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हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है
न्यूटन ने जब भौतिकी के इस सिद्धांत की खोज की होगी कि हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है, तब उनके जेहन में शायद न आया हो कि यह न केवल विज्ञान में बल्कि मनुष्य और समाजशास्त्र में भी उतना ही सत्य और प्रमाणिक है। हो सकता है यही बात पूर्व में भी कही गई हो। वैसे हर वैज्ञानिक दार्शनिक भी होता है। चाहे फिर वर्तमान के भौतिक शास्त्री हॉकिंस हों या पुराने आइनस्टीन, दोनों ही विद्वान, विचारक व चिंतक हैं। असल में मनुष्य हर क्रिया पर अपनी प्रतिक्रिया देता है और उसके द्वारा बनाए गए समाज में भी इसे आसानी से देखा जा सकता है। यह दीगर बात है कि यह कभी भाव में कभी शारीरिक या मानसिक तो कभी मौखिक या लिखित रूप में प्रदर्शित होती है। कभी-कभी किसी मनुष्य में यह निष्क्रिय समझी जाती है मगर असल में यह किसी और रूप में निकल रही होती है। हां, यह सकारात्मक या नकारात्मक और समय के पैमाने पर देर-सवेर हो सकती है। बस आवश्यकता है तो एक विशिष्ट दृष्टिकोण की जो सब कुछ अपने अंदर समेट कर देख सके।
आतंकवाद आज सुर्खियों में है। मीडिया, राजनेता, पुलिस, प्रशासन, उद्यमी से लेकर आम पाठक, हम सब चिंतित हैं। सभी की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं हैं। और फिर जैसा सिद्धांत है कि इन प्रतिक्रियाओं की पुनः प्रतिक्रिया होगी और यह सिलसिला चल पड़ेगा। और अंत में आतंकवाद का साम्राज्य और तीव्र गति से फैल जाएगा। हम सब चाहते हैं कि आतंकवाद दूर किया जाए मगर जाने-अनजाने में ऐसी प्रतिक्रियाएं कर रहे हैं जो उसे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती चली जा रही हैं। हम समझ नहीं रहे कि आतंकवाद का मूल कारण क्या है। उलटे अपनी-अपनी बुद्धि, सोच और स्वार्थ के तहत तुरंत प्रतिक्रिया जरूर कर रहे हैं। मीडिया चीख रहा है। राजनेता आपस में लड़ रहे हैं। पुलिस परेशान है। प्रशासन दुविधा में है तो बुद्धिमान शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है और कुछ एक तो बड़ी चतुरता से आतंकवादियों के पक्ष तक में तर्क देने लग पड़े हैं। यह सब देख आमजन भयाक्रांत और गुस्से में है। लोग खुलकर बोलने लग पड़े हैं। मगर यहां सिर्फ राजनीतिज्ञों को दोषी ठहराना ठीक नहीं। चूंकि वो हमारा ही चुनाव हैं। अधिकांश कहते हैं कि और अधिक सख्त कानून होना चाहिए। तो पूछा जाना चाहिए कि क्या अब तक कानून कमजोर था? क्या इसने आतंक को पैदा किया? यकीन मानिए जितना सख्त कानून होगा उतना ही पलट कर वापस आएगा। पाठक यहां पर भी तुरंत प्रतिक्रिया जाहिर न करें और लेख खत्म होने का इंतजार करें। लेखक का यह मत कदापि नहीं है कि कुछ भी न किया जाए। मकसद सिर्फ इतना है कि कोई ऐसी प्रतिक्रिया न की जाए जिसकी उतनी ही तीव्रता से पुनः प्रतिक्रिया हो, बल्कि ऐसी क्रिया की जाए जिसकी प्रतिक्रिया हो भी तो समाज के लिए गुणात्मक, फलदायी, सकारात्मक, कल्याणकारी हो। बस हमें इतना ही जानना होगा कि वो क्रियाएं कौन-सी हैं।
