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महाशक्ति बनने का जयघोष
बीजिंग ओलंपिक की यादें दिलोदिमाग से उतर नहीं रही। विभिन्न कार्यक्रमों के दृश्य अनायास ही मस्तिष्कपटल पर उभर आते हैं। यकीनन यह ओलंपिक कई मामलों में ऐतिहासिक था। भारतीय संदर्भ में भी यह मील का पत्थर साबित हुआ। एक महत्वपूर्ण मोड़। जिसके बारे में मैं विगत सप्ताह विस्तार से चर्चा कर चुका हूं। आज इस महाकुंभ के माध्यम से, चीन के दृष्टिकोण से विश्व को और विश्व की नजर से चीन को देखने का मन कर रहा है। इस बीजिंग ओलंपिक के द्वारा यकीनन चीन ने अपनी पारंपरिक दीवार को खिसका कर एक ऐसी खिड़की खोली कि वो विश्व को देख सके वहीं विश्व समुदाय उसके अंदर झांकने में सफल हो सका। कई मिथ्या, अफवाहें और शक निर्मूल साबित हुए। एक ऐसा देश जिसके बारे में बाहरी दुनिया को आज भी बहुत कम जानकारियां हैं। उसके द्वारा एक सफल आयोजन करने को लेकर शंका पैदा की जाती थी। पश्चिम देशों में स्वयं को लेकर सम्मोहन, खुद को विशिष्ट और बेहतरीन समझना, दूसरों से अधिक होशियार, बुद्धिमान, स्मार्ट व ताकतवर मानना उनके स्वभाव में शामिल है। एक बीमारी के रूप में। एक ऐसी मानसिक अवस्था जिसमें आदमी हवा में जीता है, सपनों में रहता है, स्वयं को सदा के लिए श्रेष्ठ समझते रहने के भुलावे में रहता है। अब यह धारणा पूर्ण रूप से न भी टूटी हो तो कम से कम उसके पायों को जरूर हिला दिया गया। ऐसा सफल आयोजन आज से पूर्व न कभी हुआ था और न जैसा हुआ, उसकी कल्पना की गई थी। खेल में रिकार्ड्स तो हर ओलंपिक में टूटते रहे हैं मगर इस बार जैसी भव्यता थी, विशालता थी, व्यापकता थी, अनुशासन था ऐसा पूर्व में कभी नहीं देखा गया।
उपरोक्त सभी बातों से अधिक महत्वपूर्ण है कि बीजिंग ओलंपिक ने चीन को खेल के क्षेत्र में एक महाशक्ति के रूप में स्थापित कर दिया। अब इस बात पर न तो किसी को शक होगा न ही कोई इस मुद्दे पर आपत्ति कर सकता है। क्योंकि यह एक ऐसा मंच था जिसमें एक साथ तकरीबन सारा विश्व इकट्ठा था। कुल जमा 205 राष्ट्रों ने भाग लिया। इस ओलंपिक को 4.4 अरब लोगों ने देखा जो पिछले 2004 के एंथेस ओलंपिक के 3.9 अरब से कहीं अधिक था। मार्किट रिसर्च फर्म नेल्सन की ओर से जारी किये गए आंकड़ों को सत्य माने तो यह आज तक का विश्व रिकार्ड है। इस ओलंपिक में चीन ने विश्व की दो महाशक्तियों को पीछे छोड़ दिया। उल्लेखनीय है कि 1952 से 1988 के बीच सोवियत संघ अपने विघटन से पूर्व सिर्फ तीन बार 1952, 1964 और 1968 में दूसरे नंबर पर रहा जबकि छह बार पहले नंबर पर रहा। इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए बीजिंग ओलंपिक को देखें तो भी हकीकत कुछ और बयान करती है। रूस के साथ सोवियत देश उक्रेन, बेलारूस, जार्जिया, कजाकिस्तान, अजरबेजान, उजबेकिस्तान, तजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अरमेनिया, मालदोवा आदि के पदकों को भी एक साथ मिला दिया जाये तो भी ये चीन के स्वर्ण पदकों की संख्या से पीछे ही रहते हैं। पूर्व में सोवियत संघ के विघटन का सबसे अधिक फायदा अमेरिका ने उठाया था। हर क्षेत्र में। सैन्य शक्ति, विज्ञान, व्यापार के साथ-साथ खेल में भी उसका एकछत्र शासन स्थापित हो चुका था। 1992, 1996, 2000, 2004 के ओलंपिक रिकार्ड इस बात के गवाह हैं। मगर चीन ने सोवियत के जाने के बाद से ही अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया था। आज यह उसके सफलता की पहली पायदान है। जिसमें वह 51 स्वर्ण 21 रजत 28 कांस्य कुल 100 लेकर पदक तालिका में प्रथम स्थान पर है जबकि 36 स्वर्ण, 38 रजत, और 36 कांस्य लेकर अमेरिका दूसरे नंबर पर और 32 स्वर्ण, 21 रजत और 28 कांस्य के साथ रूस तीसरे नंबर पर।
