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कोसी में जलसमाधि
बिहार में एक बार फिर बाढ़ ने तबाही मचाई है। कोसी ने हर वर्ष की तरह, इस बार भी विकराल रूप धारण कर रखा है। लेकिन विनाश का ऐसा तांडव शायद पूर्व में कभी न हुआ हो। पटना में रह रहे कालेज के जमाने के एक मित्र से इस तबाही के बारे में विस्तार से जानकारी मिली तो रोंगटे खड़े हो गए। इंटरनेट का कमाल है जो विश्वभर में बैठे कालेज के तमाम दोस्तों ने आपस में खूब चर्चा-परिचर्चा की, जमकर वाद-विवाद हुआ, इतिहास और समाजशास्त्र को खंगाल दिया गया, राजनीति को जमकर दुतकारा गया और राजनेताओं को जी-भर के गाली दी गई। हर एक इस त्रासदी से दुःखी व गमगीन था। इस बीच कनाडा में बैठे एक रईस मित्र ने बिहारी मित्र से पूछा- ‘मैं कुछ सहायता राशि भेजना चाहता हूं, मुझे एक ऐसी संस्था का नाम बताओ जो बिना किसी स्वयं के हित व स्वार्थ के, संपूर्ण सेवाभाव से, जनहित में इसका उपयोग करे।’ उसने देश की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था पर खेद प्रकट किया और आगे कहने लगा कि बाहर से बैठकर हिन्दुस्तान के राजनेताओं को पहले देखने पर क्रोध आता था अब नाम सुनते ही तकलीफ होने लगती है। पता नहीं ये मनुष्य रह भी गए हैं या नहीं? गुजरात के भूकंप और भोपाल गैस त्रासदी की याद करते हुए उसने कुछ एक स्वयंसेवी संस्थाओं का जिक्र किया जो बिना किसी बैनर और प्रचार के निःस्वार्थ भाव से राहत कार्य में जुट जाती हैं। और अंत में उसने इन्हीं में से एक स्वयंसेवी संस्था को एक बार फिर लाखों रुपए की राशि देकर अपनी मानवीयता को प्रदर्शित किया। और यही नहीं इससे आगे बढ़ते हुए स्वयं कुछ दिनों में हिन्दुस्तान आकर अपने हाथों से कुछ राहत कार्य करने की योजना बनाई। इसे समाज सेवा का सर्वोच्च स्तर माना जा सकता है। सत्य है, सिर्फ पैसा दे देने मात्र से अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझी जा सकती। अपने हाथों से काम करने पर, दुःख-दर्द को आंखों से देखने व झेलने पर ही जीवन की सत्यता का अहसास होता है। तभी मानवता दिल के अंदर निवास कर सकती है। अन्यथा ऐसे कई रईस व राजनेता हैं जो करोड़ों की घपलेबाजी और कर चोरी करके लाखों रुपए का दान करते हैं। सिर्फ नाम और वोट की खातिर। क्या इनके अंदर किसी मनुष्य को देखा जा सकता है? कदापि नहीं। हां, लेकिन यही दुष्ट व पापी अगर अपने हाथों से जरूरतमंद की सेवा करने लगें तो उनके हृदय परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है। पहले कर्म प्रधान राजनेताओं से राजनीति भरी पड़ी होती थी। अब इसे प्रजातंत्र की कमी कह लें या हमारे खुद के चयन प्रक्रिया में दोष, नेता बाढ़-भूकंप पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आते। ठीक भी है जैसा हम चाहेंगे वैसा ही नेतृत्व तो मिलेगा। इसीलिए सिर्फ राजनेताओं को अकेले दोष देने से कोई फायदा नहीं। वे तभी तक बेवकूफ बना सकते हैं जब तक हम बेवकूफ बन रहे हैं।
पिछले कुछ वर्षों में बिहार ने उन्नति की है ऐसा वहां के प्रबुद्ध वर्गों का कहना है। मगर उसको कोसी नदी ने एक झटके में रेत में मिला दिया। सब कुछ तहस-नहस हो गया। बिहार एक बार फिर कोसी के प्रकोप से ग्रसित है। मगर हमारे नेतृत्व को विश्व राजनीति और आपसी खींचातानी से फुर्सत नहीं। प्रजातंत्र अपने सबसे निचली पायदान पर पहुंचने के लिए उतावला दिखाई देता है। बड़े-बड़े औद्योगिक घराने इस बात पर मौन ही नहीं निष्क्रिय हैं। जो थोड़ा-बहुत किया भी जा रहा वो प्रचार मात्र के लिए। शायद उन्हें इस विपदा से कोई मतलब भी नहीं। मगर जब इन्हीं क्षेत्रों में कभी गाड़ियां, मोबाइल और टीवी बेचने का समय आयेगा तो सारे औद्योगिक घराने अपने विज्ञापन का बैनर लेकर वहां पहुंच जाएंगे। विश्व में कई रईस अब हिन्दुस्तान में रहते हैं इसका मतलब है कि उन्होंने यहां से, यहां की जनता से जबरदस्त पैसा कमाया है। मगर वो इस प्राकृतिक आपदा में पल्ला झाड़कर किनारे खड़े हुए हैं। यह उचित नहीं। भविष्य में लिखा जाने वाला इतिहास उन्हें उनकी इस निष्क्रियता के लिए कभी माफ नहीं करेगा। बाढ़ की तरह जनसैलाब उन्हें कब नेस्तनाबूद कर दे कोई नहीं जानता। इतिहास गवाह है कई कालखंडों के कई पन्नें इन हादसों से भरे पड़े हैं। समाज में रहकर, समाज से कमाकर, समाज से अपने आपको अलग नहीं किया जा सकता। अगर वे अपने हिस्से की आय से कुछ पैसा इसमें लगाते हैं तो यह उनका कोई उपकार नहीं। समाज का अधिकार है उन पर। फ्रांस की जनक्रांति में लूई-सोलह की पत्नी मैरी द्वारा कहे गए शब्द ‘अगर ब्रेड नहीं है तो केक खायें’ ने आग में घी का काम किया था। जिसने सैकड़ों वर्ष पुराने राजघराने को तहस-नहस कर दिया था। इस घटना से हमारे औद्योगिक घरानों को सबक लेना चाहिए।
