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विश्व शिखर पर अश्वेत प्रशासन

हम विश्व की एक महत्वपूर्ण घटना के साक्षी ही नहीं, किसी न किसी रूप में उसके भागीदार बनने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके हैं। एक ऐसी घड़ी जिसने अपने गर्भ में, एक महान परिवर्तन का बीज धारण कर लिया है, और यकीनन उत्पन्न होने वाला वटवृक्ष कई युगों तक देखा व पहचाना जाएगा। इस ऐतिहासिक घटनाक्रम में हमारा कितना योगदान है, यहां चर्चा का विषय नहीं, मगर इसके परिणाम व प्रभाव से हम अछूते नहीं रह सकते। अश्वेत बराक ओबामा को अमेरिकी जनता ने व्हाइट हाउस में रहने की इजाजत दे दी है। प्रजातंत्र के माध्यम से बहुसंख्यक गोरों के वोट द्वारा एक काले को राज करने का टिकट। वो भी कम से कम अगले चार साल तक। अमेरिका पर। एक ऐसा देश, जो विश्व का मुखिया होने का दम भरता है। विश्व के तमाम लोगों के लिए सपनों की दुनिया और गोरों के गर्व का प्रतीक। और फिर यही अमेरिका चाहे जितना आधुनिक, स्वतंत्र प्रगतिशील, प्रजातंत्र का गढ़ कहलाने के लिए लालायित हो मगर इसका छोटा-सा इतिहास, विश्व के इतिहास से अलग नहीं। मात्र पचास वर्ष पूर्व तक कालों के साथ वहां वो सब कुछ होता रहा जो यहां हिन्दुस्तान में भी नहीं हुआ था। अतः विश्व इतिहास को एक समग्र रूप में देखें तो यकीनन यह कोई मामूली घटना नहीं। हजारों साल से, विश्व पर गोरों का प्रभुत्व, अंग्रेजों का शासन और अधिक हुआ तो पश्चिमी एशिया के वर्चस्व को दुनिया ने देखा है। संक्षिप्त में, काले हमेशा शासित वर्ग में ही आते रहे हैं। इन्होंने दूसरों को छोड़ अपने घर में भी कभी व्यवस्थित ढंग से राज किया हो, याद नहीं पड़ता। अमेरिका को, जो प्रारंभ में एक निर्जन देश था, विश्व के हर हिस्से से पहुंचकर लोगों ने इसे आबाद किया। मगर यहां भी कालों पर गुलामी व अत्याचार होते रहे। मात्र पचास वर्षों में, रंगभेद की नीति के विरुद्ध लड़कर यहां तक पहुंचना, विश्वास नहीं होता। मार्टिन लूथर किंग का सपना जो उन्होंने पिछली शताब्दी के पांचवें दशक में देखा था, पूरा हुआ।

हिन्दुस्तान के समाचारपत्र प्रथम से अंतिम पृष्ठ तक ओबामा से भरे पड़े थे। मीडिया में इतना जबरदस्त कवरेज तो किसी भारतीय राजनेता की जीत पर भी दिखाई नहीं पड़ा। तो कहीं इसका कारण राजनैतिक से अधिक सामाजिक और भावनात्मक तो नहीं? शायद। असल में इसने हमारी मानसिक चेतना पर प्रभाव डाला है। हम आज भी कुछ हद तक गुलाम हैं। यह अनजाने में ही हमारी इस आम धारणा को तोड़ेगा कि सिर्फ गोरे ही राज कर सकते हैं काले नहीं। राजनैतिक परिदृश्य ही नहीं अफ्रीका और एशिया की सामाजिक व्यवस्था में सदियों से पनप रही हीन भावना को भी कहीं न कहीं भावनात्मक रोक लगेगी। गोरों की हेकड़ी व उनका कालों की ओर तिरस्कार भावना से देखने में परिवर्तन आएगा। एक नये युग की शुरुआत होगी। पश्चिम देशों में जाने से पहले पूरबियों को अब किसी तरह की त्वचा के रंग से संबंधित हीन भावना नहीं होनी चाहिए। अचानक उभरा आत्मविश्वास अब स्वाभाविक होगा। यह सत्य है कि बराक ओबामा का अमेरिका में आना हिन्दुस्तान में राजनैतिक रूप से सीधे फर्क न डाले मगर आर्थिक कारोबारियों को तथाकथित उतार-चढ़ाव झेलना पड़ सकता है। अमेरिका जबरन कश्मीर के मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण डाल सकता है। मगर ये सब इतने महत्वपूर्ण नहीं होंगे जितना की आम भारतीयों की सोच में अचानक परिवर्तन आना प्रारंभ होगा। अंग्रेजों को छोड़े हुए आधी शताब्दी से अधिक का समय हो गया, लेकिन हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं में उनका श्रेष्ठ होने की मनोग्रन्थि का विकार विरासत में भारतीय गोरों के दिमाग को आज भी पागल किये रखता है। अब इसमें बदलाव सुनिश्चित है। काले पिता और गोरी मां की संतान बराक ओबाम पूरी तरह अश्वेत नहीं हैं, गोरों के लिए बचाव का एक मुद्दा बन सकता है, मगर पत्नी मिशेल ओबामा तो पूर्णतः अश्वेत हैं। अमूमन अब गोरी लड़कियों का इतराना कम हो सकता है। गोरेपन की क्रीम की बिक्री में अचानक फर्क आ सकता है। अब जब हॉलीवुड को अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में एक अश्वेत को दिखाने में अड़चन नहीं रहेगी तो काले तमिल, तेलूगु और मलयाली ही नहीं किसी भी भारतीय कालों को अपने त्वचा का रंग छिपाने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। रजनीकांत ही नहीं अन्य दक्षिण भारतीय फिल्मी कलाकारों से लेकर मिथुन चक्रवर्ती तक को अब त्वचा के मूल रंग में चलचित्र पटल पर आने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। रातोंरात विपाशा बासू, करीना कपूर से अधिक रेट मांगने लगे तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। सौंदर्य, आकर्षण एवं व्यक्तित्व में गोरे रंग के स्थायी अवयव को एक गहरा झटका लगेगा और कालों को हर एक क्षेत्र में आने के लिए प्रोत्साहन। यह बातें इस स्तंभ को पढ़ रहे बुद्धिजीवियों को छोटी लग सकती है। मगर यह न्यूक्लियर डील, आतंकवाद और सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव से लेकर बीपीओ की नौकरी में होने वाली कमी से कम नहीं। यह आम आदमी की रोजमर्रा की भावना से जुड़ा मुद्दा है। उन युवकों से पूछो जिन्हें सिर्फ इसीलिए नौकरी नहीं मिलती, फिल्म नहीं मिलती, विज्ञापन नहीं मिलते क्योंकि उनका रंग काला होता है। उन लड़कियों से पूछो जिनकी शादियां सिर्फ इसीलिए नहीं हो पाती क्योंकि उनका रंग गहरा है। स्कूल, कॉलेज, मोहल्लों में सांवले बच्चों को गोरे बच्चों द्वारा चिढ़ाया जाता है और वो बचपन से ही हीनभावना का शिकार हो जाते हैं। हमारी सोच में दुस्साहस की हद देखिए कि एक विज्ञापन में एक कंपनी ने यह कहानी तक गढ़ दी कि उसके क्रीम के प्रयोग करने के बाद लड़की की त्वचा का रंग साफ हुआ और वो एक विशिष्ट नौकरी में चुन ली गई। मां-बाप के आंखों में खुशी के आंसू दिखाये गए। श्रीकृष्ण और शंकर महादेव के इस देश में सांवले रंग के अपमान को दूर करने के लिए ओबामा का अमेरिका में जीतना एक मील का पत्थर साबित होगा। क्षेत्रीयवाद से जूझ रहे प्रजातंत्र के तथाकथित महान स्थल हिन्दुस्तान को सबक लेना होगा जहां राज्य की सीमाओं को भाषा, रंग और जाति से जोड़कर देखा जा रहा है। हमने कई क्षेत्रीय सूबेदारों को पैदा कर दिया और कइयों को पैदा करने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। यह क्षेत्रीय नकली शेर आपस में लड़कर हमारे राष्ट्र को नोच-नोच कर तार-तार कर दें इसके पहले हमें अमेरिकी जनता से सबक लेना होगा, जिसने न केवल दूसरी त्वचा के रंग को स्वीकार किया बल्कि एक ऐसे पुत्र को अपनी आंखों में बिठाया जिसके पिता के धर्म के बारे में शंका पैदा की जा सकती थी। उसे बाहरी घोषित किया जा सकता था। यह सीख है हिन्दुस्तान की आम जनता को जो सड़कों पर निकलकर हमारे घटिया राजनेताओं की घटिया राजनीति में लिप्त होकर अपने ही घरों को आग लगा देती है।