इस ओलंपिक में 87 देशों ने पहली बार ओलंपिक में पदक जीता। यहां पर इस बात की भी चर्चा हुई। अमेरिका के एथलिटों के प्रभुत्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा जब जमैका के धावक उसेन बोल्ट ने सौ मीटर और दो सौ मीटर में रिकार्ड तोड़कर स्वर्ण हासिल किया। पूर्व में अफ्रीकी मूल के कई अमेरिकी खिलाड़ियों ने जीत दर्ज कर अमेरिका का नाम रोशन किया था। कई बार यह महसूस होता था, जिसे मेरी व्यक्तिगत राय भी माना जा सकता है कि श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले लोगों को, फिर चाहे वो कोई भी क्षेत्र हो, अपने पास आकर्षित कर अमेरिका अपना प्रभुत्व विश्व में जमाता रहा है। बीजिंग में यह परंपरा भी टूटती-सी दिखाई दी। अमेरिका के एथलीट अफ्रीकन खिलाड़ियों से काफी पीछे छूटते दिखाई दिये।
इस ओलंपिक को अमेरिका के पतन के प्रारंभ और चीन के महाशक्ति के रूप में उभरने के संकेत के रूप में देखा जा सकता है। इससे हिन्दुस्तान को सीखना होगा। सबक लेना होगा। इस राष्ट्र को समझना होगा कि सिर्फ कोरी बातों से, दिवा-स्वप्न देखने से कोई भी चीज हासिल नहीं हो सकती। बहाने बनाना, बात-बात पर रोना रोना, ये सब अपनी हार से बचने के बहाने हो सकते हैं। राजनीतीकरण के साथ-साथ इच्छाशक्ति व दृढ़ता की कमी हर क्षेत्र, हर वर्ग, हर स्तर पर इस देश में विद्यमान है जबकि चीन में ठीक इसके विपरीत है। सफलता प्राप्त करने के सारे गुण वहां कूट-कूटकर भरे पड़े हैं। प्रमाण चाहते हैं तो बीजिंग के 29वें ओलंपिक से पूर्व 1988 के सियोल ओलंपिक को याद करें जब चीन ने सिर्फ पांच गोल्ड जीते थे। तब किसी ने सोचा न था कि ठीक 20 साल में चीन शीर्ष पर पहुंच जाएगा। आज भी बीजिंग ओलंपिक को उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कह सकते। अभी तो बहुत कुछ आना बाकी है। 1952 हेलिंसकी ओलंपिक में चीन को एक भी मैडल नहीं मिला था और इसी कारण से 1956 से 1980 तक चीन ने किसी भी ओलंपिक में हिस्सा नहीं लिया। और 1984 के ओलंपिक में उसने 15 गोल्ड के साथ वापसी की थी। एंथेस ओलंपिक तक पहुंचते-पहुंचते यह संख्या 32 स्वर्ण तक पहुंच चुकी थी। एक राष्ट्र के निरंतर विकास की यह कहानी है। उसके दृढ़निश्चय, लक्ष्य निर्धारण, मंजिल की ओर प्रयासरत रहना उसकी विशिष्ट पहचान है। यह कुछ ऐसे ऐतिहासिक आंकड़ें हैं जो आने वाले भविष्य की ओर संकेत करते हैं। यह कुछ ऐसे सत्य है जिन्हें देखकर आज हैरानी नहीं होती मगर पूर्व में ऐसा किसी ने सोचा भी न होगा। इस सफलता के लिए चीन के नेतृत्व को अकेले श्रेय दे देना गलत होगा। वहां का अवाम, वहां का बुद्धिजीवी, राजनैतिक दल, मीडिया, सरकारी तंत्र, हर एक परिवार का एक-एक सदस्य इस विजयीगाथा में अपनी-अपनी भूमिका अदा कर रहा है। सभी की बराबरी से भागीदारी है। सबकी अपनी एक कहानी है। हर एक की अपनी हिस्सेदारी है। एक संगठित, सम्मिलित, संयुक्त प्रयास, जिसके बिना कोई राष्ट्र सफल नहीं हो सकता है। हिन्दुस्तान को अगर वास्तव में महाशक्ति बनना है तो इसका स्वप्न दिखाने वाले लोगों के साथ-साथ यहां की जनता को भी चीन से सबक लेना होगा। सीखना होगा। समझना होगा कि ऐसे हवा में किले नहीं बनाये जाते। धीरे-धीरे हर एक क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित की जाती है तब जाकर कोई राष्ट्र महाशक्ति बनता है। चीन के लिए यह पहली मगर मजबूत पायदान है। अभी तो यह शुरुआत है देखिए आगे-आगे होता है क्या।