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पूरब से पश्चिम उत्तर से दक्षिण
विगत माह ऐसा कुछ संयोग हुआ कि मुझे भारत की चारों दिशाओं में, एक के बाद एक, क्रमशः जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। सर्वप्रथम पश्चिम में अहमदाबाद फिर दक्षिण में चेन्नई बाद में पूर्व में गुवाहटी व शिलांग और आखिर में उत्तर में शिमला। इन सभी शहरों की अपनी विशिष्ट संस्कृति है, अपनी विशिष्ट भाषा, अपना विशिष्ट रहन-सहन व खान-पान। सही मायने में सभी की अपनी एक विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान है। लेकिन फिर भी कहीं न कहीं यह अहसास अवश्य होता है कि हम एक ही राष्ट्र में घूम रहे हैं। इसे संचार क्रांति की देन भी कह सकते हैं कि अब हर तरह का भोजन, हर प्रांत के लोग, हर एक वेशभूषा हर जगह दिख जाती है। बहरहाल, हिन्दी फिल्मी गानें, बॉलीवुड की नायक-नायिका, इन सभी जगहों पर समान रूप से उपस्थित मिलेंगे। हां, विशिष्ट नाक-नक्श वाले स्थानीय चेहरे, जिनकी भाषा, खान-पान व वेशभूषा का प्रभाव अलग से दिखता है, प्रमुखता से इन क्षेत्रों की पहचान बरकरार रखने में सहायक हैं। और यह स्वाभाविक है और दिखना व होना भी चाहिए। वैसे भी इन क्षेत्रीय संस्कृति का प्रभाव इतना असरदार होता है कि बाहर से आकर बसे लोग भी इसमें रच बस जाते हैं। मगर यह इतना सहज होता है कि इसमें भी कहीं न कहीं समरसता होती है। चेन्नई में यह बेशक कुछ कम हो लेकिन बाकी तीनों दिशाओं में हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में धड़ल्ले से प्रयोग की जाती है। यहां स्थानीय लोगों द्वारा अपनी-अपनी भाषा के अतिरिक्त बड़ी सहजता से हिन्दी का प्रयोग किया जाता है। बाहर से आने वालों के लिए भाषा द्वारा उत्पन्न विवशता चेन्नई में देखी जा सकती है। दूसरे प्रांत से आने वालों को यहां थोड़ी मुश्किल होती है। संपर्क स्थापित करवाने में अंग्रेजी भी यहां असफल ही है। विदेशी भाषा सामान्यजन के लिए कठिन बन पड़ती है। चूंकि स्थानीय टैक्सी ड्राइवर, दुकानदार व मजदूर के लिए पर्यटक से बातचीत मुश्किल कार्य है, परिणामस्वरूप इसका खमियाजा दोनों पक्ष को भुगतना पड़ता है। राजनेता अगर इस व्यवहारिकता को समझ सकें और इस बात पर गौर करें तो आम जनता की भलाई होगी। प्रथम स्थान स्थानीय भाषा का होना ही चाहिए और उसके बाद ही सही मगर उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि किसी दूसरी भारतीय भाषा को ही संपर्क भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाना अधिक आसान और लाभदायक होता है। क्योंकि तकरीबन एक-सी सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी होने के कारण यह आसानी से बोली व समझी जा सकती है।
अहमदाबाद का प्रवास राजनैतिक रूप से आंख खोलने वाला था। पत्रकार, मीडिया तथा तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग नरेंद्र मोदी के खिलाफ चाहे जितना सत्य-असत्य कहें, परंतु यह पूर्णतयः सच है कि वे आज की तारीख में एक लोकप्रिय जननायक हैं। गुजरात की आम जनता उन्हें बेहद पसंद करती है। यह देखकर हैरानी होती है कि महिलाओं और बच्चों में वे अधिक लोकप्रिय हैं। ड्राइवरों और मजदूरों से संपर्क करने में यह आसानी से समझा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी के अलावा वे किसी और को क्यूं नहीं चाहते। हाल ही में हुए चुनाव परिणाम इसका सबूत हैं। इतने वर्षों से शासन में होने के बावजूद आज भी वहां की जनता में उनके अच्छे कामों की प्रशंसा की जाती है। किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रनेता के लिए यह अति आवश्यक है कि लोग उसे समझें और पसंद करें। उनकी छवि प्रभावशाली व्यक्ति के साथ-साथ मजबूत इरादों व अनुशासनप्रिय प्रशासक के रूप में मानी जाती है। अन्य नेताओं के लिए यह सीख है जो सिर्फ सरलता बनाए रखते हैं और जनता को केवल खुश करने के प्रयास में लगे रहते हैं।
