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बंद कमरे में देखें असली चेहरा
जेल। समाज की एक व्यवस्था। किसी भी नागरिक के असामाजिक और गैर-कानूनी कार्य में दोषी पाये जाने पर समाज से दूर यहां बंद कर रखा जाता है। सीधे व सरल शब्दों में घर-परिवार-बिरादरी-समाज से अलग होकर रहना ही अपने आप में एक सजा है। कारण स्पष्ट है मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अपने लोगों के बिना वो जी नहीं सकता। स्वतंत्रता उसका स्वभाव है तो आसपास की जानकारी, खोज-खबर रखना उसे मानसिक संतुष्टि प्रदान करता है। ऐसे में उसे एक जगह बंधक बनाकर रखना, बाहरी दुनिया से काट देना, अत्यधिक कष्टप्रद होता है। मगर इसी जेल को अगर एक खेल बनाने का प्रयास किया जाए तो वो कैसा होगा? ‘बिग बॉस’ इसका एक जवाब हो सकता है। इसे जेल का एक खेल कह सकते हैं। एक विशिष्ट प्रतिस्पर्धा भी। जो भी कहें इस टीवी कार्यक्रम का मूल फार्मेट बड़ा रोचक, अनोखा और नयापन लिये हुए है। ‘बिग ब्रदर’ अंग्रेजी रियेलिटी शो का भारतीय रूपांतर। शिल्पा शेट्टी के जीतने के बाद हिन्दुस्तान में इस कार्यक्रम ने अचानक लोकप्रियता पकड़ी थी। कार्यक्रम के मूल को ध्यान से देखें और कल्पना करें, जेल के रूप में उपयोग किया गया एक बड़ा-सा मकान, जो रहने की सभी सुख-सुविधाओं से लैस है, अगर यहां कुछ लोगों को कुछ महीने हफ्तों के लिए स्वेच्छा से नजरबंद कर दिया जाए, अर्थात बाहरी दुनिया से पूरी तरह काट दिया जाए तो अंदर रहने वाले कैसा महसूस करेंगे। विशेष बात यह है कि आप बाहर की दुनिया नहीं देख सकते लेकिन दुनिया की निगाह लगातार आप पर बनी रहेंगी। इस मूल कार्यक्रम में कई और भी बातें जोड़ने के अलावा नये-नये प्रयोग किये जा सकते हैं। घर की साफ-सफाई, खाना बनाना, बर्तन साफ करना, शौचालय की सफाई, कपड़ों की धुलाई आदि अपने हाथ से करना तो आवश्यक है ही कुछ और भी कार्य करवाये जा सकते हैं। मसलन अंदर रहने वालों से नये-नये मनोरंजन के कार्यक्रम, एक्टिंग, हंसी-मजाक, खेल, नाटक आदि करवाना। संक्षिप्त में, कार्यक्रम के अदृश्य बिग बॉस के निर्देशानुसार घर वालों को कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। वो बॉस की हर आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य हैं। अर्थात यह बिग बॉस का रंगमंच, जहां नाटक करने के लिए कुछ एक कठपुतलियों को रखा गया है। इन पात्रों को कई कड़े नियमों का पालन करना पड़ता है। इन्हें सीमित मात्रा में खाने-पीने का सामान दिया जाता है। कोई टीवी नहीं, कोई टेलीफोन, समाचारपत्र, कंप्यूटर, इंटरनेट, घड़ी नहीं। यह सुनने-देखने में आसान और प्रथम प्रतिक्रिया में सरल जान पड़ता है। मगर वास्तविकता में पूरी तरह से नियमपूर्वक खेला जाए तो इतना आसान नहीं। हां, रोचक जरूर होगा। रोमांचकारी होगा। मनोरंजक भी हो सकता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि अदृश्य बिग बॉस इस कार्यक्रम को किस तरह से चलाना चाहते हैं। और अंदर के कलाकार किस तरह से दिशा-निर्देश का पालन करते हैं। मगर इस दौरान घर के अंदर रहने वालों में मानसिक तनाव के होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। एक तरह का अकेलापन, चिड़चिड़ाहट, उदासी, विरक्ति, घबराहट, मानसिक अनियमितता से दो-दो हाथ करना पड़ सकता है। आगे बढ़कर यही आत्मचिंतन और आत्मपरीक्षण में भी परिवर्तित हो सकता है। एक तरह की योग व साधना हो सकती है। कुछ हफ्ते बीतने के बाद आदमी एकाग्रचित्त हो सकता है। सोचने लगेगा। अंतर्मुखी हो जाएगा। खुद को पहचानने के लिए, खुद से बातें करने के लिए एक प्लेटफार्म।
उपरोक्त विविधता ही कारण है जो भारतीय टीवी जगत में यह एक विशिष्ट व बेहतरीन कार्यक्रम बनकर उभरा। घर में रहने वालों के लिए सभी तरह के खाने-पीने की सुविधाएं, जो आप चाहो वो बनाकर खाओ, सोने-रहने-ओढ़ने की उत्तम व्यवस्था, आरामदायक बिस्तर, बेहतरीन उच्चस्तर का वातावरण और जन्मदिन व त्योहारों का विशेष आयोजन। साथ में मनोरंजन, खेलना-कूदना, नाटक करना, नृत्य करना और अंत में जीतने वाले को करोड़ों का इनाम। न जीते तो भी एक बहुत बड़ी लोकप्रियता। कहने वाले कह सकते हैं यह तो बड़ा आसान है। खाओ-पीओ और आराम से रहो। बस कोई लफड़ा मत करो और शांत गंभीर होकर शालीनता से रहो। मगर दिक्कत ये है कि कुछ घंटों बाद ही आदमी अपने असली रूप में आ जाता है। वो बहुत दिनों तक झूठा नाटक नहीं कर सकता। ऊपर से मुश्किल इस बात की है कि आपकी हर बात सुनी जाती है और आपकी हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है। आपको अपने साथ रह रहे सहकर्मियों के साथ बनाकर चलना पड़ता है अन्यथा अन्य साथी आपको बाहर भेजने वाली प्रक्रिया में मनोनीत कर सकते हैं। दर्शकों का भी ध्यान रखना पड़ता है। नहीं तो वे आपके विरोध में वोट कर सकते हैं। और आपको हारकर घर से बाहर निकलना पड़ सकता है। इससे यह पता चल जाता है कि कौन-सा प्रतियोगी समूह में मिस फिट और दर्शकों द्वारा पसंद नहीं किया जा रहा।
यही कारण है जो बिग बॉस में रोमांस है, रोमांच है, मस्ती है, नयापन है, खेल है, पेच है, व्यक्तित्व का प्रभाव है। यहां आराम हराम बन सकता है। चिंतामुक्त होकर कुछ दिन के लिए समय काटने का स्थान नहीं है। कोई इसे पेड होलीडे नहीं कह सकते। आप हंसी का पात्र भी बन सकते हैं। असल में कुछ दिनों तक यहां रहना अच्छा लग सकता है। लेकिन फिर बात बिगड़ सकती है। एकदम कुछ भी न करना या फिर सिर्फ एकांत में समय व्यतीत करना भयावह भी हो सकता है। व्यक्ति के आंतरिक संस्कृति व संस्कार दिखाई देंगे। बहरहाल, एकदम एकांत में अकेले रहना एवं एक समूह के साथ एक घर में बंद होकर रहने में बहुत अंतर है। यह अलग अनुभव दे सकता है। इसमें आपको आपस में सामंजस्य बनाना जरूरी है, तालमेल रखना जरूरी है। असल में एक के बाद दूसरों के आते ही जीवन में राजनीति शुरू हो जाती है। आदमी कहीं न कहीं अपने व्यवहार में दूसरे के साथ सामंजस्य बनाने के लिए तालमेल बैठाने लगता है, जोड़-तोड़ करने लगता है। ऐसी परिस्थिति में पूरी तरह से स्व को केंद्र में लाने वाली स्थिति नहीं आ पाती। आदमी के व्यक्तित्व का असली रूप उभरकर नहीं आ पाता। लेकिन फिर भी बहुत हद तक वो अपनी असलियत उजागर कर देता है। बिग बॉस में यही राजनीति, जोड़-तोड़, चुगलखोरी अपने यथार्थ रूप में होने पर दिलचस्प बन जाती है।
