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पुरी धाम की यात्रा
प्राचीन धर्म प्रकृति के अधिक नजदीक हुआ करते थे। मनुष्य ने अपने विकास के साथ प्रकृति से दूरी बनाई। इसे वर्तमान की धार्मिक अवस्थाओं व व्यवस्थाओं में आसानी से देखा जा सकता है। अब प्रकृति प्रतीक एवं संकेतों में आने लगी है। हिन्दू धर्म, जो अमूमन जीवन जीने की एक पद्धति मात्र है, में प्रकृति आज भी कई तरह से कई रूप में कहीं न कहीं विद्यमान है। कई बार ऐसा महसूस होता है कि हमारे पूर्वज अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के साथ-साथ समझदार और सामाजिक प्रबंधन की क्षमता में अव्वल थे। धर्म के माध्यम से उन्होंने मनुष्य की प्राकृतिक कमजोरियों को नियंत्रित व नियमित किया और उसकी नैसर्गिक जरूरतों को समझते हुए उसे अच्छे कार्य में प्रेरित किया। धार्मिक कथाओं के माध्यम से समझाया गया अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से ज्ञान बांटे गए। सामाजिक जीवन, गृहस्थ, मानवीय संबंध, परिवार, आपसी तालमेल सबके लिए कोई न कोई दिशा-निर्देशन और उससे संदर्भित व संबंधित पौराणिक गाथाएं गढ़ी गईं। प्रकृति के नजदीक ले जाने के लिए रोजमर्रा के जीवनयापन के अलावा पूजा पद्धति में प्रकृति का भरपूर उपयोग किया गया। यही नहीं, इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए धार्मिक पूजास्थल दुर्गम स्थानों पर, पहाड़ की चोटियों, समुद्र किनारे व बीहड़ वन में स्थापित किये गए। इसके पीछे और भी कारण हो सकते हैं, एक, ईश्वर कठिन तपस्या के बाद ही प्राप्त होने चाहिए और दुर्गम स्थलों तक पहुंचना भक्त की अग्नि परीक्षा है। दो, भक्तजन खूबसूरत प्राकृतिक स्थलों को इसी बहाने देख सकेंगे। यही कारण है जो तकरीबन हर एक सुंदर स्थान पर कोई न कोई प्राचीन मंदिर अवश्य मिल जाता है। शायद तभी चार हिन्दू धामों को चार दिशाओं में स्थापित किया गया होगा। द्वारका, पुरी, बद्रीनाथ, रामेश्वरम इनकी यात्रा करने पर पूरे भारतवर्ष का भ्रमण हो जाता है।
विगत दिवस ओड़ीसा में स्थित जगन्नाथपुरी जाने का अवसर प्राप्त हुआ। ओड़ीसा प्राकृतिक रूप से समृद्ध व सुंदर राज्य है। झील, नदी, जंगल, पहाड़, समुद्र, प्रकृति हर रूप में यहां उपस्थित है। लेकिन इसे ईश्वर की माया ही कहेंगे जो यह क्षेत्र प्रकृति के प्रकोप से हमेशा त्रस्त रहा। बाढ़, चक्रवात, तूफान, सूखा तकरीबन हर साल तबाही मचाने के लिए क्रमवार आते रहे। विकास हो ही पाता कि विनाश के पदचाप सुनाई पड़ने लगते हैं। शायद यही कारण है जो भुवनेश्वर एयरपोर्ट उतरने के साथ ही पुरी पहुंचने तक के रास्ते में इस बात का अहसास हो जाता है कि हम किसी गरीब प्रदेश में पहुंच चुके हैं। यह क्षेत्र आधुनिक रूप में पिछड़ा सही मगर यहां की सभ्यता और इतिहास अत्यंत पुराना और समृद्ध है। अशोक सम्राट को ज्ञान की प्राप्ति यहीं हुई थी। कलिंगा युद्ध का स्थान बीच रास्ते में पड़ने पर अधिकांश ड्राइवर उस युद्ध का वर्णन करते हुए यह बतलाना नहीं भूलते कि यहां की नदी में खून ही खून भर चुका था। आज वहां शांति का प्रतीक एक बौद्ध मंदिर स्थापित किया गया है। पिछले कुछ दिनों में ओड़ीसा एक बार फिर सुर्खियों में था। क्या गलत क्या सही, कुछ शब्दों में कुछ भी लिख देना ठीक नहीं होगा। मगर इतना जरूर है कि बाहर बैठा मीडिया चाहे जो कहे लेकिन स्थानीय आम लोगों, खासकर ड्राइवरों और ढाबों-होटलों के कर्मचारियों से बातचीत करें तो यह पता चलता है कि नवीन पटनायक सामान्य जनता के बीच में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे ईमानदार हैं और राज्य की उन्नति के लिए धीरे-धीरे ही सही मगर निरंतर प्रयास में जुटे हुए हैं।
