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आर्थिक मंदी का दौर
छोटी बेटी ने सेंसेक्स के गिरने और आर्थिक मंदी पर उठे बवाल पर, मीडिया में पढ़ते-सुनते, अंत में थक कर एक सवाल पूछ ही लिया कि बाजार का पैसा तो कहीं न कहीं बाजार में ही रहता होगा तो फिर इतना हा-हाकार क्यूं? और ये मंदे का फंडा क्या है? मैं कोई आर्थिक विशेषज्ञ नहीं। अर्थशास्त्र के कठिन छोड़, साधारण शब्दों का भी सही ज्ञान नहीं। इसके लिए कोई विशेष पढ़ाई भी नहीं कर रखी। बस सेंसेक्स के गिरने और चढ़ने को वर्षों से सुनता आ रहा हूं। आर्थिक मंदी, मुद्रास्फीति, मुक्त बाजार, लिक्विडिटी, रिजर्व कैश रेश्यो, सूचकांक जैसे शब्द सुन-सुन कर इनकी परिभाषाएं खुद ही गढ़ता रहा हूं। अब इसे मेरा डर व कमजोरी कहें या फिर नये बाजार पर अविश्वास, मैं अब तक शेयर बाजार में हाथ न डाल सका। मेरी छोटी-सी बुद्धि ने इसे सदैव जुआ ही समझा। क्योंकि आज भी मैं बिना किसी मेहनत के कमाए गए पैसे को सट्टे से अधिक नहीं समझ पाता। और बड़े-बुजुर्गों की एक और बात पर मैंने विश्वास बनाए रखा है कि लोन कुछ और नहीं कर्ज ही है और इससे शरीफ व सज्जन मनुष्य को बचना चाहिए। इसके पढ़ते ही मेरा विकास विरोधी होना करार दिया जा सकता है। मगर मैं आज भी खुश हूं, इसीलिए न तो सेंसेक्स के गिरने से मेरा चेहरा उतरता है और न हीं इसके चढ़ने से मेरी छाती फूलती है। हां, दो वक्त की रोटी के अलावा बाकी आवश्यक आधुनिक जरूरतें आराम से पूरी हो रही हैं। और एक गाड़ी व एक मकान के अतिरिक्त दूसरे की चाहत नहीं। क्योंकि मुझे यह पता है कि मैं एक समय में एक ही घर में रह सकता हूं और कहीं आने-जाने के लिए एक से अधिक गाड़ी की कोई आवश्यकता नहीं। और फिर दो, तीन, चार, कितनी गाड़ियां? इसका तो कोई अंत नहीं। मेरी इस दकियानूसी बातों से विकास दर पर बातें करने वाले लोगों को धक्का लगेगा और मेरी हंसी उड़ाई जाएगी। कहा जाएगा कि इसे आगे बढ़ना नहीं आता। लेकिन मैं कम से कम आराम और शांति की जिंदगी हर हाल में जीता रहूंगा। और अगर हिन्दुस्तान पर इस आर्थिक मंदी का असर कम पड़ा तो इसका एकमात्र कारण है कि यहां का बहुसंख्यक आज भी इसी विचारधारा के साथ जीता है।
बहरहाल, बेटी की जिज्ञासा को शांत करना आवश्यक था, नहीं तो उसके विश्वास को धक्का लगता। परंतु मैं उसे झूठ भी नहीं कहना चाहता था और सच कहने के लिए किताबी ज्ञान की कमी थी। तो मैंने अपने सामान्य ज्ञान व अनुभवों का एक बार फिर उपयोग किया था। एक स्कूल जाने वाले छात्रा के पूछे गए सवाल में यह बात सत्य थी कि मूल रूप से, बाजार का पैसा कहीं समुद्र में तो जा नहीं सकता। तो फिर कहां गया होगा? और फिर यह सेंसेक्स की गिरावट कैसी? मंदी का दौर कैसा? यह बाजार में निवेशक की भागीदारी का पैमाना है, विश्वास का सूचक है। यह मेरी प्रथम प्रतिक्रिया थी। जो कुछ ही देर में धराशायी हो गयी जब सीधे फिर से पूछा गया कि तो पैसा गया कहां? बाजार में दे दिया गया था। इस उम्मीद से कि वापस आयेगा। मगर आया नहीं