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इसके लिए सिर्फ हम जवाबदार हैं
विगत सप्ताह चार दिन लगातार, टेलीविजन के खबरिया चैनलों को मैंने पहली बार इतना अधिक आंख गढ़ाकर देखा। चैनलों को बदल-बदल कर जाने क्या खोजता रहा। हम सभी जानते हैं कि कुछ एक अपवाद छोड़ दें तो इन चैनलों में से अधिकांश के लिए यह एक व्यवसाय है और समाज एक बाजार। यहां काम करने वालों के लिए तो यह मात्र एक रोजी-रोटी का साधन, जहां और अधिक सफल होने के लिए वही सब हथकंडे अपनाये जाते हैं। तभी तो इसमें भी झूठ-फरेब-स्वार्थ, बात का बतंगड, गलत दृष्टिकोण, राजनीति-गठजोड़ हो सकता है। मगर फिर भी इसे निरंतर देखने के पीछे कारण था दिल में दबी हुई असुरक्षा की भावना और उससे उपजा अनकहा भयंकर आक्रोश। बुद्धिजीवी से लेकर आम जन में बेचैनी देखी गई। एसएमएस का आदान-प्रदान से लेकर अखबार भरे पड़े थे। विगत रविवार मेरा इस ज्वलंत घटना पर न लिखने के पीछे कई कारण थे। एक तो पहले से ही तीव्र भावनाओं से आवेशित था, ऐसे में लिखना ठीक नहीं। दूसरा पिछले कुछ महीनों से कई बार इसी विषय पर लिखता आ रहा था और लिखने के लिए कुछ नया नहीं था। और फिर लगा कि शायद इस बार भारत की आम जनता मीडिया के साथ मिलकर इस व्यवस्था को बदलकर ही दम लेगी। मगर मैं पुनः गलत था। हां, इस बार यह उसी तीव्रता से अखबारों के अंदर के पन्नों में तो नहीं सिमटा, न ही टीवी ने इसका साथ छोड़ा, लेकिन जो कुछ लिखा व दिखाया जा रहा है उसकी दिशा व दशा बदली हुई है। संदर्भ और प्राथमिकताएं बदल गईं। जबकि मुंबई पर हुआ आतंकवादी हमला, इसे एक नये तरीके का युद्ध भी कहा जा सकता है, हमें हमारे भयानक भविष्य के लिए सचेत करने वाला सायरन था। यह अब तक का तीव्रतम और इतना योजनाबद्ध तरीके से किया गया हमला था कि हिन्दुस्तान के तमाम सुरक्षा बलों को इसके लिए कई दिन मशक्कत करनी पड़ी। साफ है कि कुछ चंद मुट्ठीभर लोग पूरे हिन्दुस्तान की व्यवस्था को चुनौती देने में सफल रहे। उनका मारा जाना हमारी ऐसी भी कोई सफलता नहीं जिसके लिये पीठ थपथपाई जाये। वो तो स्वयं मरने आये थे। मगर मरने से पूर्व जो वह चाहते थे वो बड़ी आसानी से कर गए। जबकि हमें इसकी महंगी कीमत सैकड़ों आम नागरिक और दसियों वर्दीधारियों की कुर्बानी से चुकानी पड़ी।
हिन्दुस्तान में यह सिलसिला रुकने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। सभी के मन में एक सवाल उभरता है कि क्या यह रुक पायेगा? मुझे निराशावादी कहलाने में कोई आपत्ति नहीं। लेकिन जब अपने इतिहास, वर्तमान जनता की भेड़चाल और तमाम व्यवस्थाओं को देखता हूं तो लगता है कि ‘नहीं’। कम से कम आज के हालात को देखकर तो यही कहा जा सकता है। कोई दैवीय शक्ति या चमत्कार हो जाये तो कहा नहीं जा सकता। हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिसमें हर एक दिन हम बर्बादी की ओर तीव्रगति से अग्रसर हो रहे हैं। हमारा आर्थिक विकास विकास नहीं आर्थिक असमानता पैदा कर गया। हमारी स्वतंत्रता हमारी ताकत कम कमजोरी बनकर उभरी है। धर्म तो सदा से हमारे लिये सभी अधर्मों का कारण रहा। हमारा प्रजातंत्र क्या है, एक भीड़तंत्र। राजनीति कुछ चतुर, चालाक व शब्दों के साथ खेलने वाले व्यक्तियों का शासन पर कब्जा करने के लिए अचूक अस्त्र। हम सुपर पॉवर क्या बनेंगे, हां सुपर बाजार जरूर बन गए।