पुरी मंदिर को देखते ही इस बात का अहसास हो जाता है कि यह अत्यंत प्राचीन होगा। एक पूरी की पूरी सभ्यता इस मंदिर के प्रांगण में आज भी दिखाई देती है। एक विशिष्ट संस्कृति महसूस की जा सकती है। जो सालों साल में यहां पनपी विकसित हुई और पूरी दुनिया में जिसका प्रचार-प्रसार हुआ। यह अपने आप में विशिष्ट और भिन्न है। इतिहास ने यहां लंबी पारी खेल रखी है। पौराणिक गाथाएं व धार्मिक आस्थाएं इतने बड़े पैमाने पर इस स्थान से जुड़ी हुई हैं कि चर्चा करना इस छोटे से लेख में संभव नहीं। एक विशेष बात जो मुझे दिखाई दी वो है तीनों भगवान जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा की मूर्तियों का एक अलग रूप। मैं पूर्णतः आस्तिक हूं और संयोगवश कई धार्मिक प्रमुख स्थलों के दर्शन कर चुका हूं, इसके बावजूद कम से कम मैंने भगवान के इस विशिष्ट रूप के कहीं और दर्शन नहीं किये। यह यकीनन ग्रेनाइट पत्थर या संगमरमर को तराश कर नहीं बनाई गई है। बहुत दूर से दर्शन करने पर सही-सही अंदाज लगाना तो मुमकिन नहीं लेकिन अगर स्थानीय लोगों की बातों पर यकीन करें तो यह विशिष्ट मिट्टी एवं पवित्र लकड़ियों के सहयोग से बारह वर्ष के अंतराल में नियमित रूप से बनाकर गर्भगृह में प्राण-प्रतिष्ठा कर स्थापित की जाती हैं। यहां आने पर एक बात पुनः सामने आई, जिसका कारण मैं आजतक समझ नहीं पाया कि इन धार्मिक स्थलों में मिलने वाला प्रसाद स्वादिष्ट क्यों होता है। सुगंधित व विशेष स्वाद वाले पुरी के प्रसाद को कई बार मांग कर खाने में भी मैं नहीं शर्माया। स्वर्ग के द्वार कहलाये जाने वाले इस धाम पर न जाने कितने लोग मरने से पूर्व पहुंच पाते हैं। यह एक आस्था का विषय है जिस पर तर्क और ज्ञान की बातें करना मूर्खता होगी। न ही दर्शन करवाने के लिए तैयार सैकड़ों पंडों के बारे में कुछ भी लिखने का कोई औचित्य है। यह हमारे समाज का एक अंग है। सावधानीपूर्वक इसे सहर्ष स्वीकार कीजिए। हां, मंदिर के सामने स्थित इतनी चौड़ी सड़क, मैंने विश्व में कहीं और नहीं देखी, तभी तो पुरी की रथयात्रा में लाखों लोग जुट पाते हैं। जब कुछ दिनों के लिए जगन्नाथ जी व उनके भाई बलराम तथा बहन सुभद्रा को रथ के द्वारा मंदिर से विदा कर उन्हें उनके दूसरे घर में पहुंचाया जाता है। यह प्राचीन परंपरा आज भी निरंतर जारी है।
लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोणार्क मंदिर ने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया था। मुख्य मंदिर की मुख्य इमारत तो पहले ही गिर चुकी है। बचे हुए अवशेष, विशेष रूप से मुखशाला व नट मंदिर उसकी भव्यता को बतलाने के लिए काफी हैं। सामने स्थित यह छोटा मंदिर आज भी खड़ा अवश्य है परंतु अंदर से कई तरह की व्यवस्थाओं के द्वारा गिरने से बचाया गया है। पीछे वाले बड़े व मुख्य मंदिर के गिरने के कई कारण बताये जाते हैं। कई कहानियां जुड़ी हैं। ऐतिहासिक रूप से कुछ प्रमाणित हो पायी, कुछ नहीं। लेकिन इतना अवश्य है कि तेरहवीं शताब्दी के कलिंगा कला के इस अद्भुत प्रांगण में सूर्य की पूजा यकीनन होती थी। यह मुल्तान के चेनाव नदी के किनारे स्थित सूर्य मंदिर के अतिरिक्त दूसरा ऐसा स्थान था जहां