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हिन्दी के छात्रों के लिए खुला आसमान
विगत दिवस पंजाब विश्वविद्यालय में बतौर अतिथि अध्यापक जाना हुआ। हिन्दी विभाग के एम.ए. स्तर के छात्रों को पढ़ाना था। विषय था ‘प्रशासन और हिन्दी’। विशिष्ट विषयों पर विशेषज्ञ के तौर पर, विचारों के आदान-प्रदान के लिए छात्रों के बीच जाना मुझे अच्छा लगता है। मैं इस सुखद अनुभव का आनंद उठाता हूं। अब तक प्रबंधन व तकनीकी के छात्रों के बीच जाता रहा हूं और विषय भी आधुनिकता के पैमाने में वही घिसे-पिटे। अधिकांश में समय का प्रबंधन, व्यक्तित्व का विकास, सफलता के सिद्धांत, प्रचार-प्रसार या फिर प्रबंधन के गुर, इन्हीं विषयों पर चर्चा की जाती रही है। यह पहला मौका था जब हिन्दी के वरिष्ठ छात्रों के मध्य उन्हीं की भाषा को लेकर चर्चा करनी थी। अतः यह मेरे लिये जोखिम भरा हुआ हो सकता था। छात्रों में मुझसे बातचीत करने की उत्सुकता थी या नहीं, पूर्वानुमान लगाना मुश्किल ही नहीं अव्यवहारिक भी होगा। मगर मैं बहुत उत्साहित था। हां, कक्षा के प्रारंभ होने के बावजूद जब काफी देर तक छात्रों का आना निरंतर जारी रहा तो मैंने अपनी नाराजगी बातों ही बातों में प्रकट की थी। यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। ऐसे में एकाग्रता एवं विचारों की निरंतरता भंग होती है। छात्रों की यह कोई अच्छी आदत नहीं। बहरहाल, इन दृश्यों को इस उपमहाद्वीप के हर दूसरे कालेज की कक्षाओं में अमूमन देखा जा सकता है। इसे सीधे-सीधे अनुशासनहीनता से जोड़ना ठीक नहीं होगा। इसे हमारा व्यवहार और जीवन पद्धति, कुछ हद तक संस्कृति का एक अंग कहा जा सकता है। यह हमारे आचरण में आ चुका है। समय की महत्वता को लेकर हमारी ओर से कहीं न कहीं कमी है। खैर, मेरे द्वारा अप्रसन्नता जाहिर करना, कुछ एक छात्रों को आगे समय पर आने के लिए शायद प्रेरित करे। यह जानते हुए भी कि एक अतिथि अध्यापक को इसका सीधे-सीधे फायदा नहीं मिलेगा फिर भी मैं उन्हें टोकने से अपने आप को रोक न सका। अपने प्रारंभिक जीवन के अध्यापन के छोटे से अनुभव से इतना जरूर कह सकता हूं कि शिक्षक के धीरे ही सही मगर निरंतर प्रयास से छात्रों में अनुशासन पसंद किया जाने लगता है और वे आपकी ओर आकर्षित होते हैं। सवाल है तो सिर्फ पहल की।
एक बात जिसने सर्वप्रथम मेरा ध्यान आकर्षित किया था वो थी कि तकरीबन पचास विद्यार्थियों के बीच मुश्किल से पांच छात्र थे। छात्राओं की संख्या इतनी अधिक थी कि मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। इसका सीधे-सीधे कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी मगर यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी भाषा में उच्च शिक्षा प्राप्त करना पुरुष छात्रों के बीच लोकप्रिय नहीं। इसे कहीं न कहीं रोजी-रोटी से हिन्दी की दूरी को जोड़कर देखा जा सकता है। परंतु छात्रों के बीच इस तरह की आम धारणा आज के संदर्भ में गलत है। आज पत्रकारिता, विज्ञापन, स्वतंत्र लेखन, मीडिया, कॉल सेंटर इत्यादि क्षेत्रों में हिन्दी की जबरदस्त मांग है। इसकी सूचना व जानकारी सही तरीके से छात्रों के बीच न पहुंच पाना एक कारण हो सकता है। इस बात की सत्यता व प्रमाणिकता जानने के लिए मैंने भी कुछ सवाल पूछे थे। इस सवाल पर कि कितने छात्रों की पहली पसंद हिन्दी में एम.