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मीडिया के सामाजिक सरोकार
आरुषि हत्याकांड को गुजरे अभी बहुत समय नहीं हुआ। लेकिन यह हमारे न्यूज़चैनल एवं अखबारों से ही नहीं रोजमर्रा की बातचीत से भी गायब हो चुका है। किसी को भी नहीं पता कि अब इस केस में क्या हो रहा है। ईश्वर जाने असल में क्या हुआ था मगर उस मासूम बच्ची की आत्मा न जाने क्या सोचती होगी। मीडिया ने पुलिस के साथ मिलकर जो कुछ कहा व किया, उसके जख्म की कोई दवा नहीं हो सकती। किसी न किसी ने तो इस सृष्टि को बनाया ही है वो इसका क्या इंसाफ करेगा? नहीं पता। लेकिन जिंदा मां-बाप जीते जी इस मीडिया के द्वारा मार दिये गए। जब तक सांसें हैं बेटी की मौत और लगाए गए इल्जाम के दोहरी मार को उन्हें सहना होगा। अपनी ओर उठती हर निगाह में मीडिया द्वारा भरा गया वो जहर उन्हें जरूर दिखाई देता होगा जो चिल्ला-चिल्ला कर चौबीस घंटे सातों दिन कई चैनलों द्वारा कई दिनों तक प्रसारित होता रहा। आज बेशक इस अभागे डाक्टर दंपति को छोड़ दिया गया हो लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि मीडिया के किसी भी चैनल ने अपने कहे पर कोई पछतावा दिखाया हो। किसी भी समाचारपत्र ने अपने लिखे पर अफसोस के दो शब्द भी छापे हों। क्या मीडिया की कोई जवाबदारी नहीं? क्या उसका कोई सामाजिक पक्ष नहीं? कोई मानवीय संवेदना नहीं? हो सकता है इन सब का जवाब न में हो तो क्या इनको रोकने-टोकने-पूछने वाला कोई भी नहीं? शायद। कहीं इसीलिए तो ये अनियंत्रित, अराजक, अमानवीय और कहीं-कहीं असामाजिक तो नहीं होते जा रहे? हां, बिलकुल। और यही नहीं हर व्यवस्था से स्वयं को ऊपर समझने वाला मीडिया मृत व्यक्तियों की आत्मा की बद-दुआओं से भी नहीं डरता, तभी तो बिना कुछ सोचे-समझे-जाने एक मृत बच्चे के चरित्र पर दाग लगा दिया गया। वो भी बड़ी बेशर्मी से।
ऐसे सैकड़ों केस हैं जिसमें मीडिया विशेषकर विजुअल मीडिया ने अतिउत्साह और अतिसक्रियता दिखाते हुए खुद ही सफलता का डंका पीटते हुए दूसरे की स्वतंत्रता का अतिक्रमण किया। प्रिंट मीडिया ने तो फिर भी लिखने से पूर्व संयम और समझदारी में सदा सोचा लेकिन विजुअल मीडिया ने तो बोलने से पूर्व दस बार सोचो वाली बड़े-बुजुर्गों की कही गयी कोई सलाह नहीं मानी, उलटा अपने को व्यावसायिक रूप से आगे रखने के लिए कइयों को नैतिक स्तर पर खत्म कर दिया। ऊपर चढ़ने के लिए दूसरों के कंधों का सहारा लिया और फिर उसी को जबरन फंसाकर खुद मुक्त हो गए। इस आपाधापी में कइयों को जीते-जी बदनाम कर दिया गया। कई सच्चे राजनेताओं का राजनीतिक जीवन समाप्त हो गया तो कई बदमाश अपनी राष्ट्रीय स्तर की पहचान बना ले गए। कई शरीफ लोग मुंह दिखाने लायक नहीं रहे तो कई असामाजिक तत्व अपने आतंक को प्रचारित व प्रसारित करने में सफल रहे। परिणामस्वरूप आज मीडिया का पुलिस से अधिक नकारात्मक प्रभाव है। पुलिस के लिए तो कोर्ट-कचहरी है, वकील है, कानून की एक पूरी संवैधानिक प्रक्रिया है। मगर यहां पर तो टीवी स्क्रीन पर नौजवान/नवयुवती खुद ही वकील हैं, खुद ही जज और खुद ही पुलिस। कार्रवाई भी इतनी त्वरित कि भगवान भी कुछ समय लेता होगा मगर यहां तो मिनटों में ही फैसला कर दिया जाता है और फिर उसका ÷लाइव’ टेलिकास्ट लोगों को गर्म-गर्म परोस दिया जाता है। तिल का ताड़ या झूठ को सच साबित करने के लिए तो इनको कुछ शब्द ही बोलने होते हैं। मगर एक राजा मिनटों में रंक और इज्जतदार शर्म से पानी-पानी हो सकता है।