और डूब गया। अर्थात कर्जा देने वाले की औकात नहीं देखी गयी। इस बार मैं कुछ-कुछ सटीक था। ठीक है, मगर तुरंत अगला सवाल उठा कि अरबों रुपए!! कहां तो एक आदमी को छोटा-सा कर्ज देने के पहले साहूकार ठोक बजाया करता था तो फिर इतनी बड़ी रकम का डूब जाना? मुझे बोलना पड़ा था कि यह सब ज्यादा से ज्यादा धंधे के चक्कर में हुआ, लालच। तो क्या देने वाले को इतनी भी समझ नहीं थी? नहीं। अंतिम सवाल के जवाब में मैं ठीक निशाने पर था।
असल में आधुनिक अर्थव्यवस्था एक कृत्रिम प्रक्रिया है जिसका अधिक चलायमान होना प्रगति का सूचक है। पैसा जितनी बार घूमेगा उतनी अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। यह पैसे के घूमने का चक्र है और एक समय में एक नहीं कई चक्र चल रहे होते हैं। और इनमें एक ही पैसा कई बार घूम जाता है। और फिर यह इतना जटिल हो जाता है कि हमारे आर्थिक गुरुओं को भी समझ नहीं आता। सब हवा में तैरते रहते हैं। फिर ऐसे ही औंधे मुंह गिर भी जाते हैं। लेकिन जब सभी को अपनी शारीरिक भूख को शांत करने के लिए जमीन से पैदा किए गए अनाज व प्रकृति का ही उपयोग करना पड़ता है तो फिर बाकी के चक्र बनाने की आवश्यकता क्यों? अगला सवाल पूछा गया था। मनुष्य अपनी जरूरतें बनाता है और फिर उसे पूरी करता है। चलिए, मान भी लें कि सभी के लिए काम पैदा करना जरूरी है। तो फिर कहीं ये मंदी भी प्रतीकात्मक तो नहीं जिस तरह पूंजी भी मात्र एक नाम के लिए उपस्थित है, प्रतीक रूप में? और फिर अगर हमने इसे पैदा किया है तो फिर हम ही इसके जवाबदार भी हुए? बिल्कुल ठीक। छोटे से बच्चे की सीधी मगर सरल बात में पूरी तरह से सच्चाई थी। और फिर इसे स्वीकार करने में किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हां, आगे की बहस ने कई जवाब दिए थे। प्रमुख था कि कुछ को नुकसान हुआ है तो यकीनन कुछ को फायदा हुआ होगा। हां, मगर जिसको फायदा हुआ वो तो चुप बैठा है और जो नुकसान में है उसके लिए दुनिया व सरकार परेशान है। शेयर होल्डर डूब गए तो उन्हें रोना नहीं चाहिए। जुए में ब्लाइंड गेम पर हर बार जीत हो जरूरी तो नहीं। अगर कमाया है तो गंवाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। मगर इसका भुगतान करेंगे करदाता। यह विडंबना है। यह सोच गलत है। व्यापारियों की जीत और सामान्य नागरिक की हार। यह एक बार फिर गलत राह है। ऐसा कुछ तो मैं बचपन से सुनता भी आ रहा हूं कि व्यापारी लोग सरकार से, बैंक से और आधुनिक युग में जनता से पैसा लेकर, जमा हुआ धन का एक हिस्सा कहीं और लगा देते हैं और एक दिन अपने आप को दिवालिया घोषित कर देते हैं। ऐसे में सरकार कुछ विशेष नहीं करती। उलटे उन्हें सहयोग करती है। चूंकि वो सरेआम बाजार में मुंह लटका कर खड़े हो जाते हैं कि हम तो बर्बाद हो चुके, जो आपने करना है कर लो। क्या आपने कभी किसी व्यापारी को वास्तव में दिवालिया होते सुना है। उलटे कुछ धोखे की खबर भी पढ़ी जाती रही है जिसमें व्यापारी, लोगों का पैसा लेकर अचानक गायब हो जाते हैं। फिल्मों