अधिकांश समाचारपत्रों में बिहार कुछ दिनों तक प्रथम पृष्ठ पर आकर फिर अंदर की खबरों में समा गया। विनाश की इतनी प्रलयकारी घटना के बावजूद हम दूसरी चीजों में कैसे उलझ जाते हैं, सोच-सोचकर यकीन नहीं होता। क्या हमारे लिये ऐसे समय में भी भाषा, धर्म व क्षेत्र की राजनीति पर बात करना अधिक जरूरी है? या फिर क्रिकेट टीम का चयन और फिर फिल्मों की चमक या फिर आने वाले चुनावों में होने वाले दांव-पेंच? दिखाने वाले और देखने वाले दोनों के मानसिक अवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाया जाना चाहिए। क्या हमारे लिए रोज एक सनसनी का होना अतिआवश्यक है? हजारों वर्ष के सामाजिक व्यवस्था से क्या हमने सिर्फ इतना ही सीखा? इन सब घटनाओं से हमारे पढ़े-लिखे होने, आधुनिक होने, मानव होने, सामाजिक प्राणी कहलाने पर सवालिया निशान लग जाता है। असल में मीडिया एक सकारात्मक भूमिका अदा कर सकता है। समाज में एक जोश पैदा कर सकता है। जनमत तैयार कर सकता है। मानवीयता की एक लहर उत्पन्न कर सकता है। प्रबुद्धवर्ग को सोचने के लिए मजबूर कर सकता है। जनता को आगे बढ़कर सहयोग करने का आह्नान कर सकता है। देश के राजनेताओं को अपनी गंदी राजनीति से अलग हटकर इस प्राकृतिक आपदा में एकजुट होकर काम करने के लिए दबाव डाल सकता है। देश में एक ऐसा माहौल पैदा कर सकता है कि लगे मानों हरेक घर में बाढ़ का पानी घुस आया है और हर परिवार इस दुःख में बिहार की जनता के साथ है। मगर ऐसा नहीं किया जाएगा, क्योंकि मीडिया को अधिक से अधिक बिकने वाला माल चाहिए। और बाढ़ से मरने और विस्थापित लोगों पर विज्ञापन नहीं मिलते।
बिहार की यह तबाही कई वर्षों तक यूं ही गांव-गांव, गली-गली बर्बादी के अपने निशान बनाये रखेगी। दर्जनों जिले, सैकड़ों कस्बे, हजारों गांव, लाखों लोग घर से बेघर हो गए। कई गांवों का नामोनिशान नहीं। जब तक हम इससे कुछ उबर पायेंगे तब तक कोसी अगले वर्ष गंडक जैसी सहायक नदी के साथ मिलकर एक बार फिर तबाही का पानी और रेत लेकर सामने खड़ी होगी। हम एक बार फिर राहत कार्यों में जुटे हुए मिलेंगे। पुनः राहत कोष बनाये जायेंगे। हजारों मरेंगे तो लाखों बेघर और करोड़ों की संपत्ति नष्ट होगी। मगर तब तक आम भारतीय इस दुःख से अपने को एक कदम और दूर पायेगा। मस्ती के इस कालखंड में उसे दूसरों के दुःख से कोई सरोकार नहीं। कुछ वर्ष पूर्व तक हमारी तरह चीन भी बंगलादेश के बाद सबसे अधिक बाढ़ से मरने वाले देशों में से एक था। मगर आज उसने अपनी व्यवस्था कर ली है और हम वहीं खड़े हैं। कोसी के शाप से बिहार को कैसे मुक्त किया जा सकता है, जब ठेकेदारों और निष्क्रिय व लालची नौकरशाह के लिए यह वरदान हो। उनके द्वारा किए गए गलत काम को, कच्ची-पक्की सड़कों को तो बाढ़ में बहने का अच्छा बहाना मिल जाता है। और फिर बाद में राहत कार्य के नाम पर विकास के कामों को करने का एक और मौका, पैसे कमाने का एक और अवसर। मगर वो यह न भूलें कि कोसी नदी का पानी किसी भी दिन उनके महलों को भी बहा ले जा सकता है। तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने बैनर लगाने से बेहतर होगा कि वे इन्हीं कपड़ों से उन औरतों और आदमियों के शरीरों को ढकने का प्रयत्न करें जो एक-एक पल लज्जाभरी जिंदगी जी रहे हैं। विज्ञान ने बहुत उन्नति का दावा किया है। भारतीय वैज्ञानिकों व इंजीनियर भी कम नहीं। मगर चांद-सितारों पर आशियाने बनाने के ख्वाब रखने वालों ने गरीब की झोपड़ी को बचाने की कोई तरकीब नहीं बनाई। क्या हमारे पास ऐसी कोई योजना नहीं कि इस क्षेत्र को कुछ एक वर्षों में क्रमबद्ध रूप से बाढ़ रहित कर दिया जाये? क्या भारतीय बुद्धि इतनी कमजोर है कि वो इस विनाशकारी ऊर्जा को सकारात्मक बनाकर अपने पक्ष में न कर सके? और अगर नहीं तो उसे अपने आप को साबित करने की कोशिश करनी चाहिए। उठो भारत, जागो।