बिग बॉस-दो का विजेता घोषित हो चुका है मगर इसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। मसलन, अंतिम परिणाम में जोड़-तोड़, बाहर से परिणाम को प्रभावित करने की कोशिश, पैसे और राजनीति का प्रभाव आदि-आदि। प्रथम द्रष्टया देखने पर इस इल्जाम को सिरे से नकारना संभव नहीं। बहरहाल, यह और मनोरंजक और एक बेहतरीन कार्यक्रम बन सकता था। मगर लगता है कि यह बाजार की जरूरतों के बोझ से दब गया। निर्माता यह नहीं समझ पाया कि इसके मूल में सफलता के सारे गुण मौजूद हैं और किसी भी कार्यक्रम के सफल होने पर लक्ष्मी अपने आप प्राप्त होती है। अतः इसके लिए किसी दूसरे के सहारे की जरूरत नहीं। कार्यक्रम के दौरान कई बार ऐसा महसूस हुआ, कइयों के द्वारा शक भी जाहिर किया गया कि इसमें बनावटीपन जबरन लाया गया, सनसनी पैदा करने के लिए झूठी कहानियां गढ़ी गईं, व्यक्तिगत लोकप्रियता के लिए इसको एक प्लेटफॉर्म के रूप में इस्तेमाल किया गया और अंतिम हफ्ते में तो यह बुरी तरह से लड़खड़ाने लगा। किसी एक की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाएं खुलकर कार्यक्रम के ऊपर हावी होने लगी। बिग बॉस यह भूल गये कि जिस तरह उनकी निगाहें घर के अंदर निरंतर चौकसी करती हैं, इन निगाहों में खोट तो आ सकता है, मगर जनता की सैकड़ों-हजारों की नजरों में धूल झोंकना इतना आसान नहीं। जनता इतनी मूर्ख नहीं कि वो असली और नकली को न पहचान सके। दर्शकों के मनोरंजन के लिए, विज्ञापनदाताओं की पैसा वसूली के लिए ग्लैमर, रोमांच और सनसनियों को जड़ा जाना एक हद तक ही चल सकता है। वैसे तो इस कार्यक्रम के प्रारंभ से ही कुछ एक कलाकार इतने शातिर निकले कि अंदर भी एक्टिंग शुरू कर दी। सनसनी के लिए ऊट-पटांग हरकतें, लोगों का ध्यान खींचने के लिए बेहूदा बातें, अनचाहे रिश्ते जोड़े जाने लगे। कहानियां बनाई जाने लगी। रस घोलने के चक्कर में कुछ एक इश्क का खेल खेलने के नाटक सफल भी हुए। एक से बड़कर एक नौटंकी। प्रतिस्पर्धा, चुगलखोरी, गुटबाजी, दगा, त्याग, प्रेम सब कुछ। यहां भी आदमी वही सब हरकतें करने लगा। लेकिन फिर भी इन्हें इस तरह से देखना एक नयापन और रोमांच पैदा करता रहा। अगर दिखाई गयी मानवीय प्रवृत्तियां कुछ हद तक भी स्वाभाविक और सहज होती तो दर्शक उसमें भी मजा लेते। वो साफ-साफ देख सकते हैं कि कौन आदमी क्या है। कौन घटिया राजनीति खेल रहा है। कौन किसकी भावनाओं से खेल रहा है। कौन गलत कर रहा है। कौन सही है। और फिर जनता इसी के आधार पर सुनिश्चित करती कि किसको निकाला जाना चाहिए। अर्थात एक बार फिर प्रजातंत्र का एक स्वरूप। यह दीगर बात है कि इस कार्यक्रम में इसका सकारात्मक रूप देखने को मिला। क्षेत्रीयवाद, भाषावाद और अन्य तरह के तमाम संकुचित विचारधारा से दूरी जो दूसरे रियेलिटी शो में जबरन दिखाई देती हैं, वो यहां बहुत हद तक नदारद थी। मगर खुद अंदर रहने वालों के साथ मिलकर घर का मालिक ही तमाशा करना चाहे तो फिर क्या किया जा सकता है। मदारी के खेल में भीड़ इकट्ठा तो होगी ही। इससे बचा भी तो नहीं जा सकता। क्योंकि इसी का नाम तो आदमी है।