ए. करना थी, एक बार फिर मेरी उम्मीद के विपरीत पचास प्रतिशत के आसपास छात्रों ने हाथ उठाया था जिसमें से अधिकांश छात्राएं थीं। मैं कम की उम्मीद कर रहा था। अर्थात हिन्दी के प्रति प्रेम भी है और जागरूकता भी। तो फिर महिला वर्ग में भाषा के लोकप्रिय होने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? कहीं भाषा अपनी सरलता के कारण छात्राओं को अधिक आकर्षित तो नहीं करती? यह सवाल भी मन में उभरा कि कहीं रचनात्मकता के कारण भाषा में महिलाओं की अधिक भागीदारी तो नहीं? शायद कुछ हद तक। मगर फिर सवाल उठता है कि लेखन में महिलाओं का प्रतिशत आज भी बहुत कम क्यूं? यह एक गुत्थी हो सकती है। मगर अंदरूनी सत्य है कि शादी के बाद की पारिवारिक व्यवस्था के लिए यह सबसे उपयुक्त डिग्री हो सकती है। और इस तरह की अवस्था भारतीय समाज में पिछले कई दशकों से देखी जा सकती है जहां अच्छे-खासे पढ़े-लिखे परिवार की स्त्रियां विभिन्न भाषाओं में एम.ए. किये हुए मिल जाएंगी। मुझे याद पड़ता है कि मेरे कई वरिष्ठ अधिकारी, जिनकी शादी पचास और साठ के दशक में हुई होगी, की पत्नियां एम.ए. हिन्दी में थीं। इस आब्जर्वेशन का विश्लेषण कितना सही है, पता नहीं। मगर फिर छात्रों की संख्या देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि समाज के तथाकथित विकास और महिलाओं की प्रगति के साथ-साथ हिन्दी का स्थान अभी भी बरकरार है। अर्थात हिन्दी की भी भागीदारी है।
नये स्थान व नये लोगों का साथ मिलने पर अधिक से अधिक जानकारी लेने के फिराक में मैं रहता हूं जिसका सही-सही सदुपयोग अपने स्तंभ में कर सकूं। नये-नये मुद्दों पर चर्चा कर सकूं। पाठकों को नयी से नयी जानकारी दे सकूं। एक नया विश्लेषण, एक नया दृष्टिकोण। इसी कारण से विशेषज्ञ अध्यापन के दौरान कुछ एक सवाल अपनी ओर से पूछ लेता हूं जिनका कई बार विषय से सीधा संबंध नहीं होता। इसे फीडबैक के रूप में भी लिया जा सकता है। मेरा अगला सवाल था कि कितने छात्र संघ लोक सेवा आयोग की राष्ट्रीय स्तर की सेवा में या फिर राज्य स्तर की प्रशासनिक और अन्य श्रेष्ठ प्रतियोगिताओं में भाग लेंगे। उठाये गए हाथों की संख्या ने अत्यधिक निराश किया था। मुश्किल से चार-पांच छात्र थे। उनके हाथ उठाने में भी आत्मविश्वास की कमी दिखाई दे रही थी। यहां प्रश्न किया जा सकता है कि अगर समाजशास्त्र, इतिहास, अंग्रेजी और इसी तरह के अन्य क्षेत्र के छात्र कई बार दूसरे विषयों के माध्यम से भी विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेकर सफल होते हैं तो हिन्दी के छात्र क्यों नहीं? अमूमन इसी तरह