दिलाते रहेंगे।

यकीनन पहाड़ पर रेल लाइन बिछाना अपने आप में, उस युग के संदर्भ में देखें तो एक कठिन कार्य था। हिमालय की उंचाइयों को नापना आज भी आसान नहीं। कालका-शिमला लाइन रेल इंजीनियरिंग का बेमिसाल उदाहरण है। भारतीय रेल का स्वर्णिम इतिहास। इसको भुलाया नहीं जा सकता। इसकी मुश्किलों का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली-अम्बाला कालका रेलवे कंपनी द्वारा जब 1898 से 1903 के बीच इस कार्य को पूरा किया गया तो अनुमान से दोगुनी राशि खर्च हुई। विशेष परिस्थितियों, मूल लागत व रखरखाव में होने वाले अतिरिक्त खर्च के कारण यहां किराया अधिक रखा गया मगर इस के बावजूद घाटा कम नहीं हुआ और अंत में अंग्रेज सरकार को इसे 1906 में खरीदना पड़ा। तब से लेकर आज तक, इन सौ वर्षों में, यह छोटी लाइन आज भी सुचारु रूप से निरंतर दौड़ रही है। दो फुट छह इंच चौड़ी नेरोगेज की यह रेल लाइन 96 किलोमीटर में 102 सुरंग (कुल 103 जिसमें बीच की एक सुरंग प्रयोग में नहीं आती) और छोटे-बड़े 864 ब्रिजों को पार करती हुई शिवालिक पहाड़ के फुटहिल कालका जिसकी ऊंचाई मात्र 2152 फुट है, से लेकर शिमला 7116 फुट की ऊंचाई पर चढ़ जाती है। रास्ते में देवदार, पाइन व ओक के जंगल पर्यटकों को प्रकृति के बीच ले जाते हैं। बीच में पड़ने वाले अधिकांश स्टेशन आज भी अपने मूल रूप को बचाये रखते हुए आधुनिक विकास व परिवर्तन की आंधी को ठुकराते हुए यथास्थिति बनाये हुए हैं। इन्हे देखते ही कोई भी समय के पैमाने पर पीछे जा सकता है। ब्रिटिश काल में पहुंच सकता है। इस रेल लाइन के साथ कई कहानियां जुड़ी हुई हैं। जिसे पढ़कर हैरानी होती है। यह देखकर प्रोत्साहन मिलता है कि अपने कार्य के प्रति लोग कितने समर्पित हुआ करते थे। इन्हीं में से एक सुरंग से संबंधित घटना लोगों में आम चर्चा का विषय है। 1143 मीटर लंबी बड़ोग सुरंग इस रूट की सबसे लंबी सुरंग है। कहा जाता है कि इसको बनाते समय, छोटी-सी गलती के कारण, सुरंग का दोनों छोर (मुहाना) एक दूसरे से नहीं मिल पाया और ब्रिटिश कंपनी के इंजीनियर इंचार्ज बड़ोग ने आत्महत्या कर ली। उन्हीं के नाम पर पास स्थित रेलवे स्टेशन का नामकरण हुआ। और फिर बाद में भलखू नाम के हिमाचली स्थानीय व्यक्ति के मदद से इसे पूरा किया गया। भलखू के बारे में कहा जाता है कि वे चमत्कारी साधु व प्राकृतिक रूप से इंजीनियर व ज्ञानी थे।

जुलाई, 2008 में इस रेल लाइन को विश्व धरोहर घोषित किया गया। बड़े सारे कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। कई योजनाएं बनाई गयी। इस रेल लाइन के महत्वपूर्ण स्टेशन बड़ोग के पास ही मैं करीब तीन साल रह चुका हूं। यह स्थान आज भी प्रकृति से भरपूर है। यहां रोज सुबह ट्रैकिंग करना इतिहास में प्रवेश करने के समान होता था। यहां पहुंचकर लगता ही नहीं कि हम 21वीं शताब्दी में रह रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक बार फिर ब्रिटिश काल में पहुंच गए। जहां अंग्रेजों के अत्याचार नहीं उनकी खूबियां याद आती है। कल्पना करने पर अच्छा लगता है। उस युग की कई चीजों को संभालकर रखा गया है तो कई उपकरण आज भी उपयोग में आते हैं। इस यथास्थिति को अगर बनाये रखना है तो सिर्फ सरकारी कार्यक्रमों से बात नहीं बनेगी, पैसेंजरों व आम नागरिकों को भी इस पर उतना ही ध्यान देना होगा।