यह सत्य है कि भारतीयों ने बहुत सब्र किया। यह उनका स्वभाव भी है। मगर आज आम नागरिक सख्त प्रतिक्रिया दे रहा है। इसका मतलब ही है कि मामला गंभीर है। प्रारंभ में अल्पसंख्यक ने पहचान और अस्तित्व की रक्षा के नाम से धार्मिक कट्टरता को बढ़ाया है और कोई प्रतिरोध न मिलने पर उसे और अधिक तीव्र किया। लेकिन अब बहुसंख्यक के प्रतिक्रिया से बात बिगड़ रही है। हमें यहां ध्यान देना होगा कि सामने वाले की तरह खुद बन जाना या उसी तरह व्यवहार करना, जैसा कि कुछ संगठन करने की कोशिश में हैं, इस विवाद का समाधान नहीं हो सकता। कुछ पल के लिए ऐसा महसूस हो सकता है कि हमने बदला ले लिया या डरा दिया। मगर यह सत्य नहीं है। सामने वाला इससे आगे बढ़कर प्रतिक्रिया करेगा। हां, गलत चीज का मजबूती से विरोध जरूर होना चाहिए। वो भी प्रारंभ से ही। कोई कहता है दोनों धर्मों के कुछ विशिष्ट संगठनों को प्रतिबंधित किया जाए। क्या इस तरह के शासकीय प्रतिबंध से संस्थाएं बंद हो जाती हैं? नहीं। उलटे उन्हें एक अनावश्यक प्रचार और प्रसार मिलता है जो फिर कालांतर में किसी दूसरे नाम से अधिक बलशाली होकर समाज में अधिक स्वीकार्य हो जाती हैं। राजनेताओं के अपने स्वार्थ हैं। सत्ता हथियाने के लिए उन्हें अपनी-अपनी तरह की प्रतिक्रियाएं आवश्यक हैं। ऐसे में वे कुछ ऐसी क्रियाएं करवाना चाहेंगे कि अंत में उन्हें फायदा मिले। ऐसा करने में वे अक्सर भूल जाते हैं कि क्रिया-प्रतिक्रिया एक भस्मासुर है जो फिर एक दिन इन्हें ही भस्म कर देगी। कुछ लोग कहते हैं इंटेलिजेंस बढ़ाओ, अधिक साधन और उपकरण पुलिस को मुहैया करवाओ। ठीक है जरूरी भी है। मगर क्या पूछ सकता हूं कि इससे क्या होगा? इतना तो मैं भी जानता हूं कि आतंकवाद की कुछ कार्रवाई होने से पहले ही रोक ली जाएगी। फिर भी कुछ एक तो हो ही जायेंगी। अतः यह एक अंतरिम व्यवस्था हो सकती है समाधान नहीं। असल में इंटेलिजेंस फिर काउंटर इंटेलिजेंस एक चक्र है जो कभी खत्म नहीं होता। जैसे हम बुखार का सतही इलाज करते हैं मगर उसे जड़ से नहीं हटाते, ऐसे में बुखार दब तो जाता है मगर शरीर में कोई और रोग बनकर अधिक तीव्रता से उभरता है। शिक्षा दी जा रही है कि सामान्य जनता को आतंकवाद के विरोध में चौंकन्ना होना चाहिए। ठीक है मगर किस हद तक? गोया की वह जिंदगी जीने के बदले सुबह से शाम तक यही देखता रहे कि रास्ते में संदेह वाला कोई सामान तो नहीं। रात-दिन ताक-झांक करता रहे कि पड़ोस में रहने वाला कोई आतंकवादी तो नहीं। यह नुस्खे भी कुछ समय के लिए रोकथाम हैं स्थायी समाधान नहीं। तो क्या हम मुसीबत को बने रहने देना चाहते हैं? अर्थात सभी की दुकान चलती रहे। सुनकर ही अजीब हास्यास्पद लगता है।
तो फिर सवाल उठता है कि इस आतंकवाद को रोकने के लिए क्या किया जाए? ध्यान से देखें तो यह खुद एक प्रतिक्रिया है। असल में यह असंतोष है। तो फिर क्रिया क्या है? समाज में पैदा की गयी असमानता। फिर चाहे वो आर्थिक हो, सामाजिक, राजनैतिक या फिर धार्मिक। विज्ञान और मुक्त अर्थव्यवस्था ने बहुत कुछ दिया, लेकिन साधन और साधनविहीन, समाज को दो वर्गों में बांट दिया। इसे हम क्यों नहीं समझते। हम देश में कुछ एक रईस क्यों पैदा होने देते हैं? ग्लैमर की चकाचौंध को क्यूं बढ़ाया जाता है? जिसे देख-देख कर कुछ लोग भड़कें। यही रईस फिर अपनी सुरक्षा व हित साधने के लिए पैसा देकर राजनीति फैलाते हैं। युवा इनकी तरह बनना चाहते हैं। हम गली के उन छुटभैया नेताओं को शुरुआत में ही क्यों नहीं रोकते जब वे धर्म, भाषा, क्षेत्र और संस्कृति के नाम पर गली-गली जहर उगलते