उपरोक्त कथन एक प्रतिक्रिया नहीं है। इसे किसी विद्वेष की भावना से प्रेरित होकर, बदले की दुर्भावना से जोड़कर समाज को आगे बढ़ाना गलत साबित होगा। ओबामा की जीत परिवर्तन का प्रथम चरण है। सफर तो अभी शुरू हुआ है और रास्ता लंबा है। असली अग्नि परीक्षा तो अब प्रारंभ होती है। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिदृश्य में जितना हा-हाकर इस वक्त अमेरिका में मचा है, पूर्व में कभी न था। ऐसे में पूरे राष्ट्र का संगठित होकर, पूर्वाग्रहों से दूर होकर, एक अश्वेत को चुनना, अमेरिका में परिपक्व प्रजातंत्र को एक बार फिर प्रमाणित करता है। यह शुभ संकेत हैं। अमेरिका ने न केवल बुश से छुटकारा पाया बल्कि ओबामा पर विश्वास दिखाया। उनकी जीत का प्रतिशत उनसे अपेक्षाओं को दर्शाता है। अतः उन्हें उतना ही सतर्क भी रहना होगा। सफलता सदैव कीमत चाहती है। जितनी तीव्र गति से ओबामा लोकप्रिय हुए हैं इन अपेक्षाओं के पूरा न होने पर वह उतनी तेजी से गिर भी सकते हैं। उन्हें कदम बहुत फूंक-फूंक कर मगर तीव्र गति से उठाने होंगे। जनता में बहुत अधिक सब्र हो ऐसा कभी लगता नहीं। राजनैतिक परिदृश्य में, कुछ एक गोरे, जिनकी जड़े सदियों से गहरी हैं, उनकी भावनाएं आहत होने पर वे ओबामा और उनके कार्यों को रोकना चाहेंगे। इन भ्रमित लोगों को साथ लेकर चलना इतना आसान नहीं होगा। काले, जो सदियों से दबे और हीन भावना से ग्रसित थे, सड़कों पर अचानक सिर उठायेंगे। शायद यह गोरों को पसंद न आये। कई बार कालों द्वारा कहा गया कोई एक शब्द उन्हें ठेस पहुंचा सकता है। प्रारंभ में, सामाजिक व्यवस्था में इससे टकराव बढ़ेगा। इससे बचना होगा। परिवर्तन की रफ्तार को थमकर जमने देना होगा। अब तक जो हुआ वो एक भावना थी, तीव्र प्रवाह था। उसे यथार्थ के धरातल पर प्रमाणित करना होगा। यहां किसी अश्वेत की जीत से अधिक जॉर्ज बुश जैसे श्वेत की अलोकप्रियता अधिक काम कर गई। अमेरिकी मतदाता परिवर्तन के लिए बेसब्र था। मगर इस परिवर्तन का प्रतिफल आशा के अनुरूप नहीं हुआ तो उनके सब्र का बांध टूट भी सकता हैं। गोरों में, सदियों से उपस्थित वर्चस्व की भावना, अगर अचानक पलट कर आयी तो वे इसका बदला ले सकते हैं। यह संवेदना से भरा हुआ संक्रमण काल है। काले जहां सिर उठायेंगे वहां गोरों को पसंद नहीं आयेगा अतः सामाजिक व्यवस्थाओं में बुद्धिजीवियों को सचेत रहना होगा। मनुष्य जन्म से धार्मिक और भावनाओं में जकड़ा हुआ एक गुलाम इंसान है। कब उसका धर्मभेद, रंगभेद, जातिभेद, क्षेत्रीय भावना उभर जाये पता नहीं। आगे आने वाला समय बराक ओबामा के लिए आसान नहीं। अब यह उन पर निर्भर करता है कि क्या वे इतिहास में एक घटना मात्र बनकर दर्ज होना चाहते हैं या फिर सफल राष्ट्रपति के रूप में जाने जाना चाहते हैं।