चेन्नई देश के चार महानगरों में से एक है। ध्यान से देखें तो मुम्बई और दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई के बनिस्बत कहीं न कहीं आगे निकलते प्रतीत होते हैं। कोलकाता और चेन्नई के पिछड़ने के पीछे कहीं न कहीं इनके स्थानीय तत्व अधिक जवाबदार हैं। जबकि तमिल व बंगाली भाषी सामान्यतः अधिक बुद्धिजीवी होते हैं एवं विशिष्ट क्षेत्रों पर आज भी प्रमुखता से राज करते हुए देखे जा सकते हैं। बहरहाल, चेन्नई एक प्राचीन एवं विशाल शहर है। इसकी अपनी विशिष्ट संस्कृति और लंबा पुराना सशक्त इतिहास है। स्थानीय जनता जागरूक है। तमिल फिल्मों का प्रभाव जनमानस पर देखते ही बनता है। रजनीकांत आम आदमी के हीरो हैं। ÷मैरीना बीच’ काफी लंबी और देखने लायक है। अंत में जो सबसे महत्वपूर्ण है कि अन्य पुराने व बड़े बंदरगाह की तरह यहां भी पोर्ट सिटी होने के सभी लक्षण दिखाई देते हैं।
पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्थित गुवाहटी के इतने बड़े शहर होने की कल्पना कम से कम मैंने नहीं की थी। लेकिन सात राज्यों के प्रवेशद्वार के रूप में स्थापित होने की वजह से उसका इतना विशाल होना व्यवहारिक जान पड़ता है। नदियों में एकमात्र पुलिंग ब्रह्मपुत्र एवं शक्तिपीठ में महाशक्ति पीठ कामाख्या देवी के लिए प्रसिद्ध गुवाहटी अपने आप में सांस्कृतिक रूप से भी एक विशिष्ट स्थान रखता है। असमिया संगीत, भाषा, साहित्य व कला सशक्त है। इसकी लंबी परंपरा है। यह जन-जन में रचा-बसा है। इसकी विश्व में पहचान है। हिन्दू धर्म पर यकीन करने वालों के लिए गुवाहटी स्थित कामाख्या देवी का मंदिर विश्व की तमाम मानवता के उद्गम का केंद्र है चूंकि यहां माता की योनि उपस्थित है। एक ऐसा मंदिर जिसका गर्भस्थल बहुत हद तक अंधेरे में रखा जाता है सिर्फ इसलिए कि मां जननी के जननांग यहां उपस्थित हैं, सुनते ही मन एक बार फिर श्रद्धा से झुक जाता है। इस श्रद्धा और आस्था को किसी और के ऊपर थोपने की कदापि इच्छा नहीं। लेकिन मां का मुझ पर इतना प्रभाव है कि उसने धीरे-धीरे मेरी स्वर्गीय माता का स्थान ले लिया। जो कि इस दुनिया से जल्दी चली गयी थी। मातेश्वरी के साथ, उनके हर रूप में, मैं ठीक उसी तरह से हठ करता हूं जैसा कि एक बालक अपनी मां के साथ कर सकता है। उसे अपनी मां मानने मात्र से ही शक्ति व उत्साह का संचार होने लगता है। यह मेरी एकाग्रता को, चिंतन को, मन की मानवीयता को बढ़ाने में सहायक है। मुझे इसमें कोई शक नहीं। जिसे ईश्वर पर विश्वास है उसे इस मंदिर में विशिष्ट तरंगों का अहसास होगा। असल में भी कुछ तो है ही जो इस विश्व को संचालित करता है, तो उसे प्रतीक रूप में स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं। यहां पैसों के हिसाब से 100 रुपये व 500 रुपये की अलग-अलग पंक्तियां लगती हैं। जिनको कुछ न कुछ कहना है उनके लिए यह भी एक बिंदु हो सकता है। जबकि यह व्यवस्था व्यवहारिक जान पड़ती है। जिसके पास समय की कमी है वो 500 रुपये देकर सीधे मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।
शिमला, जहां पूर्व में वर्षों पदस्थ रह चुका हूं, के सौंदर्य के लिए कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं। सिवाय इसके कि हिमालय के दर्शन के बाद बाकी सभी पर्वत-पहाड़ बौने लगने लगते हैं। चाहे वो फिर देश का अन्य पहाड़ी क्षेत्र हो या विदेश की कोई भी पर्वत श्रृंखला। शिमला, तीव्र गति से फैल रहे कंक्रीट जंगल, बेतहाशा भाग रहे ट्रैफिक व पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के बावजूद आज की तारीख तक भी सुंदर और आकर्षक लगता है। यह अब भी पहाड़ों की रानी है।
लेखन में होने के बड़े फायदे हैं। हर स्थान पर कोई न कोई मिल जाता है। वो या तो अपना पाठक होता है या फिर साथी लेखक। अहमदाबाद में तरकश मीडिया समूह के मालिक संजय बैगानी, जिनके लिए पिछले कई वर्षों से मैं लिख रहा हूं, ने पूरे शहर को चंद घंटों में देख सकने में मदद की तो गुवाहटी के असमिया लेखक व लोकप्रिय अनुवादक किशोर जैन ब्रह्मपुत्र के सौंदर्य को पहाड़ की कई चोटियों से दिखाने ले गए। एक क्षेत्रीय प्रमुख दैनिक अखबार के सलाहकार संपादक विनोद जी से चर्चा में पूर्वोत्तर क्षेत्र का वृहद् दृश्य आंखों के सामने तैर गया। वे संवेदनशील साहित्यकार भी हैं। किसी स्थानीय व्यक्ति के साथ होने से बहुत-सी मुश्किलें आसान हो जाती हैं और कम समय में महत्वपूर्ण स्थल, अधिक उपयोगी चीजें देखी व समझी जा सकती हैं। संजय और किशोर दोनों ही सरल व्यक्तित्व के धनी हैं। इसे संयोग ही कहेंगे कि दोनों ही मारवाड़ी हैं और देश की दो दिशाओं में परिवार सहित सफलतापूर्वक शांति से रह रहे हैं। तो फिर यही तो भारत है।