मुंबई हमले के प्रारंभिक दिनों में जनता व मीडिया में जबरदस्त हलचल थी। ऐसा लगा भी कि इस बार राजनीति ज्यादा नहीं होगी। और हमारे राजनेता जनता की भावनाओं को देख समझदार बनेंगे मगर जल्द ही यह भ्रम भी टूटा। असल में, हमला इतना तीव्र था कि प्रारंभ में इन राजनेताओं ने घर में बैठकर टीवी देखने में ही अपनी भलाई समझी। और सैन्य कार्रवाई खत्म होते ही यह सभी अपने बिल से निकले और एक बार फिर शुरू हुआ शब्दों का आतंक। वोट बैंक और कुर्सी की राजनीति, दांव-पेंच, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशें। एकाध इस्तीफे व कुछ स्थानांतरण भी हुए मगर एक बार फिर इनके खेल का तमाशा शुरू हुआ। परिणामस्वरूप राजनेताओं के विरोध में जन आक्रोश भड़क उठा। इसे देख एक राजनेता की टिप्पणी पर गौर किया जाना चाहिए, प्रजातंत्र नहीं तो कोई न कोई व्यवस्था तो लानी ही पड़ेगी। क्या हम तानाशाही या राजशाही चाहते हैं? नहीं। तो फिर ऐसे में आलोचना या गुस्सा कोई समाधान नहीं। विरोध गंदे राजनेताओं का होना चाहिए न कि राजनीति का, नहीं तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यह सत्य है कि आक्रोश, क्रोध, बेचैनी, कमजोरों की निशानी है। जो कुछ नहीं कर सकते वो ही ऐसा करते हैं। तभी तो जनता अपने दर्द को खुद ही सहलाकर एक बार फिर हालात से समझौते कर जीने के लिए मजबूर है। मगर यह भी ठीक नहीं। हमें दर्द को पालना होगा जिससे बीमारी का स्थायी इलाज किया जा सके। जाने क्यूं, मुंबई हादसे के दौरान कई बातें दिल को छू रही थीं। मुंबई की स्तंभकार शोभा डे को जब टीवी पर सुना तो इनकी बातों के साथ-साथ चेहरे के हाव-भाव ने भी ध्यान आकर्षित किया था। अधिकांश जनता की भावनाएं कुछ इसी तरह की थीं। उनके कथनानुसार अब बहुत हुआ। अधिकांश राजनेताओं पर निशाना साधते हुए किसी को भी नहीं बख्शा गया। उनके मतानुसार हमारे राजनेताओं को रोबोटिक तरीके से लिखे लिखाये भाषणों को टीवी पर पढ़ना बंद कर देना चाहिए। जनता शांत रहे इस तरह के नेताओं के आह्नान अब कोई मायने नहीं रखते। राजनेता के बालों को भी आंच न आये वे इतनी सख्त सुरक्षा व्यवस्था में रहते हैं मगर जनता असुरक्षित है। देश में पूरी तरह से नेतृत्व खत्म हो चुका है। जो है वो कमजोर, दिशाहीन व स्वार्थ से भरा हुआ। अंत में सभी की अपील थी कि लोगों को एकजुट होकर आगे आना होगा। तभी आतंकवाद का सामना किया जा सकता है।
मीडिया जन भावनाओं को संचालित करने में, सूचना पहुंचाने से अधिक सक्रिय दिखाई दिया। मगर उसके इस अति में कहीं न कहीं राष्ट्र प्रेम कम स्वार्थ अधिक दिखाई दिया। उसकी अति सक्रियता अब नुकसान देने लायक स्थिति में पहुंच चुकी है। बीच में एक टीवी के उद्-घोषक ने यह भी कहा कि हम आपको ताजा चित्र इसलिए नहीं दिखा रहे हैं जिससे कि अंदर छुपे आतंकवादी इनको देखकर फायदा न उठा सके। कहते समय जवाबदारी का अहसास कम थोपा हुआ अधिक लग रहा था। तभी तो साथ में कही गई यह बातें विरोधाभास थीं कि सुरक्षा बल अपना कार्य कर रहे हैं और हमें अपना कार्य करना हैं हमें जनता को पल-पल की जानकारी देनी है। यह सुनने में तो बड़ा अच्छा लगता है। लेकिन क्या वास्तव में ये अपने कार्य के प्रति ईमानदार हैं? कहीं अधिक से अधिक दर्शक बटोरने का स्वांग तो नहीं? शायद। तभी तो मीडिया की भी आलोचना हुई। यह सत्य है कि मीडिया न हो तो राज व्यवस्था परदों के पीछे न जाने क्या कर जाएं मगर मीडिया ने सूचना