फिरते हैं। उन्हें क्यूं पनपने दिया जाता है? मुम्बई में एक चतुर नौजवान के द्वारा जो कुछ किया जा रहा है क्या वो आतंकवाद नहीं है? चंद मुट्ठीभर लोगों ने बिना वजह शहर में आतंक फैला रखा है और हम सब इसे चुपचाप स्वीकार कर रहे हैं। दिल्ली के बम धमाकों पर तो प्रतिक्रियाएं कर रहे हैं मगर इस पर चुप हैं। क्यों? दूसरी ओर ईसाईयों पर कर्नाटक, उड़ीसा में हमले हो रहे हैं। इसे कुछ लोग धर्मांतरण के विरोध में प्रतिक्रिया कहते हैं। हो सकता है यह बात ठीक हो, मगर फिर इसकी भी तो प्रतिक्रिया होगी। और फिर धर्मांतरण को रोकने वाले रंग, जाति, क्षेत्र और अर्थ में बंटे बहुसंख्यक धर्म को स्वयं के घर को भी ठीक करना होगा। ठीक इसी तरह धर्मांतरण कराने वाले को भी यह स्वीकार करना होगा कि उनके इस कृत्य के विपरीत प्रतिक्रिया अवश्य होगी। उन्हें यह समझना होगा कि धर्म के बदल देने मात्र से मनुष्य की समस्या खत्म नहीं होती। मगर वो ऐसा क्यूं सोचेंगे? इससे उनकी दुकान कैसे चलेगी? तो फिर आग से खेलने पर हाथ तो जलेगा ही। आज मुस्लिम समाज के खिलाफ जिस तरह की भावना विश्वभर में बनती चली जा रही है वह भी एक प्रतिक्रिया है। मगर यह ठीक नहीं। विश्व के ठेकेदार फिर चाहे वो अमेरिका, रशिया या चीन हो, आज अफगानिस्तान, चेचन्या और तिब्बत का रोना रो नहीं सकते। इन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते। क्योंकि यह उन्हीं की किसी क्रियाओं के फलस्वरूप पैदा हुई प्रतिक्रियाएं हैं। जो किया है उसे भोगना तो पड़ेगा ही।
राजनेता, फिल्म अभिनेता, व्यवसायी यह अपने-अपने धंधों में लिप्त लोग हैं इनसे उम्मीद नहीं की जा सकती। जहां तक रही धर्म की बात तो समाज के प्रारंभ से यह सभी मुश्किलों के मूल में रहा है। नये धर्म ने अपने प्रचार-प्रसार के लिए हमेशा कट्टरता पैदा की और पुराने ने अपने बचाव में देर-सवेर प्रतिक्रिया की। असल में भी एक धर्म दूसरे को स्वीकार ही नहीं करता। इतिहास को खंगाले तो पायेंगे कि नये बनने वाले हर धर्म की उत्पत्ति भी एक प्रतिक्रिया के रूप में हुई है। इसलिए इनके धर्मगुरुओं से उम्मीद नहीं की जा सकती, वरना उनका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाएगा। आम जनता से क्या उम्मीद करें। पढ़ाई-लिखाई का कोई खास प्रभाव नहीं। आदमी मूल रूप से आज भी प्राणी है। उतना ही मूर्ख, जंगली, बावला, नासमझ, लालची जितना सैकड़ों वर्ष पूर्व था। वह तो कच्ची मिट्टी, बच्चे के समान है। जो सिखाओ सीख जाता है। यह तो बड़े बुजुर्ग, समाजशास्त्रियों, लेखकों, चिंतकों का क्षेत्र है जो उन्हें सामाजिक बनाने की कोशिश करें। आज इन्हीं लोगों को आगे बढ़कर समाज को दिशा देनी होगी। समाज के मूलभूत संरचना में फेरबदल करनी होगी। अति राष्ट्रवाद या अति धर्मवाद दोनों को रोकना होगा। सोशल इंजीनियरिंग व सोशल पोलिसिंग की आवश्यकता है। दो धर्मों के बीच सांस्कृतिक मेलजोल, शादी-संबंध को बढ़ावा देना होगा। अल्पसंख्यक वर्ग से सफल लोगों को आगे बढ़कर यह बताना होगा कि इस राष्ट्र में वो कितने सम्मान से रह रहे हैं। यह आम लोगों में विश्वास पैदा करेगा। तमाम बुद्धिजीवी वर्ग से यह आह्वान है कि वह अपने-अपने संकुचित दायरे से निकलकर स्वीकार करें कि यह उनका काम है। और फिर जिस दिन आम जनता असल गांधीगिरि के द्वारा गलत काम को रोकेगी तभी इस समाज का भला होगा।