के माध्यम से यह भी मैंने देखा है और कहीं किसी उपन्यास में पढ़ा भी है कि शेयर मार्केट का दाम बढ़ाने के लिए पहले ऊंचे दाम पर जबरदस्ती कुछ शेयर खरीदे जाते हैं जिससे कि मार्केट का भाव बढ़ जाये, लोग अधिक से अधिक निवेश करें। लेकिन फिर अचानक ही उसे गिरा दिया जाता है। जिसने सौ रुपए के लिए पांच सौ रुपए लगाये हैं, की कीमत अगर सौ से भी नीचे चली जाती है तो ऐसे में उसे चार सौ से अधिक का नुकसान हो जाता है। तो फिर यह चार सौ रुपए कहीं न कहीं किसी न किसी के पास किसी न किसी रूप में तो रहते ही होंगे। चाहे फिर वो दलाल हो या फिर व्यापारी। ऐसा ही कुछ जमीन के व्यापार में भी सुना गया है। कृत्रिम बाजार का प्रभाव होता है जो फ्लैट के दाम दोगुना करा दिए जाते हैं। एक-दो ग्राहक बनाये जाते हैं और फिर उन्हें बाजार में भरपूर प्रचारित किया जाता है। देखा-देखी दो-चार पांच लोग इस गिरफ्त में आ भी जाते हैं। मगर जब पर्याप्त खरीदार नहीं मिलते तो फिर मंदा घोषित कर दिया जाता है। अरे भाई, जब आपने प्रारंभ में ज्यादा रेट रखा है तो ग्राहक कहां से मिलेगा और फिर उसका रेट बाद में कम कर दिया गया तो यह कोई मंदी थोड़े ही है। सेल में बिकने वाले सामान की सोचें। क्या कोई दुकानदार नुकसान में सामान बेच सकता है? कभी नहीं। हां, यहां पर मुनाफा जरूर घटा दिया जाता है।
असल में वॉल स्ट्रीट को या दलाल स्ट्रीट, यहां बैंकों द्वारा ब्याज पर भरपूर पैसा दिया गया, लोगों में लोन जबरदस्त बांटा गया, मगर वापस देने वालों की आर्थिक क्षमताओं को सही-सही नहीं आंका गया। सिर्फ अंदाज लगाया गया कि बाजार मजबूत होगा और कर्जदार देनदारी निभायेगा। मगर पैसा लौटकर वापस आया नहीं और बैंक बर्बाद हो गए। अर्थात जबरदस्ती का बाजार बनाया गया था। मगर किसलिये? यह सीधे-सीधे अव्यवस्था है। चाहे फिर जो भी कहा जाए। बड़े-बड़े अर्थशास्त्री अपनी थ्योरी लेकर कहां गए? लाखों-करोड़ों का पैकेज लेने वालों से यह सवाल तो पूछा जा सकता है यह सब हुआ कैसे? तुम क्या कर रहे थे? यह जबरन मायाजाल फैलाने की आवश्यकता? इतने झूठ का बाजार क्यों? क्या उन्हें इतनी भी समझ नहीं थी? कठोर व सीधे शब्द कहने पर कई डिग्रीधारियों ने अंग्रेजी के लफ्फाजों में यह कहकर टाला होगा कि आपको बाजार की समझ नहीं? ज्यादा पूछने पर इतना जरूर कहा जाएगा कि हालात सुधर जाएंगे। इन बातों को मान भी लें तो इसका कोई जवाब नहीं था कि ये गोरख-धंधा जब वर्षों से चल रहा था तो सब जानकर भी सभी आंखें मूंदे क्यूं मस्त थे? अनजान होना बताकर अपनी जवाबदारियों से छुटकारा नहीं मिल सकता। ऐसा हो नहीं सकता कि कोई किसी फायदे के बिना यह सब वर्षों से कर रहा हो। अगर वो परिणाम से अनजान थे तो ऐसे मूर्खों को करोड़ों देकर शीर्ष पद पर बैठाने की क्या आवश्यकता। और अगर स्वार्थी और लालची थे तो उन्हें उसके गलत कार्यों की सजा मिलनी चाहिए। इससे अधिक अर्थव्यवस्था की मुझे जानकारी नहीं। और मैं जानना भी नहीं चाहता। चूंकि किसी की गलती की सजा कोई और क्यों भुगते।