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कमजोर कभी महान नहीं बन सकता
अभी मैं अपने पिछले हफ्ते के लेख ‘राष्ट्र बनने की चुनौती’ के चिंतन से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया था कि एक और घटना ने मुझको विचलित किया। प्रभाव इतना अधिक था कि देश के प्रति चिंता होने लगी। एक लोकप्रिय अंग्रेजी समाचारपत्र में एक लेख छपा जिसमें कश्मीर समस्या के समाधान के नाम पर एक ऐसा सुझाव दिया गया, जिसे सोचकर भी फुरफुरी आ जाती है। इसके पक्ष में कई सारे तर्क दिए गए, आंकड़े दिए गए जिसका तात्पर्य था कि एक छोटे से जमीन के टुकड़े और छोटी-सी आबादी के लिए हम न जाने क्यूं इतना पैसा और जानें गंवा रहे हैं। आगे कहने का सारांश था कि इतना कुछ करने के बावजूद अगर कोई हमारे साथ नहीं रहना चाहता तो उनसे पूछ लिया जाये कि वो चाहते क्या हैं। और अगर किसी और के साथ जाना चाहते हैं तो बेशक जाएं। मगर साथ में यह जरूर बताया गया था कि जहां वो जाना चाहते हैं उसकी दुर्दशा क्या है। साथ ही साथ अप्रत्यक्ष रूप से हमारी मजबूरियां भी बताई गई थीं। इस विचार मात्र से कि वो हमसे दूर जा सकते हैं, जबकि अभी तो यह किसी एक का व्यक्तिगत सुझाव मात्र है, सुनकर बहुत दिनों तक मन विचलित रहा। शायद अधिकांश देश प्रेमियों की इस सुझाव को पढ़कर यही मनःस्थिति हुई होगी। मैं जानता हूं कि इस सुझाव को अमल में लाना आज की तारीख में संभव नहीं है। लेख का शीर्षक भी कुछ-कुछ यही अर्थ देता है, ‘जो सोचना भी संभव नहीं’। लेकिन यहां सवाल उठता है कि एक लोकप्रिय समाचारपत्र में इस तरह के वक्तव्य का छपना किस बात का संकेत है? कहीं यह पृष्ठभूमि बनाने की तैयारी तो नहीं? इसी तरह से तो धीरे-धीरे बहस का मुद्दा बनाकर मत बनाना प्रारंभ किया जाता है। अंग्रेजी हिन्दुस्तान में अपने आप को हमेशा से पढ़े-लिखे वर्ग की तथाकथित प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा कहलाती रही है। वैसे तो यह इस देश के बहुत कम प्रतिशत द्वारा उपयोग की जाती है मगर इनके हाथ में निर्णय लेने की क्षमता है। इस वर्ग में देशप्रेम कम है या अधिक, मुद्दा यह नहीं है, लेकिन बात यह उठती है कि इस तरह की भावना का बीज बोने पर इसके अंकुरित होकर कहीं न कहीं अपना एक सुनिश्चित आकार या रूप लेने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर इस बात को जरा-सी भी हवा-पानी, जमीन मिल गई तो यकीनन यह उठ खड़ी होगी और फिर हमारे लिए एक और कांटेदार वृक्ष साबित होगी। तो क्या हम ऐसा वृक्ष चाहते हैं? अगर नहीं तो फिर इसे बोया ही क्यों गया? अब तो एक ही रास्ता है उगने से पहले ही इस बीज को सड़ जाने दें। और देखें कि ऐसे विचार क्यूं उत्पन्न होते हैं।
दिये गये तर्क में यह प्रमुख था कि क्या फायदा ऐसे छोटे से समूह का जो आपके साथ रहना ही नहीं चाहता। जो आपसे बहुत कुछ लेने के बाद भी आपके साथ खुश नहीं। सदैव आपके विरोध में बोलता है। यहां सवाल उठता है कि इसी तरह की हरकतें देश के अन्य हिस्सों में भी उभरने लगी तो क्या हम हर एक के साथ यही निर्णय लेंगे? इसके विपक्ष में भी तर्क दिया गया कि चूंकि 370 की धारा अन्य राज्यों में नहीं है इसलिए इस तरह की संभावना दूसरी जगह नहीं हो सकती। लगता है कि लेखक हिन्दुस्तान की परेशानी जिसकी तीव्रता कई बार कई जगह कहीं अधिक थी, उससे अनजान बने रहना चाहता है या वो सही दृष्टि में सजग नहीं। एक उदाहरण लेते हैं क्या हमारे प्रतिस्पर्द्धि चीन में, इस तरह की संभावना के बारे में चर्चा भी की जा सकती है? क्या वहां के समाचारपत्र के मन में तिब्बत को लेकर इस तरह की भावना उठ सकती है? चीन का नेतृत्व तिब्बत को लेकर आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से कम परेशानियां नहीं उठा रहा लेकिन उसके पीछे हटने का कोई सवाल ही नहीं। क्या यह एक महान शक्ति होने का गुण नहीं? दूसरे राष्ट्रों पर जबरन हमला करने वाला अमेरिका यहां मानव अधिकार की बात नहीं कर सकता। हम सोवियत रूस के पतन के बाद के इतिहास को भी भूल रहे हैं। अनुमान लगाया गया था कि अलग-अलग होने से रूस में शांति आएगी। क्या ऐसा हुआ? आज का बचा हुआ रूस हर फ्रंट पर वो नहीं है जो हुआ करता था। ओलंपिक बीजिंग में ही देख लें वो पहली तीन पायदान से नीचे उतर चुके हैं।