मीडिया का होना प्रजातंत्र के लिए आवश्यक है। यह न केवल जनता के लिए बल्कि शासन के लिए भी उतना ही जरूरी व उपयोगी है। इनसे संतुलन पैदा होता है। यह जनता की आवाज ही नहीं आंख-कान बनकर प्रशासन पर निगरानी भी रखते हैं। अंदर की खबर जनता तक पहुंचाना इनका प्रथम कर्तव्य बन जाता है। अगर ये न हो तो प्रशासन अराजक व अनियंत्रित हो सकता है वो तानाशाह के रूप में कार्य करने लगेगा और उसका स्वार्थ आतंक बनकर जनता पर कहर बन टूट सकता है। मीडिया सरकार के लिए भी उपयोगी है। सरकार इसके माध्यम से जनता तक पहुंच सकती है। राजनेता अपनी बात लोगों तक पहुंचा सकते हैं। धर्म, समाज, विज्ञान, खेलकूद, मनोरंजन किसी भी क्षेत्र में देख लें, मीडिया हर क्षेत्र में अत्यंत उपयोगी व लाभकारी हैं। दूर कहीं एक जगह बैठकर अनगिनत लोगों से संपर्क करने का इससे बेहतरीन माध्यम फिलहाल कल्पना में नहीं आता। लेकिन पत्रकारिता का शिखर रूप, विजुअल मीडिया, आज भ्रमित है। इसके कर्णधार अहम् के शिकार दिखाई देते हैं। वे अपनी सत्ता के मद में चूर हैं। लोकप्रियता और पावर का नशा इतना तीव्र है कि वो किसी को कुछ नहीं समझते।
अब देखिए, मुंबई आतंकी हमले में एक चैनल ने तो आतंकवादी का इंटरव्यू तक प्रसारित कर दिया। हद ही हो गयी। वैसे तो सभी ने पल-पल की जानकारी देने के चक्कर में सुरक्षा बलों के लाइव मूवमेंट दिखाकर आतंकवादियों को परोक्ष रूप से सहयोग ही किया। जब तक इन्हें रोका जाता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सच तो यह है कि मीडिया की रिपोर्टिंग के कारण आतंकवादी अपने प्रभाव को पूरी दुनिया को दिखाने में सफल रहे। इसमें कोई शक नहीं कि इस हमले को रोक न पाने में खुफिया एजेंसी, पुलिस प्रशासन और राजनेता सभी दोषी हैं। लेकिन हमले की शुरुआत होने के पश्चात मीडिया ने जो रोल अदा किया, वो जनता के लिए उपयोगी और आवश्यक कम दुश्मन के लिए ब्रह्मास्त्र जरूर बन गया। ऊपर से इसे अपनी गलती का अहसास नहीं। किसी के भी द्वारा कुछ भी टोकने या पूछने पर इन्हें अपनी स्वतंत्रता पर खतरा मंडराता नजर आने लगता है। चीखने-चिल्लाने लगते हैं, गोया कि देश की स्वतंत्रता से बड़ी है इनकी स्वतंत्रता।
जनआक्रोश को जनआंदोलन में परिवर्तित करने, संचालित करने में मीडिया का एक रोल हो सकता है। हर गतिविधि पर गिद्ध-सी नजर रखना, मीडिया का हथियार है। तभी तो राजनेता बोलने से पहले सोचते हैं, सार्वजनिक जीवन में कुछ गलत कार्य करने से पहले डरते हैं। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री का इस्तीफा मीडिया के प्रयास का ही असर था। यहां तक तो ठीक है लेकिन राजनीतिज्ञों को कोसने के लिए मीडिया ने जिन लोगों का उपयोग किया, उनके ऊपर विचार करें तो दूसरी तसवीर प्रकट होती है। ज्यादातर पेज थ्री के लोग थे जिन्होंने कभी कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभाई। मीडिया ने अपने गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के माध्यम से जनआक्रोश को जनक्रांति में बदलने की जगह भीड़ में परिवर्तित कर दिया। दूसरों से संयम व अनुशासन की उम्मीद करने वाला मीडिया स्वयं के गिरेबान में क्यों नहीं झांकता। एक हिन्दी समाचार चैनल के प्रमुख संपादक और अंग्रेजी के एक स्वतंत्र पत्रकार जो इंगलैंड और इंगलिश प्रेमी हैं