प्राप्त कर जल्द से जल्द दिखाने के चक्कर में जितनी अफरा-तफरी मचाई उसकी आवश्यकता नहीं थी। राजनेताओं के अतिरिक्त नौकरशाह को भी कठघरे में खड़ा किया गया। मगर उतना नहीं जितने के लिए ये जिम्मेदार हैं। ध्यान दें कि क्या इन पर कोई असर होता है? नहीं। राजनेता और मीडिया तो कहीं न कहीं किसी न किसी के जवाबदार हैं लेकिन इन पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता। शासन करने कोई आये-जाये, देश पर चाहे जैसी विपत्ति हो, इनका राज सदा बना रहता है।
उपरोक्त कही गई बातें बिल्कुल सत्य हैं। मगर एक शख्स छूट रहा है। जो सबसे अहम है। वो है मैं, हम, आम जनता। मूल रूप से उपरोक्त सभी के लिए सर्वप्रथम हम जिम्मेवार हैं। हमें वही राजनेता मिलते हैं जिन्हें हम चुनते हैं। फिर हमें उनसे कैसी शिकायत। हम स्वयं इनकी बातों में आ जाते हैं। अपने छोटे-छोटे फायदे के लिए बड़ी-बड़ी चीजों की अनदेखी कर देते हैं। इतना बड़ा आतंकवादी हमला हमारे बीच के कुछ चुनिंदा लोगों के सहयोग के बिना संभव नहीं। इसके लिए कौन जिम्मेवार है? क्या हम अपने आसपास की गतिविधियों पर सक्रियता से नजर रखते हैं? अनचाहा व्यक्ति व व्यवस्था को देखकर कुछ करते हैं? दूसरों से बलिदान और त्याग की अपेक्षा करने वाले क्या हम छोटी-सी छोटी कुर्बानी देने को भी तैयार हैं? कहा जाता है कि पूरा तंत्र खराब हो चुका है। एक अकेला क्या करेगा। यह कुछ हद तक तो सही लगता है मगर फिर दस जागरूक नागरिक भी अगर पूरी ईमानदारी से खड़े हो जायें तो कुछ भी असंभव नहीं। और अगर फिर इतना ही डर है तो फिर डरे हुए को शान से जीने का कोई हक नहीं। हम में से ही कुछ भ्रष्ट होते हैं जिनका सहयोग आतंकवादी प्राप्त कर लेते हैं। मस्ती का जमाना है हर आदमी खा-पीकर ऐश में रहना चाहता है। गजब काल है, जो जितना नकारात्मक कार्य करेगा वो उतना लोकप्रिय है। हर कोई हर कुछ पाने के लिए भाग रहा है। फिर चाहे उसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े। यह हमारी व्यवस्था की देन है। सच पूछे तो हमारे विनाश की शुरुआत है। और अगर हमने व्यवस्थित रूप से जल्द कुछ नहीं किया तो हम बर्बाद हो जाएंगे। देश छोटे-छोटे कबीलों में बंट जाएगा। और उसका सरगना होगा एक गुंडा-मवाली जो शारीरिक रूप से अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए अपने-अपने कबीलों पर राज करेगा।
देवता और राक्षस हर युग में रहे हैं और आगे भी रहेंगे। इनमें युद्ध और प्रतिस्पर्द्धा सदा रहेगी। बात सिर्फ यह है कि अगर हमें अमन-चैन चाहिए तो अच्छे लोगों को संगठित होकर बुरों का डटकर मुकाबला करना होगा। अन्यथा राक्षस तो किसी भी काल में कभी भी कमजोर नहीं थे। जब तक हम, यह मेरा कार्य नहीं, सोचकर आंखें मूंदे रहेंगे, तब तक सुरक्षित नहीं। हर एक को निकलना होगा अपने-अपने सुरक्षा कवच से और हर उस व्यवस्था को उखाड़ फेंकना होगा जो समाज के हित में न हो। स्वीकार करना होगा स्वयं से पहले राष्ट्र है। समझना होगा कि जब राष्ट्र ही नहीं होगा तो मैं कैसे रह सकता है। नहीं तो इस तरह की कमजोर, लिजलिजी, भ्रमित, स्वार्थी, बंटी हुई जनता, जो हर बार किसी न किसी के द्वारा लूटी गयी है, जिन पर राज किया गया है, आगे भी लूटी जाती रहेगी। हम वही सब गलतियां फिर दोहरा रहे है, जो हर बार हमने गुलाम बनने से पूर्व की है। इतिहास हमें इसके लिए एक बार फिर आगाह कर रहा है। जाग जाएं।