परिवार में एक बच्चा बिगड़ जाये या बुजुर्गों की बात न मानें या फिर ऐसा कुछ करने लगे जिसमें पूरे परिवार की असहमति हो, अलग होने की कोशिश करने लगे तो प्राचीनकाल से अब तक, एक समझदार पिता पहले बच्चे को प्यार से समझाता है। नहीं मानने पर डांटा भी जाता है और कहीं-कहीं शक्ति का प्रयोग और डर भी दिखाया जाता है। ऐसे में बच्चे के परिवार में साथ बने रहने की संभावना बढ़ जाती है। अधिकांश मां-बाप यह बात बच्चों को बताते हैं और यह सत्य भी है कि एक साथ रहने से परिवार मजबूत, प्रगतिशील और अधिक सुरक्षित होता है। संयुक्त परिवार के अपने फायदे हैं। इसे आज भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। आज भी समझदार मां-बाप को इसके लिए हरसंभव कोशिश करते हुए देखा जा सकता है। वो मां-बाप जो बिना किसी प्रयास के बच्चे को अकेला छोड़ देते हैं मूलतः कहीं न कहीं कमजोर ही दिखाई देते हैं। यह उनका असहायपन होता है जिसे आज के युग में समझदारी का नाम दे दिया जाता है। मगर अंत में मां-बाप को अकेले में जहां परेशान होते देखा गया है वहीं अलग हुए बेटे को भी बाद में पछताते हुए देखा जा सकता है। आप अपने चारों ओर देख लें जो पिता मजबूत इरादे वाले, शक्तिशाली, समझदार और जिनकी परिवार में अच्छी पकड़ होती है वे अंतिम समय तक परिवार को एकसाथ रखते हैं। या यूं कह लें जहां भी आप संयुक्त परिवार देखें तो पायेंगे कि उसका मुखिया दृढ़निश्चयी स्वभाव का होगा। बिखरे हुए परिवार का मुखिया अमूमन कमजोर ही मिलेगा। संयुक्त परिवार की मोहल्ले और शहर में धाक होती है पहचान होती है। मुसीबत में घर से दस आदमी खड़े हो जाते हैं।
आधुनिक परिवार के हितैषी चाहे जितनी बातें और दर्शनों को झाड़ लें, लेकिन व्यावहारिक सत्यता तो यही है कि बच्चे के बिगड़ने पर, अनुशासन के लिए कठोरता से पेश आना आवश्यक एवं शुभ फलकारी होता है। सदैव बच्चे की बात मानना, उसे सिर-आंखों में बिठाना, बच्चों के साथ-साथ परिवार के लिए भी हानिकारक होता है। यह दूसरे बच्चों में असंतोष पैदा करता है। शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी लगने से, घाव होने पर, उसे तुरंत काट नहीं दिया जाता। पहले उसकी मलहम-पट्टी लगायी जाती है जो प्रारंभ में कभी भी अच्छा अहसास नहीं देती। दवाई में रासायन होते हैं जो जख्मों पर लगाते ही जलन या तकलीफ करते हैं। मगर फिर यही पीड़ा घाव को भरने के लिए आवश्यक है। दर्द भी होता है, टीस भी उठती है, आंखों से पानी भी आता है। मगर घाव में गर्म चीरा लगाने से ही उसका जहर मिट पाता है। घाव को सुखाने के लिए मवाद को निकालना भी जरूरी है। खाने की कड़वी गोली दी जाती है। रोगी के मना करने पर डाक्टर उसके साथ भी कभी-कभी सख्ती से पेश आता है। और जो मां-बाप या रोगी इस दर्द को सहने के लिए तैयार नहीं उसके लिए यही घाव बढ़कर एक ऐसा रूप ले सकता है कि शरीर के अंग को काटने की नौबत आ जाए। ऐसे में रोगी जीवित तो रहता है मगर अपंग कहलाता है। इससे बचने के लिए समय पर उपचार जरूरी है। क्या किसी डाक्टर के ये कहने पर कि अगर इस तरह से आपने समय पर इलाज नहीं करवाया तो आपके बच्चे का अंग काटना पड़ सकता है, क्या कोई भी अभिभावक इस कड़वे सत्य को सुनने के बाद भी अपने बच्चे को होने वाली कुछ देर की पीड़ा को झेलने के लिए तैयार नहीं हो जाता? कठोरता से पेश नहीं आता? कई बार गलत काम करने पर थप्पड़ नहीं लगाता? और अगर नहीं लगाता तो उसे अपने परिवार के छिन्न-भिन्न होने के लिए, शरीर का अंग काटने के लिए तैयार होना होगा। ठीक इसी तरह हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम एक कमजोर एकल परिवार के मुखिया बनना चाहते हैं या सशक्त संयुक्त विशाल परिवार के मजबूत मुखिया। और कुछ हो न हो महाशक्ति बनने के लिए हमें मजबूत, संतुलित और साहसी बनना होगा। अन्यथा शहर में छोटे-मोटे घर-परिवार तो सैकड़ों मिल जायेंगे मगर उनका कोई अस्तित्व नहीं। और फिर जिसकी घर में धाक नहीं उसे बाहर कौन पूछता है।