तथा विदेशी राष्ट्र प्रमुख के साक्षात्कार के लिए विख्यात भी हैं, दोनों वरिष्ठ, ज्ञानी और नामी हैं, मगर हिन्दुस्तानी नेताओं से साक्षात्कार के समय में उनकी आवाज के साथ-साथ चेहरे के भाव को देखा जाना चाहिए। यह किसी क्रूर हेडमास्टर से डांटते व सामने वाले पर चील से झपटते प्रतीत होते हैं। दूसरों से शालीनता की अपेक्षा करने वाले स्वयं कैसा व्यवहार करते हैं? अग्नि परीक्षा लेने वाले खुद आग लगाते से प्रतीत होते हैं। दूसरों को कठघरे में खड़े करने वाले कहीं न कहीं खुद ही कठघरे में खड़े पाये जाते हैं। इन्हें शब्दों का चाबुक चलाता देख अगर जनता खुश होती है तो यह उसकी दबी-छुपी आक्रोश की भावना है जो संचालित होती है। कई बार जनता की इसी कमजोर नस पर मीडिया की नजर होती है। मगर क्या भड़काना अच्छी बात मानी जा सकती है? कभी नहीं। टीवी के अधिकांश एंकर चीखते-चिल्लाते से प्रतीत होते हैं। वैसे तो अंग्रेजी मीडिया में सामान्य तौर पर सौम्यता व परिपक्वता दिखाई देती है। लेकिन हिन्दी चैनलों की बढ़ती लोकप्रियता से बौखलाकर गला फाड़कर बोलने में अब ये भी पीछे नहीं। कुछ एक पत्रकार द्वारा अपनी बातों को बार-बार बोलकर प्रमाणित करना, लगातार स्क्रीन पर दिखाई देना, साफ-साफ बतलाता है कि वो सदा लाइम लाइट में रहना चाहते हैं। और इसके तरीके उन्हें पता हैं।
इन तमाम सर्वगुण संपन्न तथाकथित ज्ञानी, चूंकि ये हर विषय पर धड़ल्ले से बोलते हैं, का आकलन भी आवश्यक है। किस स्तर का ज्ञान है इन्हें? इनमें से अधिकांश व्यावहारिक ज्ञान व अनुभवों के अतिरिक्त कोई विशिष्ट शिक्षा प्राप्त नहीं। लेकिन किसी भी शीर्ष स्त्री-पुरुष व घटना पर टिप्पणी देने के लिए सदा तैयार रहते हैं। हिन्दी मीडिया के क्षेत्र में तो बहुत कुछ होना बाकी है। यहां पूछा जाना चाहिए कि जबरदस्ती किसी के मुंह से कुछ शब्द निकलवा लेने मात्र से क्या व्यवस्था ठीक हो जायेगी? नहीं। अगर मीडिया में इतनी ही नैतिकता है, समाज के प्रति समर्पण है तो उसने राखी सावंत, मीका, राजा चौधरी जैसे कलाकार क्यों पैदा किये? माना कि मोनिका बेदी को भी इज्जत से सामान्य जीवन जीने का हक है। मगर उन्हें इतनी लोकप्रियता परोसने की क्या आवश्यकता? ऐसे कई उदाहरण हैं। ये सभी सम्मानीय नागरिक हैं। सवाल है कि क्या इन्हें नायक के रूप में प्रदर्शित किया जाना चाहिए? समाज में सनसनी पैदा करने वाले नायक-नायिका कैसे, क्यूं और किसने बना दिए? रिपोर्टिंग के दौरान सिर्फ रंगीन दुनिया के रंगीन लोग ही क्यों नजर आते हैं? क्या तमाम बुद्धिजीवी, कथाकार, साहित्यकार, कवि, चिंतक, विचारक, चित्रकार खत्म हो चुके हैं? अगर मीडिया सकारात्मक पत्रकारिता के लिए सक्रियता दिखाने लगे तो यह अधिक देश हित में होगा। सिर्फ प्रतिक्रिया देना, दोष निकालना तो बड़ा आसान है। खोजी पत्रकारिता क्यों नहीं की जाती? पहले से उन गलतियों कमियों को क्यों नहीं उजागर किया जाता जहां हादसा हो सकता है? टीआरपी के लिए कुछ भी कह लेना, किसी भी हद तक चले जाना एक तरह का आतंक ही है। आज राजनेताओं के खिलाफ जनआक्रोश को संचालित करने, नौकरशाहों, भ्रष्ट लोगों को पकड़ने में मीडिया जिस तरह का रोल अदा कर रहा है, अच्छा है, मगर जनता में उसके विरोध में भी उतना ही आक्रोश पनप रहा है। अगर मीडिया को यह दिखाई नहीं दे रहा तो यकीन मान लेना चाहिए कि सत्ता का नशा सबको बराबरी से बर्बाद करता है।