की तसवीर अन्य विश्वविद्यालयों व कॉलेज में भी देखी जा सकती है। इसके लिए हिन्दी के छात्रों में आत्मविश्वास की कमी, अन्य विषयों का अध्ययन न करना, दुनिया के बारे में कम जानकारी रखना एवं सूचना की कमी भी कहीं न कहीं कारण है। इन छात्रों के व्यक्तित्व या बुद्धि में कमी हो ऐसा मैं नहीं मानता। सारे उच्च अधिकारी अत्यधिक कुशाग्र बुद्धि के होते हों, ऐसा भी जरूरी नहीं। अन्य विषयों से भी कई सामान्य स्तर के छात्रों को ऊंचे-ऊंचे पदों पर पहुंचते देखा गया है। परंतु यहां तो पचास में से मात्र पांच छात्रों का प्रतियोगिता में बैठने के बारे में सोचना, अर्थात इतने कम प्रतिशत के प्रयास के परिणाम भी तो कम ही होंगे। इस तरह से हिन्दी की हिस्सेदारी उच्च पदों पर कम ही होगी। अगर सभी पचास छात्र इसमें बैठते हैं तो सफलता की संभावना के बढ़ने की गुंजाइश तो रहती ही है।
अपने विषय पर मेरी टिप्पणी मूल रूप से बड़ी संक्षिप्त थी। प्रशासन में हिन्दी है भी और नहीं भी। प्रशासनिक अधिकारी आपस की बातें, गपशप, मनोरंजन हिन्दी या फिर अपनी स्थानीय भाषा में ही करते हैं। यहां तक कि मीटिंग में हल्के मूड में इनका ही प्रयोग होता है। मगर फाइलों में हिन्दी लगभग गायब है।
बाजार ने हिन्दी के लिए बहुत बड़ी संभावना खोल दी है। कई रास्ते खुल गए हैं। अन्यथा पूर्व में हिन्दुस्तान में इसके उभरने के कोई संकेत नहीं थे। मीडिया, विशेष रूप से हिन्दी समाचारपत्रों की संख्या व टेलीविजन चैनलों की भरमार यह दर्शाती है कि हिन्दी में जबरदस्त प्रचार-प्रसार हुआ है। मगर यह अब तक सिर्फ संख्या में है गुणवत्ता में नहीं। इनके स्तर को सुधारने के लिए हिन्दी भाषी छात्रों को दूसरे विषयों का ज्ञान प्राप्त कर इन क्षेत्रों में कूदना होगा। आज विज्ञापन और लेखन के क्षेत्रों में अंग्रेजी पढ़े-लिखे लेखक, टूटी-फूटी हिन्दी में अनुवाद करके लाखों रुपया कूट रहे हैं। ऐसे में हिन्दी भाषा में उच्च शिक्षा प्राप्त छात्र पत्रकारिता, सृजनात्मक कला, कंप्यूटर जैसे विषयों का अतिरिक्त ज्ञान लेकर अपनी रोजी-रोटी का बेहतरीन इंतजाम क्यों नहीं कर सकते। बात सिर्फ इतनी-सी है कि हिन्दी को शास्त्रों की जकड़ता से निकालकर कक्षाओं की दीवारों से बाहर ले जाना होगा। जहां वह खुले में सांसें ले सके और स्वतंत्र होकर अपना विकास कर सके। जब अंग्रेजी में हर तरह के प्रयोग हो सकते हैं तो हिन्दी में क्यों नहीं। जब हिन्दी के शब्द रोमन में लिखकर लोगों को घोंट-घोंट कर पिलाया व पढ़ाया जा रहा है तो अंग्रेजी के शब्दों को देवनागरी में लिखना कौन-सा गुनाह वाला काम है। हिन्दी को स्वतंत्र रूप से घूमने दो, इसके छात्रों की कुछ एक सफलताएं इनके आत्मविश्वास को बढ़ाएंगी और फिर एक बार इसने रनवे पर दौड़ना शुरू किया तो फिर सीधे आकाश में ऊंचाइयों पर उड़ेगी। इस क्षेत्र में हिन्दी के अध्यापकों का बहुत बड़ा योगदान हो सकता है। वे अपने छात्रों का भविष्य अपनी छोटी-सी कोशिश से उज्ज्वल कर सकते हैं।