सूर्य पूजा विशिष्ट रूप से की जाती थी। यह अपने भार से धीरे-धीरे कब और कैसे गिरा यह इतिहास के पन्नों में दबा पड़ा है। जाने क्या सत्य है लेकिन इतना अवश्य है कि इसके गिरने के बाद कोणार्क क्षेत्र का मुख्य आकर्षण धीरे-धीरे लुप्त हो गया। अन्यथा यह शहर पूर्व में, राज्य की राजधानी व धार्मिक तथा व्यावसायिक रूप से उस युग का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। इस पर यकीनन बाहरी आततायियों के आक्रमण का भी असर रहा होगा। कहा तो यह भी जाता है कि मंदिर के शिखर पत्थर में एक विशेष प्रकार का चुंबक था जो पास स्थित समुद्र से निकलने वाले नाविकों के कम्पास को प्रभावित कर भ्रमित करता था। जैसे ही एक प्रवासी राजा ने उस चुंबकीय पत्थर को हटाया, इमारत कमजोर होकर गिरने लगी। बचे हुए मंदिर में आज किसी भी भगवान की न तो कोई मूर्ति है और न ही पूजा होती है। हां, चारों तरफ हर एक माह के लिए बड़े-बड़े बनाये गए चक्र, जो कि संबंधित माह में समय का ज्ञान दिया करते थे, आज भी देखे जा सकते हैं। यह विज्ञान सम्मत जान पड़ता है। खजुराहो की तरह ही कामुक व श्रृंगार करती कलाकृतियों का प्रदर्शन मंदिर के चारों ओर की दीवारों पर उकेरा गया है। मेरे मतानुसार यह खजुराहो से अधिक स्पष्ट एवं बड़े आकार में उपस्थित है। कहानियां, किंवदंती तो बहुत सारी प्रचलित हैं परंतु इतना अवश्य है कि कहीं न कहीं खजुराहो और कोणार्क के शिल्पकार एवं राजाओं के दृष्टिकोण में समानता थी और ये एक-दूसरे की भवनविद्या को जानते व समझते होने चाहिए।
सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इस क्षेत्र का लोकप्रिय लोकनृत्य, ओड़ीसी भी अपने आप में विशिष्टता लिये हुए है। ओड़ीसी नृत्य की उत्पत्ति के मूल में पारंपरिक लोकनृत्य मोटीपुआ है। यहां आने पर इस नृत्य को देखने और जानने का अवसर प्राप्त हुआ। यह आज भी जनसाधारण में प्रचलित है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें लड़के लड़कियों का वेश धारण करके नृत्य करते हैं। इसमें शारीरिक बल, चपलता व लचीलापन का होना आवश्यक है। इसमें आधुनिक एरोबिक जिम्नेजियम का पुट दिखाई देता है। वे इतने बेहतरीन तरीके से श्रृंगार और वेशभूषा धारण किये होते हैं कि पहली बार देखने पर पहचाना ही नहीं जा सकता कि नृत्य करने वाला लड़का है। भगवान श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चना के लिए तैयार ये नर्तक आंखों व भाव-भंगिमा से बहुत कुछ कहने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं। प्राचीन सभ्यताओं, संस्कृति, भाषा व साहित्य से समृद्ध यह क्षेत्र विशिष्ट कला व संगीत के लिए भी जाना जाता है। एक ऐसा स्थान जहां सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों ही दर्शनीय हैं। इस क्षेत्र को बहुत अधिक विकसित किया जा सकता है।
समुद्र के किनारे सुबह-सुबह चलना दिल को छू लेता है। दृश्य इतने मनोहारी होते हैं कि कविता से जान पड़ते हैं। एक सुबह समुद्र तट पर बूढ़े को पोते के साथ देखा तो कुछ शब्द अनायास ही निकल पड़े थे। समुद्र दूर क्षितिज पर शांत/सूर्य निकल रहा बिना प्रयास/एक लहर उठी चुपचाप/तट पर पाने की है चाह/असफल हुई नहीं लाचार/लौटना है उसको स्वीकार/गोद में खेल रहा संसार/बूढ़े ने देखा उस पार/कदम खींच लिये इस बार/एक और लहर तैयार/ बढ़कर छूना अबकी बार/बेखबर बालक नादान/देख-देख कर लाल-लाल गेंद/पाना है हर हाल/मचल उठा अनजान।